Skip to main content

कहानी कोढ़ी का नल

भाग तीन

- क्या सोच रहे हो? कितनी बार कहा है कि नल पर मत जाया करो। लेकिन मेरी सुनते ही नहीं। रामनाथ की घरवाली ने पानी से भरी बाल्टी जमीन पर रखते हुए कहा।
- क्यों न जाऊं? नल या उनके बाप का है? या मैं आदमी नहीं हूँ ? रामनाथ अभी तक जिस गुस्से को पानी की तरह पी रहे थे उसे पत्नी पर उलच दिया।
- कहावत है कि शूद्र की गगरी दाना, शूद्र पड़ा उताना। आजकल कमाई हो रही है तो इनकी आंखों पर चर्बी चढ़ गई है।
- तब मैं कोढ़ी नहीं था जब यह लोग यहां आकर बसे थे और हमसे ही मांग कर पानी पीने थे? रामनाथ ने पत्नी से सवाल किया। हालांकि यह प्रश्न वह उन लोगों से पूछना चाहते थे।
- आदमी का मतलब निकल जाता है तो उसकी चाल ऐसे ही बदल जाती है।
- कोई बात नहीं। ईश्वर ने चाहा तो कभी मेरा भी व त आएगा। तू एक काम कर, मेरा गमछा भिगा दे। मैं बाजार होकर आता हूँ ।
- बाजार किसलिए?
- दवा लेनी है और वैसे ही चिक (मांस बेचने वाला कसाई) से पैसा लेकर नल (हैंडपंप) ले आता हूँ । अब नहीं दिखाना इनको अपना मुंह ।
- नल तो बहुत महंगी आएगी। इतने पैसे?
- हां, तीन बकरी बेचनी पड़ेगी।
- फिर बचेंगी क्या ?
- जो बचेंगी बहुत हैं। अब मुझसे सहा नहीं जाता।
- ठीक है, लेकिन जल्दी आना। न हो विमली को साथ लेते जाओ।
- पैरों की अभी उंगलियां ही कटी हैं। इतना अपंग भी नहीं हूँ पगली।
रामनाथ ने नल (हैंडपंप) लगवा लिया। चमनगंज के लिए यह एक अनोखी घटना थी। जिसने सुना उसी को आश्चर्य हुआ। रामनाथ कोढ़ी ने नल लगवा लिया! अच्छा रामनाथ ने नल लगवा लिया...। साला पैसा कहां से लाया? अरे उसकी औलादों को नहीं देखते कितनी गोरी हैं...। जितने मुंह उतनी बातें। तमाम तरह की घटिया बातों से लोगों ने चमनगंज के वायुमंडल को दूषित कर दिया...। ऐसा नहीं था कि इन बातों से रामनाथ अंजान था। ऐसी बातें उसके कानों तक पहुंचतीं तो वह तिलमिला जाता, लेकिन गालियों का रामायण पाठ करने के सिवा कुछ कर न पाता। कहता कि सालों को मेरे खाली खूंटे नहीं दिखते।
---
जेठ का महिना और दोपहर का समय। गर्मी अपनी जवानी का एहसास कराने के लिए फिल्मी नायिका की तरह अश्लील नृत्य कर रही है। ऐसे में रामनाथ के लिए परेशानी और बढ़ गई है। बीमारी की वजह से उसे गर्मी बर्दाश्त नहीं होती। लगता है जैसे बदन में आग लग गई है। इसलिए वह अपने काले नंगे बदन पर एक भीगा कपड़ा हमेशा लपेटे रहता है। इस समय उसका भीगा कपड़ा सूख गया है।
वह चारपाई पर उठकर बैठ गया है। निगाह खाली खूंटे पर चली गई और दिमाग खराब हो गया। गाली देने के बाद उसने इधर-उधर देखा। दूर-दूर तक कोई नजर नहीं आया। केवल दोपहर सांय-सांय करती नजर आई। जहां तक नजर गई धूप ही धूप दिखाई पड़ी। उसकी आंखें सिकुड गईं और लाल-पीला सा दिखाई पड़ने लगा। उफ! गर्मी बहुत है। लगता है जान लेकर ही रहेगी। रामनाथ बुदबुदाया और ऊपर देखने लगा। नीम के पेड की डालों और पत्तों से छन-छन कर सूर्य की किरणें उसकी चारपाई पर आ रही थीं। उसने चारपाई को उस तरफ खींच लिया जिधर छाया घनी थी। चारपाई छाया में करने के बाद रामनाथ नल की तरफ बढ़ा। चार कदम चलने के बाद उसके पैर रुक गए। नल के आस-पास के गढ्डों में रुके पानी में चिड़ियां चहचहा कर नहा और पानी पी रही थीं। मेरे जाने से उन्हें उड़ना पड़ेगा यही सोचकर रामनाथ नल के पास नहीं गया। वह चारपाई पर आकर बैठ गया और प्रेम भाव से चिड़ियों को पानी पीते देखने लगा। चिड़ियां अपने में मस्त दुनिया से बेखबर पर आत्मरक्षा के लिए सजग थोडे से गंदे पानी में प्रसन्ता पूर्वक स्नान करते हुए खेल रही थीं।
रामनाथ को यह दृश्य बड़ा प्यारा लगा। इस तन्मयता में वह यह भी भूल गया कि उसके घावों पर मि खयां बैठी हैं। मक्खियों ने घावों से खून निकाल दिया। दर्द से तड़प कर उसने घावों पर हाथ रख दिया और कई मक्खियाँ मौत के मुंह में समा गईं। मक्खियों के मरने से उसे दुश्मन को मार गिराने जैसा आनंद मिला। लेकिन मक्खियाँ उसका पीछा छोड ही नहीं रही थीं। उसे बड़ी कोफ्त हुई। वह सभी मि खयों को मार देना चाहता था, लेकिन यह काम उसके वश में नहीं था। फिर भी वह काफी देर तक प्रयास करता रहा। तंग आकर अपने घावों को कपड़े से बांध लिया और मक्खियों को एक भद्दी सी गाली दी।
जारी .....

Comments

आपकी रचनाएँ हम पिछले 4 वर्षों से संचालित पोर्टल www.srijangatha.com पर छापने के इच्छुक हैं । कृपया हमें अपनी रचनाएँ भेज दें ।

Popular posts from this blog

परिवर्तन लाजमी है तो डरना क्यों? - ओमप्रकाश तिवारी मानव सभ्यता अंतरविरोधों के परमाणु बम जैसी है। इसके अंतरविरोध परिवर्तनशील बनाकर इसे आगे बढ़ाते हैं तो यही इसका विनाश भी करते हैं। मानव जाति का इतिहास गवाह है कि भूत में कई सभ्यताएं तबाह हो गईं जिनके मलबे से खाद-पानी लेकर नई सभ्यताओं ने जन्म लिया और फली-फूली हैं। यही वजह है कि मानव भविष्य को लेकर हमेशा चिंतित रहता है। उसकी अधिकतर योजनाएं बेहतर भविष्य के लिए होती हैं। लेकिन हर आदमी, हर समाज और हर सभ्यता व संस्कृति हमेशा बेहतर नहीं साबित होती। अक्सर इंसानी अनुमान धरे केधरे रह जाते हैं और भविष्य कुछ का कुछ हो जाता है। वामपंथी चिंतक कार्ल मार्क्स का आकलन था कि पूंजीवादी व्यवस्था अपनी तबाही के लिए खुद ही रास्ते बनाती है। यही वजह है कि एक दिन यह व्यवस्था तबाह हो जाएगी और इसके स्थान पर नई व्यवस्था सामने आएगी। नई व्यवस्था क्या होगी इसकी भी मार्क्स ने कल्पना की और बताया कि वह साम्यवादी व्यवस्था होगी। लेकिन ऐसा हुआ क्या? आज लगभग पूरी दुनिया में पूंजीवादी व्यवस्था है। सोवियत रूस जैसे देशों में साम्यवादी व्यवस्था आई भी तो वह पूंजीवादी व्यवस्था ...

कहानी कोढ़ी का नल

भाग दो --- बहुत पहले यहां जंगल हुआ करता था। जिसमें ढाक के पेड़ बहुतायत में थे। इनके अलावा बबूल और कटाई की झांडियां थीं। जहां इनका वास नहीं था वह जमीन ऊसर थी। उसमें रेह पैदा होती थी। जिसमें घास भी नहीं उगती। इस बौने जंगल में जहां सांप-बिच्छू रहते थे, वहीं जंगली सूअर और गीदड़ जैसे प्राणी भी रहते थे। इन्हीं के बीच दो घर मनुष्यों के थे, जिन्हें दूसरे गांव के लोग वनप्राणी कहते थे। जब जमींदारी का जमाना था तो इनके पूर्वज कहीं से आकर यहां बस गए थे। पहले यह एक ही घर थे, लेकिन खानदान की वृद्धि हुई तो दो हो गए। इन्हें वनप्राणी इसलिए कहा जाता था, योंकि इन्होंने यहां बसने के बाद और किसी इनसान को बसने ही नहीं दिया। जिसने भी कोशिश की उसे मुंह की खानी पड़ी। हालांकि जंगली जानवरों से मुकाबले के लिए इन्हें समाज की जरूरत थी, लेकिन वन संपदा का बंटवारा न हो जाए इसलिए यह लोग इस जगह को आबाद नहीं होने दे रहे थे। समय के साथ यह वनप्राणी भी बदले। इन्हें भी समाज की जरूरत महसूस हुई। इसके बाद इन्होंने यहां पर लोगों को बसने की इजाजत दी। यहां पर बसने वाले दूसरे गांवों के फालतू लोग थे। फालतू इसलिए कि इन्हें अपने गांव...

कहीं कुछ ज्यादा तो नहीं टूट रहा-

कहीं कुछ ज्यादा तो नहीं टूट रहा- -मृत्युंजय कुमार यह इक्कीसवीं सदी हैइसलिए बदल गई हैं परिभाषाएंबदल गए हैं अर्थसत्ता के भीऔर संस्कार के भी।वे मोदी हैं इसलिएहत्या पर गर्व करते हैंजो उन्हें पराजित करना चाहते हैंवे भी कम नहींबार बार कुरेदते हैं उन जख्मों कोजिन्हें भर जाना चाहिए थाकाफी पहले ही।वे आधुनिक हैं क्योंकिशादी से पहले संभोग करते हैंतोड़ते हैं कुछ वर्जनाएंऔर मर्यादा की पतली डोरी भीक्योंकि कुछ तोड़ना ही हैउनकी मार्डनिटी का प्रतीकचाहे टूटती हों उन्हें अब तकछाया देनेवाली पेड़ों कीउम्मीद भरी शाखाएंशायद नहीं समझ पा रहे हैंवर्जना और मर्यादा का फर्क।