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Showing posts from May, 2018

कविता/ समय साक्षी

समय साक्षी ---------- सूर्यालोकित स्वर्गलोक की रंगीनियां उसे भी पसंद हैं लुभाती और ललचाती भी हैं लेकिन प्रभावित नहीं कर पातीं चमकती किरणों की सचाइयों को जनता है वह कहां से मिलती है  उनकी आभा को ऑक्सीजन कभी कभी सोचता है वह जाहिल ही क्यों नहीं बना रहा आस्था के समुद्र में डुबकी लगाता किसी का देवालय बनाने किसी का पूजाघर तोड़ने की बहसों और साजिशों में व्यस्त रहता अपने धर्म के लिए आक्रामक रहता दूसरे के धर्म के लिए कुतर्क गढ़ता रीढ़ की हड्डी को लचीला बनाने के लिए किसी संन्यासी से योग सीखता फिर केंचुए की तरह रेंगते हुए चढ़ जाता स्वर्ग की सीढ़ियां और बन जाता विदूषक कथित सर्वशक्तिमान किसी नरपिशाच का लेकिन नहीं वह तो लिखना चाहता है आज के समय की पंचपरमेश्वर पर लिख नहीं पा रहा अब और ताकतवर हो गए हैं तमाम अलगू चौधरी रेहन पर रखे बैलों का निचोड़ रहे हैं कतरा कतरा न एक अलगू चौधरी हैं न कम है बैलों की संख्या उसे तलाश है किसी पंचपरमेश्वर की जो उसके कथा के चरित्रों के साथ कर सके न्याय वह बार बार सोचता है कथा सम्राट प्रेमचंद होते तो कैसी पंचपरमेश्वर लिखते क्या बांच प

तो सभी धर्मों की सार्वजनिक गतिविधियों पर रोक लगे

वैसे तो हमारा संविधान धार्मिक आज़ादी का हक देता है। किसी भी नागरिक का यह मौलिक अधिकार भी है। लेकिन कई बार सरकारें और उसके समर्थित संगठन व लोग नागरिक अधिकारों का हनन करते हैं। उसमें भी दिक्कत तब होती है जब किसी समुदाय विशेष को निशाने पर लिया जाता है। कुछ नेताओं के हिन्दू मुस्लिम वैमनस्य की वजह से देश का बंटवारा हो गया। लेकिन यह नफरत गयी नहीं। कुछ संगठनों ने आज़ादी के बाद से ही नफरत फैलानी शुरू कर दी थी। कालांतर में वह सियासी दल बनाकर सत्ता में आ गए। उनके लिए संविधान कोई मायने नहीं रखता। नागरिककों के मूल अधिकारों का हनन वे अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझते हैं और ऐसा ही व्यवहार करते हैं। इसके लिए उनके पास अपने तर्क और तथ्य भी हैं जो वह स्वयं गड़ते हैं और कुतर्क करते है। जब इससे भी नहीं पर पाते तो हिंसक हो जाते है। मूलतः वे हिंसक ही हैं। मानवीयता का तो केवल चोला पहने हैं। यदि सार्वजनिक जगह में नमाज नहीं पढ़नी चाहिए तो शोभायात्रा या नगर कीर्तन भी नहीं निकलना चाहिए। एक के लिए धार्मिक आज़ादी दूसरे के लिए पाबंदी नहीं होनी चाहिए।