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Showing posts from 2008

कहानी - कोढ़ी का नल

अन्तिम भाग -- उसने नल की तरफ देखा। अब वहां चिड़ियां नहीं थीं। उसने इधर-उधर निगाह दौ डाई। चिड़ियां पास के नीम के पेड पर फुदक-फुदक कर चहक रही थीं। नल पे़ड की छाया में निर्विकार भाव से खड़ा था। उसका हत्था नीचे की तरफ लटका हुआ था...। रामनाथ नल पर गया। अपनी चादर को भिगोया और वापस आकर चारपाई पर गीली चादर को ओ ढकर लेट गया। गीले कपड़े से उसे गर्मी से थो डी राहत महसूस हुई। हल्की-हल्की हवा भी चलने लगी थी और सूरज भी पश्चिम दिशा की तरफ बढ़ने लगा था। गर्मी से थोडी राहत मिली तो रामनाथ नींद की आगोश में समा गया। दो पथिकों के वार्तालाप ने उसकी नींद को तो डा। पथिक कहीं से आ रहे थे। उन्हें प्यास लगी थी। नल को देखा तो पानी पीने लगे। - यार किसी पुण्यात्मा ने यह नल लगवाया होगा। राहगीरों को पानी पीने से तृप्ति मिली तो उनके उद्गार बाहर आ गए। - सो तो है ही भाई। आज के जमाने में तो लोग नल घर के अंदर लगवाते हैं। बाहर लगवा भी दिए तो हत्था निकाल कर रख देते हैं। दूसरे राहगीर ने पहले वाले की बात को आगे बढ़ाया और आगे बढ़ लिए। रामनाथ के कानों में पुण्यात्मा शब्द गूंज रहा था। वह सोचने लगा कि मैं भी पुण्यात्मा हूँ ।

कहानी कोढ़ी का नल

भाग तीन - क्या सोच रहे हो? कितनी बार कहा है कि नल पर मत जाया करो। लेकिन मेरी सुनते ही नहीं। रामनाथ की घरवाली ने पानी से भरी बाल्टी जमीन पर रखते हुए कहा। - क्यों न जाऊं? नल या उनके बाप का है? या मैं आदमी नहीं हूँ ? रामनाथ अभी तक जिस गुस्से को पानी की तरह पी रहे थे उसे पत्नी पर उलच दिया। - कहावत है कि शूद्र की गगरी दाना, शूद्र पड़ा उताना। आजकल कमाई हो रही है तो इनकी आंखों पर चर्बी चढ़ गई है। - तब मैं कोढ़ी नहीं था जब यह लोग यहां आकर बसे थे और हमसे ही मांग कर पानी पीने थे? रामनाथ ने पत्नी से सवाल किया। हालांकि यह प्रश्न वह उन लोगों से पूछना चाहते थे। - आदमी का मतलब निकल जाता है तो उसकी चाल ऐसे ही बदल जाती है। - कोई बात नहीं। ईश्वर ने चाहा तो कभी मेरा भी व त आएगा। तू एक काम कर, मेरा गमछा भिगा दे। मैं बाजार होकर आता हूँ । - बाजार किसलिए? - दवा लेनी है और वैसे ही चिक (मांस बेचने वाला कसाई) से पैसा लेकर नल (हैंडपंप) ले आता हूँ । अब नहीं दिखाना इनको अपना मुंह । - नल तो बहुत महंगी आएगी। इतने पैसे? - हां, तीन बकरी बेचनी पड़ेगी। - फिर बचेंगी क्या ? - जो बचेंगी बहुत हैं। अब मुझसे सहा नहीं जाता

कहानी कोढ़ी का नल

भाग दो --- बहुत पहले यहां जंगल हुआ करता था। जिसमें ढाक के पेड़ बहुतायत में थे। इनके अलावा बबूल और कटाई की झांडियां थीं। जहां इनका वास नहीं था वह जमीन ऊसर थी। उसमें रेह पैदा होती थी। जिसमें घास भी नहीं उगती। इस बौने जंगल में जहां सांप-बिच्छू रहते थे, वहीं जंगली सूअर और गीदड़ जैसे प्राणी भी रहते थे। इन्हीं के बीच दो घर मनुष्यों के थे, जिन्हें दूसरे गांव के लोग वनप्राणी कहते थे। जब जमींदारी का जमाना था तो इनके पूर्वज कहीं से आकर यहां बस गए थे। पहले यह एक ही घर थे, लेकिन खानदान की वृद्धि हुई तो दो हो गए। इन्हें वनप्राणी इसलिए कहा जाता था, योंकि इन्होंने यहां बसने के बाद और किसी इनसान को बसने ही नहीं दिया। जिसने भी कोशिश की उसे मुंह की खानी पड़ी। हालांकि जंगली जानवरों से मुकाबले के लिए इन्हें समाज की जरूरत थी, लेकिन वन संपदा का बंटवारा न हो जाए इसलिए यह लोग इस जगह को आबाद नहीं होने दे रहे थे। समय के साथ यह वनप्राणी भी बदले। इन्हें भी समाज की जरूरत महसूस हुई। इसके बाद इन्होंने यहां पर लोगों को बसने की इजाजत दी। यहां पर बसने वाले दूसरे गांवों के फालतू लोग थे। फालतू इसलिए कि इन्हें अपने गांव

कहानी कोढ़ी का नल

भाग एक -------- सूरज जागने के लिए मसमसा ही रहा था कि रामनाथ उठ गया। परिवेश में ठंडी हवा तारी थी, जिससे रामनाथ का बिना कपड़े वाला बदन सिहर जा रहा था। पेडों पर चिड़ियां चहचहा रही थीं। एक्का दुक्का आदमी दिशा-मैदान के लिए हाथ में पानी का लोटा लिए बीड़ी का धुआं उगलते-निगलते और खांसते-खकारते जा रहे थे। दिशा-मैदान से वापस आने के बाद रामनाथ पानी लेने के लिए नल पर चला गया। इस समय वहां पानी भरने के लिए चार-छह लोग पहले से ही खड़े थे। उन लोगों को सुबह-सुबह रामनाथ का नल पर आना अच्छा नहीं लगा। लोगों ने मुंह तो बिचकाया ही अपनी घृणा को दबा भी नहीं पाये। - आज का दिन ठीक नहीं गुजर सकता। उनमें से एक ने अपने उद्गार व्य त किए। - सुबह-सुबह कोढी-कलंदर का मुंह देखने के बाद दिन भर अन्न नहीं मिलता। दूसरे ने टिप्पणी की जो रामनाथ के दिल में तीर सी लगी। एक अनजान दर्द से उसका शरीर सिहर गया। - हाथ-पैर नहीं हैं फिर भी घूमने की इतनी तमन्ना। एक की और झन्नाटेदार टिप्पणी जो रामनाथ को थप्पड़ सी लगी। - आदमी को खुद ही सोचना चाहिए। दूसरों का दिन इस तरह से खराब नहीं करना चाहिए। नल पर उपस्थित लोग इस तरह आपस में बोलते रहे। रा

अभियुक्त

इस कहानी को पहले तीन भागों में आप लोगों के सामने प्रस्तुत कर चुका हूँ । अब आप लोगों की सुविधा के लिए पूरी कहानी एक साथ प्रस्तुत कर रहा हूँ । मेरी बेचैनी : हालांकि वह सपना था, लेकिन उसे भुला पाना मेरे लिए मुश्किल हो रहा है। ऐसा नहीं है कि मैं सपना नहीं देखता। सपना देखता भी हूँ और उन्हें सुबह होते ही या फिर एक-दो दिन में भूल भी जाता हूँ , लेकिन यह सपना मौका पाते ही मेरे दिलो-दिमाग पर हावी हो जाता है। इस सपने की कशिश, इसका मीठा दर्द और गुलाबी एहसास मेरे जेहन में हमेशा बना रहता है। मौका मिलते ही सोचने पर विवश कर देता है कि या इसका संबंध मेरी निजी जिंदगी से है? यह सवाल उठते ही मैं सपने के एक-एक तार को जोडने लगता हूँ । फिर भी ऐसी कोई तस्वीर नहीं बनती, जिससे यह लगे कि सपने का संबंध मेरी निजी जिंदगी से है। यह भी सच है कि कई सपनों का संबंध इंसान के जीवन से होता है। कई बार स्मृतियां, जिन्हें हम अपने चेतन में भूल चुके होते हैं, वे सपने के रूप में हमारी चेतना में शामिल हो जाती हैं। तो या मैं किसी को भूल रहा हूँ ? इतनी लंबी जिंदगी भी तो नहीं है। हो सकता है कि बचपन या किशोर-वय की कोई स्मृति है,

मौसम की पहली बरसात

कई दिनों से सूरज की आंच में तप रही थी धरती तवे पर रोटी की तरह पक रहे थे प्राणी बादलों को जरूर इन पर तरस आया होगा अपनी सेना लेकर आ गए मैदान में दे दी सूर्य को चुनौती घबराकर रोने लगा भाष्कर और मोतियों की तरह गगन से गिरने लगी बंूदें गर्मी से विकल मानव निकल आया घरों से रिमझिम बरसात में चुराने लगा नमक पसीने के रूप में जिसे छीन लिया था सूरज ने

झूठा निकला प्रस्तोता

टीवी स्क्रीन पर प्रस्तोता कहता है मुस्करा कर खबरों का सिलसिला जारी है लेकिन एक छोट से ब्रेक के बाद ब्रेक छोटा नहीं होता इसके दबाव में छोटी हो जाती हैं खबरें विज्ञापन के दावों की तरह प्रस्तोता भी झूठा निकला

मजबूर बाप

कोट-टाई पहने मंुह पर महंगी क्रीम पोते महंगे शैंपू से धुले बाल करीने से गर्दन और कंधों पर बिखेर कर लैपटाप की स्क्रीन पर उभरे शब्दों को देखकर अपने खिले चेहरे पर उदासी का भाव लाते हुए न्यूज चैनल की महिला एंकर ने पढ़ी यह खबर गरीबी से बेहाल एक बाप ने महज पांच सौ रुपये में बेच दिया अपना बेटा स्क्रीन पर उभरती है गरीब बाप की तस्वीर उसका घर उसका गांव दर्शक कुछ सोच पाता जान पाता स्क्रीन पर हाजिर हो जाती है मुस्कराती हुई एंकर कहती है खबरों का सिलसिला जारी है लेकिन एक एक छोटे से ब्रेक के बाद अब स्क्रीन पर एक दस साल का बच्चा खेल रहा है क्रिकेट मारता है शॉट टूटती है एक आलीशान घर की खिड़की खुश होता है घर का मालिक एक अन्य घर मालिक कहता है लड़क से मेरी खिड़की नहीं ताे़डेगा सचिन सचिन मारता है शॉट टूटती है खिड़की वह भी होता है खुश उनकी खुशी से हौंसला बुलंद होता है सचिन का वह मारता है शॉट टूटतीं हैं और खिड़कियां मकान मालिक कहते हैं सचिन कल को स्टार बनेगा तो अपना ही नाम होगा यह किसी बीमा कंपनी का विज्ञापन है जो कहना चाहती है दूरदर्शी लोग भविष्य की सोचते हैं जो अभी करेगा निवेश कल वही फायदे में रहेगा अभी निव

लड़की

कहानी ---- लड़की ----- - ओमप्रकाश तिवारी सुबह होते ही घर के मर्द बारातियांे को चाय-नाश्ता कराने में मशगूल हो गए। औरतें उसे तैयार करने में जुट गइंर्। कहने को सभी को उसे विदा करने की खुशी है, लेकिन सभी उदास हैं। वह तो रोए ही जा रही है। पिछले एक हफ्ते से रो रही है फिर भी आंसू हैं कि सूखने का नाम ही नहीं ले रहे। बहनें सोच रही हैं कि इस बेटी को विदा करने के बाद मां-पिता जी बेटियों के भार से मु त हो जाएंगे। बुआ सोच रही हैं कि भैया ने इस बेटी को विदा करके गंगा नहा लिया। मां सोच रही है कि उसके कलेजे का टुकड़ा अपने घर जाकर सुखी रहे। एक अज्ञात भार उतरने का जहां उन्हें संतोष है, वहीं तमाम आशंकाआें का भार उनकी छाती पर बढ़ता जा रहा है। ससुराल वाले उसके साथ पता नहीं कैसा बर्ताव करंेगे? दामाद जी कैसे होंगे? सास कैसी होगी? कहीं दहेज को लेकर बखे़डा न खड़ा कर दें। यह सोचते ही उनकी रूह कांप गई। दहेज के लिए घटी वह तमाम घटनाएं सवान की घटा की तरह मन-मानस पर छा गइंर् और दिमाग की नसें बिजली की तरह गड़गड़ाने लगीं...। उसकी आठ, दस और बारह साल की भतीजियां भी उदास हैं। वे आज खेल नहीं रही हैं। न ही अपनी बुआ के पास

विखंडित चेहरे वाला भगवान

पूर्व प्रधानमंत्री की मौत पर चिंतित शि तमान --------------------------- एक विकासशील देश के पूर्व प्रधानमंत्री की मौत की खबर सुनकर दुनिया के देशों पर अपनी दादीगीरी की धौंस जमाने वाले देश के राष्ट्रपति की चिंताएं बढ़ गइंर्। उस व त वह सोने जा रहा था, जब उसे यह समाचार मिला कि तरभा देश के पू र्व प्रधानमंत्री वरा का देहांत हो गया। उसकी चिंता का कारण वरा की मौत नहीं, बल्कि अपने देश के पूर्व राष्ट ्रपति का फोन पर दिया यह आदेश था कि वरा को स्वर्ग में स्थान दिलाने की व्यवस्था करो। वह हमारा खास आदमी था। हमने जो कहा उसने किया। आज हमारी नीतियां तरभा सहित तमाम देशों में लागू हो रही हैं तो उसका श्रेय वरा को ही जाता है। मैंने वरा को वचन दिया था कि उसे नरक में नहीं जाने देंगे। वह डरा हुआ था जब मैंने उसे अपनी नीतियां तरभा देश में लागू करने के लिए कहा था। उसका कहना था कि ऐसा करके वह नरक में जाएगा। तब मैंने उसे आश्वस्त किया था कि उसे नरक में नहीं जाने दंेगे। - यह नरक-स्वर्ग या बला है? कारीमा देश के वर्तमान राष्ट ्रपति शबू ने अपने देश केपूर्व राष्ट ्रपति से कहा। - जब वरा ने स्वर्ग और नरक की बात कही थी तो

फैसला

कहानी रणविजय सिंह सत्यकेतु दरवाजे पर भीड़ देख समर को विश्वास हो गया कि बाबूजी गए। शायद इसीलिए नीतू ने उसे फोन पर केवल इतना बताया कि तुरंत आ जाएं बिना देरी किए। अभी तो दस दिन पहले गया था नीतू और मि की को गांव छोड़ने के लिए। बीमार-सीमार पड़े होते तो लोग टांग-टूंग कर उसके पास ले आते बाबूजी को इलाज केलिए। लेकिन लगता है उन्होंने इसका मौका ही नहीं दिया। जिंदगी भर कड़क रहे और अपनी अकड़ में ही चले गए। न किसी की सेवा ली और न एहसान। माना कि उससे उनकी नहीं पटती थी, लेकिन थे तो आखिर पिता ही। तो या हुआ अगर वह चाहते थे कि उन जैसे बड़े जोतदार का बेटा किसी कार्यालय में बड़ा बाबू की नौकरी नहीं करे। यह उनका मिजाज था जो न बदल सकता था न बदला। उसने भी तो उनकी एक नहीं मानी। इकलौती औलाद था, दर्जन भर नौकर-चाकर। दो सौ एकड़ उपजाऊ जमीन, दर्जनों माल-मवेशी। ऐश करता। जैसी कि बाबूजी की दिली ख्वाहिश थी कि उनका बेटा मुस्तैदी से उनकी विरासत संभाले जिस पर गोतिया-दियाद की बुरी नजर लगी हुई है। मगर सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो गया। बाबूजी की बरगदी छाया से निकलने की छटपटाहट से ज्यादा उसे उनकी झूठी राजपूती अकड़ से निजात पाने की ज

अलाप उर्फ दर्द-ए-धुआं

कहानी कारखाने के मजदूरों को जैसे ही पता चला कि आज उन्हें वेतन नहीं मिलेगा, उनकी आंखों के आगे अंधेरा छा गया। कइयों के जेहन में यह सवाल एक साथ गंूजा कि आज रोटी नहीं मिलेगी? कइयों के आंखों के आगे भूख से विलखते अपने बच्चों की तस्वीर घूम गई। यह बरदाश्त की सीमा से बाहर था। कारखाने में पिछले चार महीने से काम नहीं है, लेकिन इसमें इनका या दोष? माह की आज पंद्रह तारीख है और वेतन का कोई अता-पता नहीं है। मजदूरों को यह कंपनी इतना वेतन भी नहीं देती कि यदि एक माह वेतन न मिले तो उनका दैनिक काम चल जाए। लिहाजा हर श्रमिक के सामने जिंदगी-मौत का सवाल उठ खड़ा हो गया। कंपनी के इस रवैये से कई श्रमिक काम छाे़ड कर जा चुके हैं। कंपनी भी यही चाहती है। ताकि वह इस कारखाने को आराम से बंद कर सके। श्रमिकों के रहते उसे इसे बंद करने में परेशानी हो रही है। मजदूर अपना हक मांगने लगते हैं। इसकी काट के लिए कंपनी ने यह तरीका खोजा है। उसने इस कारखाने का काम ही बंद कर दिया। लिहाजा मजदूर बेकार हो गए। फिर समय से वेतन देना बंद कर दिया, ताकि पेरशान होर श्रमिक खुद ही कंपनी छाे़डकर चले जाएं...। जब से उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण

डूबते सूरज की ओर

कहानी सियाराम ने साइकिल पर बैठकर जैसे ही पैंडल पर जोर लगाया खटाक की आवाज के साथ चेन उतर गई। गुस्से में सियाराम ने मां-बहन की गाली दी। फिर साइकिल से उतर कर चेन ठीक करने लगे। चेन चढ़ा ही रहे थे कि किसी ने पूछा। - साइकिल खराब हो गई? सियाराम ने चेन छाे़डकर आवाज की तरफ देखा और मुस्करा कर बोले -हां भाई। - किसी कबाड़ी को बेच दो। अब यह चलने लायक नहीं है। - पुरानी होने पर कोई घरवाली को बदल देता है या? सियाराम ने चुहल की। - अरे भाई, दुनिया मोटरसाइकिल और कार से चलने लगी है, आप कम से कम नई साइकिल तो ले लो। - दुनिया और मेरी तुलना नहीं हो सकती न। सियाराम ने लंबी सांस ली और चेन ठीक करके साइकिल पर बैठ गए। - लगता है कचहरी (अदालत) से आ रहे हो? - हां भाई। - या हुआ? - होना या है। फिर तारीख मिल गई है। - कब तक मिलती रहेगी तारीख? - अब या बताएं। अपने वश में तो कुछ है नहीं। १८ साल हो गए। अभी तक बहस तक नहीं हुई है। - मेरी मानो तो समझौता कर लो। - किससे? - जिससे मुकदमा लड़ रहे हो। - एक हाथ से ताली बजती है या? - अरे यार प्रयास करके तो देखो। कहते हुए वह सड़क से अपने घर की तरफ मु़ड गया। वह सियाराम का शुभचिंतक