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करुणा और दया के मुखौटे


लोग मार खाकर भी काम कर रहे थे, क्यांेकि उन्हें कहीं रोजगार नहीं मिलता था। ऐसा नहीं था कि मजदूरी अच्छी देता था लेकिन जो भी काम मांगने आता उसे निराश नहीं करता था। कुछ लोग मार खाने या उसका यह रूप देखकर काम पर न आते लेकिन अधिकतर आते...।
अंधेरे कोने
 भाग 11

करुणा और दया के मुखौटे 
ऐसा नहीं था कि अंग्रेजी नहीं आने के कारण अमर को पहली बार नुकसान हुआ था। इस अंग्रेजी के कारण तो उसने बड़ी जिल्लतें और अपमान झेले हैं। कितनी बार उसे इसकी वजह से नौकरी नहीं मिली। मिली तो चली गई। एक बार तो इसकी वजह से नौकरी तो गंवाया ही। इसी की वजह से नौकरी भी नहीं मिली। उसे एक बार फिर से एक फैक्ट्री में मजदूरी करनी पड़ी थी। फैक्ट्री मालिक दिखावे के लिए दयावान लेकिन अंदर से पूरा हैवान और शैतान था। मजदूरों को केवल शोषण ही नहीं करता था वह उन्हें मारता-पीटता भी था। गाली तो ऐसे देता था जैसे किसी देवता के लिए आरती गाता हो।
शहर का नामी उद्योगपति था। शहर के नामी मंदिरों की कमेटी का चेयरमैन था। धर्मार्थ ट्रस्टों का भी चेयरमैन था। शहर में कोई धार्मिक कार्य बिना उसके सम्पन्न नहीं होता था। अखबारों में हर रोज उसकी तस्वीरें छपतीं। कभी दान देते हुए तो कभी आशीर्वाद देते। कमाल तो यह था कि मजदूरों को मारते-पीटते कभी तस्वीर नहीं छपी। जबकि दो-चार मजदूरों की वह प्रतिदिन पिटाई करता था।
शहर से निकलने वाले अखबारों के संपादक ही नहीं पत्रकारों से भी उसकी दोस्ती थी। कुछ महीना लेते तो कुछ साथ बैठकर पीते थे...।
 शहर के अच्छे कामों से यदि उसका नाम जुड़ा रहता तो। स्कैंडलों में भी उसका नाम जुड़ता। हालांकि अच्छे कार्यों में सहभागिता के कारण अखबारों में उसकी तस्वीरें छपतीं और खबर भी छपती लेकिन स्कैंडलों में केवल उसके नाम की चर्चा होती। कई पत्रकार तो सुबूत होने तक का दावा करते लेकिन खबर कोई नहीं लिखता। शहर से छपने वाले अखबारों के संपादकों के साथ वह शराब पीता था। हर पर्व त्योहार पर उपहार देता था। छोटी-मोटी आवश्यकताओं की पूर्ति करता था। शहर में यदि कालगर्ल पकड़ी जाती तो उससे भी लोग उसका नाम जोड़ देते। हत्या-डकैती, अपहरण में तो माना जाता था कि सब उसी की शह पर होता है। शहर के अधिकतर लोग उसे गालियां देते लेकिन धार्मिक अनुष्ठान में उसे बुलाना नहीं भूलते। शहर में उसकी खूब प्रसिद्धि है। लेकिन विधायक का चुनाव लड़ना चाहा तो किसी राजनीतिक दल ने टिकट नहीं दिया। जब किसी दल से टिकट नहीं मिला तो निर्दलीय मैदान में कूद पड़ा। अखबारों में विज्ञापन देकर, पैसे देकर खबरें छपवाकर अपने पक्ष में हावा भी खूब बनाई लेकिन जब वोटों की गिनती हुई तो वह चौथे स्थान पर था। और जमानत जब्त करवा चुका था...।
अंग्रेजी नहीं आने के कारण जब एक अखबार ने उसकी छंटनी कर दी और अन्य अखबारों ने उसे नौकरी नहीं दी तो जीविकोपार्जन के लिए अमर को इस उद्योगपति की शरण में आना पड़ा। यह आदमी भी अमर को रखने के लिए तैयार नहीं था। वह तो कुछ पत्रकार मित्रों ने उस पर दबाव बनाया तब जाकर वह बारह घंटे की ड्यूटी के बदले पांच हजार की नौकरी देने को तैयार हुआ।
एक दिन वह रात के बारह बजे फैक्ट्री पहुंचा। उस समय अमर की फैक्ट्री के कुछ मजदूर चाय पीने कैंटीन गये थे। वैसे तो श्रमिक हमेशा सतर्क रहते, क्योंकि उसका दौरा 24 घंटे में कभी भी हो सकता था। वह न भी आये तो उसने चार लोगों की एक टीम बना रखी थी। जो कैमरा लिए उसकी सभी फैक्ट्रियों में घूमते रहते। किसी को भी सोते पाते या बैठे उसे कैमरे मंे कैदकर लेते और अगले दिन उसे यानी दयावान यानी फैक्ट्री मालिक को वह तस्वीर दे देते। इसके बाद वह संबंधित मजदूर को बुलाता और जमकर पीटता। कई बार उसकी पिटाई से मजदूरों के हाथ-पैर टूट गये हैं। जिनका इलाज वह अपने चेरिटेबल अस्पतालों में करवाता। कहने वाले तो यह भी कहते कि उसकी पिटाई से कई मजदूरों ने दम तोड़ दिया है। जिनकी लाश का आज तक पता नहीं चला...।
चाय पी रहे मजदूरों को उसने कैंटीन पर पकड़ लिया। फिर क्या था सभी की जमकर पिटाई हुई। उसमें से एक भी उस दिन काम करने के लायक नहीं रहा। चार-पांच तो बेहोश हो गये थे। उन्हें उसने अस्पताल पहुंचाया...।
यह वाकया अमर के सामने घटा। उसे ज्वाइन किये एक सप्ताह ही हुआ था। अब तक दयावान के कारनामों के किस्से मजदूरों ने उसे बता दिये थे। वैसे भी अमर दयावान के इस पहलू से पहले ही इत्तेफाक रखता था लेकिन वह इतना क्रूर है पहली बार देखा।
लगभग रोज ही कुछ श्रमिक उसके हाथों पिटते लेकिन फिर भी वहीं काम पर आ जाते।
- लोग मार खाने के बाद फिर काम पर क्यों आ जाते हैं? अमर ने कुछ श्रमिकों से सवाल किया था।
- क्या करें? कहां जाएं? यहां कम से कम काम तो मिल जाता है। घर बैठने से तो, भूखों मरना होगा। इससे अच्छा है कि दो चार लात-घूंसे खाकर चार रोटी खाने की जुगाड़ की जाए...।
लोग मार खाकर भी काम कर रहे थे, क्यांेकि उन्हें कहीं रोजगार नहीं मिलता था। ऐसा नहीं था कि मजदूरी अच्छी देता था लेकिन जो भी काम मांगने आता उसे निराश नहीं करता था। कुछ लोग मार खाने या उसका यह रूप देखकर काम पर न आते लेकिन अधिकतर आते...।
एक दिन अमर ने उसके इस रूप की चर्चा अपने उस दोस्त से की जिसने उसे यहां पर काम पर लगवाया था।
- यार यदि उसने मुझे मारा तो मैं छोडूंगा नहीं।
- अव्वल तो तुम्हंे वह हाथ नहीं लगाएगा, क्योंकि वह जानता है कि तुम पत्रकार हो और कुछ भी हो तुम्हारी पकड़ मीडिया पर है। वह मीडिया से डरता है। क्योंकि वह गलत है। इसलिए वह मीडिया को पटा कर रखता है।
दूसरे यदि उसने तुम्हें मार दिया और तुमने पलटवार कर दिया तो समझो कि तुम गये काम से। फिर तुम्हें कोई नहीं बचा सकता। तुम जानते हो कि पुलिस के सिपाही से लेकर अफसर तक उससे पैसा खाते हैं। वह तुम्हें किसी भी केस में अंदर करवा देगा। पुलिस उसकी सुनेगी, तुम्हारी नहीं। मीडिया भी उससे पैसा खाता है। संपादक लोग जहां उसके साथ दारू पीते हैं और पर्व-त्योहार पर महंगे उपहार हथियाते हैं। पत्रकार भी हर माह कुछ न कुछ झटक ही लेते हैं। ऐसे में वह भी तुम्हारी मदद को आगे नहीं आएंगे। इसके अलावा शहर का प्रत्येक नामी बदमाश उसका पालतू कुत्ता है। उसके एक फोन पर वह तुम्हें ऐसा काटेेंगे कि चौदह इंजेक्शन लगने के बाद भी तुम पागल हो जाओगे और कुत्ते की मौत मर जाओगे। इसलिए मेरे भाई ऐसी गलती कभी मत करना।
- यार यह आदमी है कि राक्षस?
- उसके पास पैसा है। वह पैसे की ताकत को जानता है। वह जानता है कि जहां पैसा है वहीं सत्ता होती है। सरकार और प्रशासन सब कहने की चीजें हैं। नेताओं को जनता वोट देती है। उद्योगपति नोट देते हैं। कहने को वह जनप्रतिनिधि होते हैं लेकिन काम उद्योगपतियों के लिए करते हैं। सरकार का प्रत्येक फैसला पैसे वालों के हित में होता है। यह व्यवस्था ही ऐसी है। यह ऐसे ही चलती है। अंदर से क्रूर और बर्बर और बाहर से दयालु, करूणामयी व कोमल। यही इसका असली रूप है। दयावान तो इसका एक अंशमात्र है।
- कोई उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता?
- क्यों नहीं बिगाड़ सकता। उसे मारो मत, मार डालो। हालांकि ऐसे लोग रक्तजीवी होते हैं। एक मरता है तो कई पैदा हो जाते हैं। फिर भी मारना नहीं मार डालना ही इनका इलाज है। लेकिन ऐसा लोग कर नहीं पाते। गरीबी के कारण परिवार सहित आत्महत्या कर लेते हैं। भूख के मारे मर जाते हैं। जिंदा रहने के लिए किसी को मार नहीं सकते। मैं तो कहता हूं कि गरीबी के कारण परिवार सहित जान देने से अच्छा है कि आपको इस हालात में पहुंचाने वाले को सबक सिखाओ। मरो मत मार डालो। भूख से क्यों मरते हो? उसके लिए जिम्मेदार लोगों को मार डालो। सभी की नहीं किसी एक की तो हत्या करो। शुरू तो करो। खुदखुशी कायरता है। जो आपको मरने के लिए बाध्य कर रहा है उसे मार डालो।
- इतनी चेतना सब में नहीं होती। लोग अपने दुश्मनों को भी नहीं पहचान पाते।
- होंगे। लोग चेतनाशील भी होंगे और अपने दुश्मन को भी पहचानने लगेंगे। बहुत दिनों तक कोई यों ही नहीं मरता रहेगा। एक दिन सच उसके सामने आएगा और वह अपने जीवन के लिए ऐसा फैसला करेगा।
- तो तुम हिंसा का समर्थन करते हो?
- कैसी हिंसा? आप किसी को मार डालो। किसी को जीने मत दो। किसी को उसकी पूरी मजदूरी मत दो। उसका शोषण इतना करो कि वह जीने की आस ही छोड़ दे। इतनी कम मजदूरी दो कि वह पशुओं की तरह जीवनयापन करे। चाय पीने चला जाये तो पिटाई करो। कंपनी घाटे में चलने लगे तो छंटनी कर दो? आप किसी को तिल-तिल कर मरने के लिए विवश करके छोड़ दो। यह हिंसा नहीं है? यदि ऐसी हिंसा के लिए कोई हिंसा करे तो कैसी हिंसा? कहा गया है कि जहर से जहर मरता है, लोहा-लोहे से ही कटता है। करुणा और दया के मुुखौटे में छिपी हिंसा से भी इसी तरीके से लड़ना होगा। इसमें गलत क्या है? यही प्राकृतिक न्याय है। क्योंकि भय बिन होई न प्रीत ... यह एक सच है। बिना भय के उपजी करुणा उतनी ही लिजलिजी होती है जितनी की बारिश में भीगा मनुष्य का मल...।
अमर के दोस्त ने कहना जारी रखा।
- लोग मुझे गलत कह सकते हैं। कथित नैतिकताधारी हमें गालियां देते हैं। लेकिन मैं जानता हूं कि मैं सही हंू। मेरे पास एक हथियार है जिसके भय से दयावान जैसे लोग मुझे मरने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। वह अच्छी तरह से जानते हैं कि मैं उन पर पलटवार कर सकता हूं। मेरा अखबार मुझे एक पैसा नहीं देता। फिर भी मैं उसके लिए काम करता हूं। साल में लाखों रुपये का बिजनेस भी देता हंू। इसके बदले मुझे मिला है एक हथियार। जिससे दयावान जैसे लोग घबराते हैं। मैं इनके भय का दोहन करता हूं। अपनी ही व्यवस्था में ये गलत हैं। इनकी यही गलती मेरी ताकत है। बनी रहे यह व्यवस्था। फलते-फूलते रहें दयावान जैसे लोग। ये परजीवी प्राणी हैं तो मेरे जैसे मीडियाकर इस परजीवी प्राणियों के धन पर जीने वाले परजीवी कीड़े हैं। ये मजदूरों का खून पीते हैं। हम इनसे वसूली करते हैं। ये हमंे नहीं मार सकते और मैं इन्हें नहीं मार सकता। यह हमारे इनके बीच एक अघोषित समझौता है जो भय के हथियार से संभव हो पाया है।
समझौता शब्द अमर के दिमाग में अटक गया। जिंदगी शायद समझौतों का ही नाम है। जीवन में कितने समझौते करता है आदमी। हर कदम पर एक समझौता। खड़ा रहने, चलेन-फिरने, उठने-बैठने, हगने-पीने-सोने सब के लिए समझौता। जो नहीं करता वह इस व्यवस्था से बेदखल कर दिया जाता है। कहने को आदमी स्वतंत्र है, आजाद है जो चाहे करे लेकिन नहीं, उसे वही करना पड़ता है जो यह व्यवस्था करवाती है। आज कल तो आदमी सपने भी अपने मन का नहीं देखता। उसके दिमाग में सपने भी यह व्यवस्था पहले ढूंसती है फिर उसे पाने और पूरा करने के लिए वह पूरी जिंदगी भागता रहता है। नौकरी चाहिए? फला-फला कोर्स फला जगह से करो? कार चाहिए? बैंक से लोन ले लो। घर चाहिए? बैंक से लोन ले लो। खरीदारी करनी है? क्रेडिट कार्ड है न? देते रहना। एक माह तक कोई ब्याज भी नहीं लगता। बाद में भरते रहना। लेकिन ये सपने भी किसे दिखाए जा रहे हैं? कौन देख रहा है इसे? कौन दिखा रहा है? इंडिया के लोग दिखा रहे हैं। भारत के लोग देख रहे हैं। भाइंग के भैया कहां हैं? उनका कोई सपना नहीं है। उनका सबसे बड़ा सपना शाम तक दो रोटी की जुगाड़ करना है। ऐसे लोगों को कोई सपने नहीं दिखाता। लेकिन नहीं, बाजार इनके कमरे में भी घुस गया है। वह इनकी बचत को शोख रहा है। इन्हें भी सपने देखने के लिए उकसाता है। भले ही इनका बैंक में खाता न हो। क्रेडिट कार्ड न हो। इन्हें बैंक वाले लोन न दें लेकिन बाजार इनकी दिहाड़ी में से ही चोरी कर ले रहा है।
बेचारे घरवाली या मां-बाप को कभी पत्र नहीं लिखते थे। अब सैकड़ों रुपये मोबाइल फोन पर फूंक देते हैं। कभी-कभी ठंडा पेय भी पी लेते हैं। दुकान पर देखकर इनका भी मन करता है कि इसका स्वाद कैसा है जान लिया जाए? शराब भी पीते हैं। इसी तरह बाजार इनकी जिंदगी में भी घुसा है। इनके पसीने की कमाई को चुपके से लूट लेता है। इन्हें पता भी नहीं चलता कि इनकी जेब पर डाका पड़ गया है।
अमर को ख्याल आया कि एक बार वह दिल्ली में अपने वरिष्ठ मित्र एम सरकार के साथ बाबू की चाय की दुकान पर बैठा था।
शकरपुर स्कूल ब्लाक में बाबू की चाय की दुकान है। पहले भी थी आज भी है। बाजार ने उस पर भी आक्रमण किया। लेकिन वह आज भी वहीं जमा है।
फैक्ट्री में दिहाड़ी पूरी करने के बाद अमर हर रोज सरकार के साथ बाबू की चाय की दुकान पर बैठता। उस समय वह बीए दूसरे वर्ष की पढ़ाई कर रहा था। अखबारांे में बतौर स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर उसके दो-चार लेख छप चुके थे। बाबू की दुकान पर बैठ कर दोनों पत्रकारिता के साथ ही अन्य विषयों पर बातचीत करते। एम सरकार चलते फिरते इनसाइक्लोपीडिया थे। तमाम तरह की जानकारियों से उनका भेजा भरा पड़ा था। हर विषय का बिल्कुल नया विश्लेषण करते। सरकार सीपीआई एमएल के किसी समय होल टाइमर थे। इस समय पत्रकार बन गये थे। फिलहाल बेरोजगार थे। इसलिए उनकी आर्थिक हालात काफी खराब थी।
बहरहाल, बाबू बोतल बंद पानी भी बेचने लगा था। कारण पुरानी मूर्तियों और खंडहरों के पत्थरों को बेचने वाले के यहां विदेशी आते। उन विदेशियों के लिए बोतल बंद पानी की जरूरत पड़ती। विदेशी इस देश का कबाड़ तो ले जाते थे लेकिन यहां का पानी नहीं पीते थे। जब उसकी मांग हुई तो बाबू उसकी आपूर्ति करने लगा।
एक दिन उस पानी को पीने के लिए अमर ने इच्छा जताई। उसने सरकार से कहा कि आखिर यह पानी होता कैसा है?
- यह तो पीने के बाद ही पता चलेगा। सरकार ने सलाह दी। अमर ने बाबू से दो बोतल पानी लिया था। पानी पिया लेकिन उसे उस बोतल बंद पानी और नल के पानी में खास फर्क नजर नहीं आया। उसने अपनी भावना व्यक्त भी कर दी। सरकार ने कहा था कि यह फिल्टर किया गया पानी है। इसे पीने से बीमारी नहीं होती। हम लोग जो पानी पीते हैं वह शुद्ध नहीं होता। उसके पीने से तरह-तरह की बीमारियां हो जाती हैं।
- फिर तो विदेशी कभी बीमार नहीं होते होंगे?
- बीमार क्या यह भी साले बीमारी से मरते हैं। साले दिखावा करते हैं। इन्हें नहीं मालूम की बाजार में कुछ भी शुद्ध नहीं होता। पूंजी मुनाफा कमाने के लिए हर जगह घपला-धोखा-मिलावट और भ्रष्टाचार करती है। शुद्धता के नाम पर ये पानी बेचने वाली कंपनियां इन्हें बेवकूफ बनाती हैं।
एम सरकार ने जवानी पार्टी के नाम कर दी थी। चालीस के बाद शादी की और एक दो साल की बेटी थी। लेकिन समझौते अभी भी नहीं कर पा रहे थे। लिहाजा बेरोजगार थे। उन्हें अंग्रेजी आती थी और हिंदी भी कमाल की थी। वह अंग्रेजी में लिख भी लेते थे और बात भी कर लेते थे। लेकिन वह बेकार थे। अमर कभी-कभी सोचता कि क्या कमी है सरकार में? वे क्यों असफल हैं? एक से एक महामूर्ख सफल हैं लेकिन वह असफल हैं। क्यों? क्योंकि उन्होंने अपने विचारों और सिद्धांतों से समझौता नहीं किया था। इस व्यवस्था में जीना है तो समझौता तो करना ही पड़ेगा...।
अमर से सरकार की मुलाकात भी महज एक इत्तफाक थी। शाम का समय था। अमर अपनी फैक्ट्री के गेट पर खड़ा था। तभी उसकी निगाह सरकार पर पड़ी थी। बढ़ी हुई दाड़ी। पैरों में घिसी हुई हवाई चप्पल। सस्ते और घिसे हुए कपड़े पहने थे। वे राशन की दुकान के सामने कुछ देर तक खड़े रहे। फिर चले गये। उन्हें देखकर अमर को लगा था कि यह जरूर हिंदी का कोई लेखक है...। थोड़ी देर बाद फैक्ट्री की छुट्टी होने के बाद वह अपने मित्र आलोक के यहां गया तो वहां सरकार बैठे थे। आलोक ने सरकार का परिचय अमर से कराया।
इसके बाद शाम को अक्सर सरकार फैक्ट्री आ जाते। छुट्टी होने के बाद अमर और वे बाबू की चाय की दुकान पर बैठते। या फिर आलोक के यहां बैठते। कुछ दिन बाद तो सरकार शाम से पहले बाबू की दुकान पर बैठे रहते। शाम की छुट्टी होने के बाद अमर भी वहीं पहुंच जाता।
सरकार की आर्थिक हालत बहुत खराब थी। कमरे का किराया दे नहीं पा रहे थे। खाने के लिए भी दिक्कत थी। यहां तक की बच्ची के लिए दूध तक की व्यवस्था नहीं कर पा रहे थे। ऐसे में कुछ मदद अमर ने उनकी की। कुछ अमर का दोस्त मुन्ना ने की। अन्य परिचितों से भी उन्हें मदद मिली तो स्थिति थोड़ी ठीक हुई।
एक माह बाद उनकी एक एनजीओ में नौकरी लग गई। इसके बाद वह व्यस्त हो गये और अमर का भी उनके यहां आना-जाना कम हो गया। वैसे भी अमर स्कूल ब्लाक में रहता था। सरकार मंडावली में रहते थे। कमरे काफी दूर थे इसलिए रोज मिलना संभव नहीं था। काम मिलने के बाद सरकार कुछ बदल भी गये थे, ऐसा अमर ने महसूस किया इसलिए भी उसने जाना कम कर दिया।
इस बीच अमर की पढ़ाई पूरी हो गई। वह स्वतंत्र पत्रकारिता करने लगा। फैक्ट्री की नौकरी छोड़ दी। लिखने पढ़ने में व्यस्त हो गया। कुछ साल बाद नौकरी के सिलसिले में दिल्ली भी छोड़ दिया।
तीन चार साल बाद ऐसे ही एक मित्र के यहां सरकार से मुलाकात हुई थी। उस समय भी वह बेरोजगार थे। कुछ दिन बाद किसी मित्र ने बताया कि उनका किसी लड़की से चक्कर है। उसके चक्कर में घरवाली को छोड़कर पता नहीं कहां रह रहे हैं। अमर को इस पर विश्वास नहीं हुआ। फिर उसे याद आया कि ऐसा ही आरोप उन पर संगठन में रहते हुए भी लगा था। इसके बाद अमर कई बार दिल्ली आया लेकिन सरकार से मुलाकात नहीं हो पाई। कई महीनों बाद किसी दोस्त ने बताया कि उनकी मृत्यु हो गई है। कहां-कैसे? पता नहीं चला। उनकी पत्नी और बेटी कैसी हैं? यह भी पता नहीं चला। अमर सरकार के ज्ञान-विचार सिद्धांतों का सम्मान करता है। सरकार के लिए उसके दिल-दिमाग में हमेशा स्थान बना रहता है।
- खाना नहीं खाना क्या? नेहा ने छत पर आकर कहा तो अमर स्मृति कूप से बाहर निकला।
- खाना बन गया?
- कब का बन गया। कब से बुला रही हूं कि नीचे आ जाओ लेकिन आप हैं कि पता नहीं कहां खोये हैं?
- ऐसे ही कुछ बातें याद आ गई थीं।
- बातें या किसी की याद सता रही है। नेहा ने तंज किया। अमर उसका इशारा समझ गया।
- तुम औरतें भी न शक की बीमारी से ग्रसित रहती हो?
- और पुरुषों को क्या बीमारी है? जनाब खुद को भौरा समझते हैं। कली से लेकर फूल तक पर अपना हक समझते हैं।
- अकेला पुरुष तो कुछ भी नहीं कर सकता। उसका साथ तो औरत ही देती है। बल्कि मैं कहता हूं कि कई बार तो उसकी इच्छाओं को औरत ही हवा देती है। पुरुष मुफ्त में बदनाम हो जाता है।
- हां, पुरुष तो कुछ करता ही नहीं। उसकी थाली में खाना आ जाता है। वह भूखा होता है और खा लेता है।
- बिल्कुल ऐसा ही होता है।
- ऐसा नहीं होता। घरवाली के होते हुए भी पुरुष बाहरवाली के लिए नाक रगड़ता रहता है। किसी महिला ने जरा सी अदा दिखाई तो उसके पीछे पड़ जाएंगे। पीछा तभी छोड़ते हैं जब तक उसे भोग न लें।
- कोई भोगा तो नहीं? अमर ने पलटवार किया।
- किसे? नेहा अमर के इशारे को समझने के बाद तमकर बोली
- किसी मां ने ऐसा लाल नहीं पैदा किया। मां-बाप ने जिसका हाथ पकड़ा दिया यह तन-मन उसी के नाम समर्पित हो गया।
अमर ने नेहा को बाहों में भर लिया और जीने पर ही उसके गालों को चूम लिया। अधरों का भी पान करना चाहा तो नेहा ने रोक दिया। रहने दो कहीं भी शुरू हो जाते हो। यह भी ख्याल नहीं करते कि बच्चे बड़े हो गये हैं। देख लेंगे तो क्या सोचेंगे?
- यार बच्चे बड़े हुए हैं। हम तो बूढ़े नहीं हुए हैं। अब मां-बाप ने कम उम्र में शादी कर दी तो हम क्या करें?
- सब्र करें।
- और किया क्या है इंतजार के सिवा?
दोनों नीचे आ गये। बेटे टीवी देख रहे थे। अमर भी देखने लगा। उस समय उसी का सीरियल चल रहा था। नेहा ने खाना लगाया तो सभी फर्श पर बैठकर खाना खाने लगे और टीवी भी देखते रहे। बीच-बीच में सीरियल के बारे में चर्चा होती रही। बड़े बेटे ने बताया कि उसके दोस्त कल घर पर आएंगे। अमर से मिलने के लिए।
- मुझसे क्यों मिलना चाहते हैं भाई?
- उन्हें आपका रोल अच्छा लगाता है।
- हां, मेरे भी दोस्त मिलना चाहते हैं। बीच वाले ने भी ऐलान किया। छोटे साहब कहां पीछे रहने वाले थे। उन्होंने भी ऐलान किया।
- मेरे भी दोस्त मिलना चाहते हैं।
- अच्छा। आपके दोस्त भी सीरियल देखते हैं? अमर ने प्यार से कहा।
- हां, मैं आपको टीवी मंे देखता हूं। आपको आंटी से प्यार है।
- अरे, वाह। आपसे किसने कहा?
- मम्मी ने। छोटे साहब ने नेहा की ओर इशारा करते हुए कहा।
- और क्या कहा मम्मी ने?
- मम्मी ने कहा कि वो टीवी वाली आंटी मेरी नई मम्मी हैं।
- अच्छा! तो कैसी लगती हैं नई मम्मी ?
- अच्छी। हंसते हुए छोटे जनाब ने कहा।
- मिलोगे?
- हां।
- उनको घर ले आउं?
- हां, नहीं-नहीं-नहीं।
- क्यों?
- वह मुझे मारेंगी।
- ये किसने कहा?
- मम्मी ने।
- यार आपकी मम्मी ने आपसे क्या-क्या कह दिया? अमर ने नेहा की तरफ देखते हुए कहा।
- कुछ नहीं। मजाक कर रही थी। टीवी पर आपको उस लड़की के साथ देखता है तो जान खा जाता है। मम्मी ये कौन है? मेरे पापा के साथ क्यों है? इसने डैडी को किस क्यों किया? डैडी को प्यार करती है? ऐसे सवालों पर क्या करती? मैंने भी कह दिया कि हां, डैडी से प्यार करती है। शादी करेगी। तुम्हारी नई मम्मी बनेगी।
- और घर आएगी तो मारेगी? बच्चे हैं यार।
- तो मैं क्या करूं? क्यांे कर रहे हो ऐसा?
- क्या कर रहा हूं?
- सीरियल में तो कर रहे हो? देखता है तो सवालों की झड़ी लगा देता है। जब तक जवाब न दो पीछे पड़ा रहता है।
- सीरियल न देखा करो।
- बिना देखे भी नहीं मानता। कहता है कि डैडी को देखना है। आंटी को देखना है। आंटी सोहणी कुड़ी है। मैंनू अच्छी लगदी है। कमाल है। बेटे को सोहणी लगदी है तो बाप को क्या लगती होगी?
- हूर..। अमर ने मजाक किया लेकिन शब्द कहीं दिल से निकला था।
- जानती हूं। इतनी पागल भी नहीं हूं। अनपढ़ हूं, गंवार हूं, लेकिन बेवकूफ नहीं हूं। इतनी अकल भगवान ने दी है। सब समझती हूं लेकिन क्या कर सकती हूं अपनी किस्मत में शायद यही लिखा है। पढ़ी-लिखी होती तो ऐसा दिन न देखना पड़ता। तीन-तीन बच्चे पैदा करने के बाद तो उतनी संुदर भी नहीं रही। नेहा ने उलाहना दी।
नेहा बरतन को समेटती रही और बोलती रही। अमर चुप रहा। वह नेहा के जज्बात को समझ रहा था। ऐसी स्थिति में अपनी जगह खोजता रहा।
हिंदी.भारत@इंडिया
- ओमप्रकाश तिवारी

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