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फैसला

कहानी

रणविजय सिंह सत्यकेतु


दरवाजे पर भीड़ देख समर को विश्वास हो गया कि बाबूजी गए। शायद इसीलिए नीतू ने उसे फोन पर केवल इतना बताया कि तुरंत आ जाएं बिना देरी किए। अभी तो दस दिन पहले गया था नीतू और मि की को गांव छोड़ने के लिए। बीमार-सीमार पड़े होते तो लोग टांग-टूंग कर उसके पास ले आते बाबूजी को इलाज केलिए। लेकिन लगता है उन्होंने इसका मौका ही नहीं दिया। जिंदगी भर कड़क रहे और अपनी अकड़ में ही चले गए। न किसी की सेवा ली और न एहसान। माना कि उससे उनकी नहीं पटती थी, लेकिन थे तो आखिर पिता ही। तो या हुआ अगर वह चाहते थे कि उन जैसे बड़े जोतदार का बेटा किसी कार्यालय में बड़ा बाबू की नौकरी नहीं करे। यह उनका मिजाज था जो न बदल सकता था न बदला। उसने भी तो उनकी एक नहीं मानी। इकलौती औलाद था, दर्जन भर नौकर-चाकर। दो सौ एकड़ उपजाऊ जमीन, दर्जनों माल-मवेशी। ऐश करता। जैसी कि बाबूजी की दिली ख्वाहिश थी कि उनका बेटा मुस्तैदी से उनकी विरासत संभाले जिस पर गोतिया-दियाद की बुरी नजर लगी हुई है। मगर सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो गया।

बाबूजी की बरगदी छाया से निकलने की छटपटाहट से ज्यादा उसे उनकी झूठी राजपूती अकड़ से निजात पाने की जिद थी। जिला सचिवालय में हेड लर्क बनकर उसने अपने लिए सही में कोई तीर नहीं मारा था, लेकिन बाबूजी की शान को ध का जरूर पहुंचाया था। इस कारण वह न केवल बेटे की ओर से विर त हो गए थे, बल्कि खुलेआम उसे खानदान में जन्मा एक भ्रष्ट आत्मा कहते थे।

नीतू को शहर में साथ रखना और मि की को ऊंची तालीम दिलाना भी कभी बाबूजी केगले नहीं उतरा। लेकिन जब एक बार चुप्पी साध ली तो फिर निभा ही गए। आखिरी सांस लेने से पहले भी नहीं बुलाया कि देख लें एक नजर...क्षमा ही कर दें। नहीं, दुश्मन मान लिया तो मान लिया।

जैसे-जैसे समर दरवाजे की ओर बढ़ रहा था, अपराध बोध से ग्रस्त होता जा रहा था। सैकड़ों लोगोंं की भीड़ का आक्रामक खुसर-फुसर और घूरती आंखें उसके कदमों पर भारी पड़ रही थीं। जैसे तेज धारा के विपरीत कदम रख रहा हो। लोग भी तो उसे कुलंगार और कपूत ही समझते थे।

लेकिन दालान पर चढ़ते ही सामने बाबूजी बैठे मिल गए।

समर अचकचा गया। उसके ललाट सिकु़ड गए। दिमाग कौंधा और कलेजा धक से रह गया।...तो या मायजी चली गइंर्। उसे लगा जैसे शरीर की सारी ऊर्जा निकल कर धरती में समा गई हो। अचानक पूरा शरीर ढीला पड़ गया हो। एक मायजी ही तो थीं जिनका चेहरा देखने और दुलार पाने के लिए न चाहते हुए भी वह घर लौटता था। मायजी थीं तो घर था, अब वह किसके लिए यहां आया करेगा। यह दुनिया तो उसके लिए पहले ही बेगानी थी, अब बिल्कुल वीरान हो गई। उसका बाबूजी की सामाजिक प्रतिष्ठा और उनकी निजी चाहत के खिलाफ जाना तो मायजी को भी रास नहीं आया था लेकिन अपनी लर्की में ही अगर वह खुश था तो उन्हें कोई ऐतराज न था। कभी अपने मन की न कर पा सकने वाली शिक्षित, सलज्ज और समझदार मायजी ने उसके मन की खुशी को अपने तइंर् कबूल कर लिया था। कहती थीं, 'अच्छा ही हुआ तू अपने बाप की राह पर नहीं गया जो अपनी बदरंग होती हैसियत को दिखावे के ठाट-बाट के नील-टीनोपॉल से चमकाने की कोशिश में ही जिंदगी गुजारने को विवश हैं। कम-से-कम तू अपने मन की सुनता-करता तो है। चिंदी-चिंदी हुए खानदानी लिहाज को ढोने से आजादी मैं न सही, मेरी बहू तो पा सकी।` मि की की ऊंची तालीम को लेकर पिता से जारी मतभेद को लेकर समझाती थीं, 'बेटा, लड़ाई अपने लिए नहीं, आने वालों के लिए लड़ी जाती है। प की और स्थायी जीत उसी की होती है जो ऐसा सोचकर मैदान में उतरता है।` बाबूजी के भुनभुनाने और उसके लाख मना करने के बावजूद मायजी झोले में घी का ड?बा, अचार, ठेकुआ, लाय, चने का स?ाू और न जाने या- या सहेज देती थीं। कहती थीं, 'मैंने तो दे दिया। अब चाहे खुद खाना चाहे राह चलते बांटना। जब तक सांस है झोला भरती रहूंगी, बाद में जाने या होगा। एक तू तीतर, दूसरा तेरा बाप बटेर। ठाकुर जी ही रच्छा करेंगे।`

बेटे को सामने आता देख बाबू सर्वदानंद पलंग से उठ खड़े हुए। ऊंचा कद, भरपूर काठी ७० पार करने पर जैसे और तन गई थी। चेहरे पर छाई बड़ी-बड़ी मूंछें आंखों के रौब को और ज्यादा असरदार बना रही थी।

पिता का रुख देख समर समझ गया कि मायजी के मरने का ठीकरा उसी के सिर फोड़ा जाएगा। लेकिन कम-से-कम ऐसे व त तो उन्हें संयमित रहना ही चाहिए। आशंकित समर आगे बढ़ता गया।

बौखलाए बाबू सर्वदानंद ने पैर छू रहे बेटे को आंगन की ओर गलियारे में खींचा।

पिता के आक्रामक रुख से समर की सांसें फूलने लगीं। इस तरह सबके सामने बांह पकड़कर खींचे जाने से अपमानित महसूस कर रहा था। झुंझलाहट मेंं उसकेमुंह से निकला, 'हुआ या?`

बाबू सर्वदानंद ने दांत किटकिटाए, 'होने को अब रह ही या गया है रे कुलंगार। हमसे बैर किया, वो भी ठीक था। लेकिन औरत की बातों में आकर खानदानी रसूख भूल जाएगा, सोचा न था। उलाहने का स्वर फूटा, 'जो न कराए औरत जात, राह छितराए रोटी भात।`

बाबूजी की वक्रोि त से समर आश्वस्त हुआ कि मायजी सलामत हैं। फिलहाल उनके निशाने पर उनकी पत्नी नीतू है। मन ही मन थाह लगाने की कोशिश की कि मामला कहां तक बिगड़ा हुआ हो सकता है। नीतू को बाबूजी पसंद नहीं करते थे, इसके लिए गाहे-बगाहे वह उलाहने देते ही रहते थे। लेकिन आज उनका रुख सामान्य नहीं है। यदि नीतू पड़ोस की किसी महिला से लड़ी होती तो बात इतनी नहीं बढ़ती। भीतरी दुराव चाहे जितनी हो, नीतू है तो आखिर उनकी बहू ही। टोले वालों को दरवाजे पर यूं मजमा नहीं लगाने देते बाबूजी। मायजी से लड़ी होती तो वही बात को दबा देतीं। लगता है नीतू ने बाबूजी की किसी तीखी बात का उसी अंदाज में जवाब दे दिया। बातों-बातों मेंं कहीं हिस्सेदारी की बात न कर गई हो। बाबूजी के बोल से तो यही निथड़ रहा था।

'पीढ़ियोंं की नाक झटके में कट गई।` बाबू सर्वदानंद की आंखों से अंगारे बरस रहे थे।

समीर का सिर चकरा गया। तो या नीतू ने ऐसा कुछ कर-कह दिया कि समाज में बाबूजी को नीचा देखना पड़ा? वह तो हमेशा ही समझाता रहता था नीतू को कि बाबूजी के कहे पर जब तक बहुत लाजिमी न हो, जबाव देने की सोचे ही नहीं। उनके अहं से निर्वाह केवल परहेज से संभव है। है वह उनकी बहू मगर बाबूजी मानते नहीं न। एक तो वह गरीब घर की बेटी थी, दूसरे उनके बेटे से प्रेम विवाह किया। ध का लगा था उनकी शान को, समाज में उन्हें बेटे-बहू के लिए उल्टी-सीधी बातें सुननी पड़ी थी।

कहां तो बड़े जोतदारों-जमींदारों के यहां से मालामाल रिश्ते आते थे, कहां उनके इकलौते बेटे की शादी में बारात तक नहीं सजी। सोचा था रिश्ते-नातेदारों के अलावा गांव-जवारियों को न्यौत कर खूब जश्न मनाएंगे लेकिन वह तो समाज के लोगों के लिए एक शाम का भोज तक नहीं कर सके। इलाके के हजारों मुख से निकले तानों के तीर से मर्माहत बाबू सर्वदानंद ने उसकी ओर से मुख ही मोड़ लिया।

भन्ना गया समर। गुस्सा आया उसे नीतू पर। न सोचकर बोलती है न ...

बाबू सर्वदानंद दांतों पर दांत और बौंकुरी पर हाथ की पकड़ मजबूत करते हुए बोले, 'कहा था कि चार-पांच दरजा पढ़ा कर छुट्टी करो। लड़की जात बहुत पढ़ेगी तो दिमाग फिर जाएगा। देह पर की ओढ़नी दुआर पर सुखाएगी। मगर नहीं...तुम्हें समझाने वाला कौन पैदा हुआ है। एक नहीं सुनी मेरी। कहा, जमाना बदल गया है। लौंडे-लौंडियों में अब कोई फर्क नहीं रहा।...अरे, मैं कहता हूं मूरख! बदल जाए सारी कायनात, लड़की की देह तो वही रहेगी? कौन पीर-प्रभु उसे झुठला देगा?`

समर के पैरों तले जमीन खिसकती नजर आई। अब उसकी समझ में असल बात आई कि बाबूजी और दरवाजे पर इकट्ठी भीड़ के निशाने पर उनकी बेटी मि की है। तो या मि की ने दस दिनों में ही ऐसा कुछ कर दिया कि घर की इज्जत पर बन आई। उसकी कंपकंपी छूट गई। उसने तो हर तरह से मि की को समझा दिया था कि महीने भर की छुट्टी हंसी-खुशी बिता ले। जहां तक बाबूजी का विस्तार है, उनकी आंखें वहां तक की प की दीवारों को भी भेद डालती हैं। इसलिए यहां की दहलीज और दस्तूर का कोशिश भर खयाल रखे। यह मानकर चले कि यह उसके बाप का नहीं, बाप के बाप का घर है जहां हंसने-रोने का भी कायदा तय है। मि की ने भी उसे भरोसा दिलाया था कि वह...।

जलालत के आंसू आंखों में मिर्ची की तरह लगे। लेकिन खुद को संभालने की कोशिश करते हुए पूछा, 'कुछ साफ भी तो करिए!`

'पहले चन्नर के पिल्ले का सिर फोड़ने की तैयारी करो`, बाबू सर्वदानंंद के आदेश में खून छलक रहा था। यह उनके विद्रोही और अपनी मर्जी से जीने वाले बेटे से जु़डा मसला था, वरना वह समर से पूछने-कहने तक का सब्र न करते।

' यों, या किया उसने?` समर का दिल पिता के लहजे से बैठने लगा था। ऐसी अबस हालत पिता के सामने उसकी कभी नहीं हुई थी। जातीय दंभ से भीगे उसके जज्बाती पिता के हाथ आज ऐसी नाजुक डोर लग गई थी जिसे एक झटकेमें तोड़कर उसकीआजाद खयाली को धूल चटाने को उद्धत थे।

'बाड़ी में आकर हरामजादे ने मि की का हाथ पकड़ लिया और चिट्ठी थमा दी।` उबल रहे थे सर्वदानंद के श?द।

' या कह रहे हैं आप?` समर की विस्फारित आंखों में कातरता और अविश्वास हिलोरें मार रहे थे। दिमाग की नसें अपमान के खून से फूल कर उसकी चेतना के द्वार बंद कर रही थीं।

'बाप हूं तुम्हारा, झूठ बोलूंगा!` एक-एक श?द चबाया था बाबू सर्वदानंद ने गोया बेटे को धि कार रहे हों कि इतने नामर्द हो...ऐसे ऐतिहासिक मुद्दे को झुठलाने की कोशिश कर रहे हो जिस पर हमारी तलवारों ने खून की नदियां बहाई हैं। उसी रौ में बिफरे, 'उस पर से उस बि?ो भर की छोकरी की ये मजाल कि चिट्ठी किसी को दे नहीं रही है!`

हकलाए-अकबकाए समर की आंखों मेंे अपनी तर्जनी पर नाचती हिकारत को उड़ेलते हुए बाबू सर्वदानंद किटकिटाए, 'इसी भय से हमने एक-दो नहीं पांच-पांच बेटियों को जन्मते ही जमीन में गाड़ दिया था। वरना किस बात की कमी है हमारे पास...एक-एक को पैसे से तौल देता, लेकिन नहीं...जानता हूं कि बड़ी कु?ाी चीज होती है ये औरत जात। भौंकने-झिड़कने का नाटक कर मजमे लगाकर घूमती है द्वार-द्वार।`

तमतमा गया समर। जी चाहा कि...। 'उफ् ...` पस्त मन समर ने आंखें मूंद ली, होठों को भींचा लिया और दे मारी मुट्ठी दीवार पर। अगले ही पल पिता को बिना कुछ कहे सनसनाता हुआ आंगन चला गया।

भीतर दियादिनें-पड़ोसिनें अलग ही झौं-झौं कर रही थीं। समर को देख चुप होते-होते और बगलें दाबते-दाबते भी मि की के बारे में बहुत कुछ कह गइंर्। उन सब पर उखड़ती मगर अंगार नजर डालता समर अपने कमरे की ओर बढ़ गया। किवाड़ के पास ही मायजी सामने खड़ी थीं। बोलीं, 'ऐसे में होश खोना ठीक नहीं। सजा तब मिले जब गुनाह तय हो जाए। और गुनाह किसी की निजी पसंद-नापसंद से तय नहीं हो सकता। उसके लिए वाजिब कारण होने चाहिए। बाकी तुम खुद समझदार हो...और बेटी भी तुम्हारी ही है।`

किवाड़ के पीछे पलंग के सिरहाने पाए के सहारे खड़ी थी मि की। उतरे हुए चेहरे से जमीन को निहारे जा रही थी। कमरे में प्रवेश करने से पहले ही समर ने पायताने की तरफ लगे आदमकद शीशे में मि की को देख लिया था।

शीशे के बगल वाली कुर्सी पर झुंझलाई-सी बैठी नीतू से उसका सामना हुआ।

पलंग के बीचोबीच समर ठिठक गया। नीतू कुर्सी से उठी नहीं। बड़ी-बड़ी आंखों से समर पर ऐतराज बरसाने लगी, 'कहा था, हमें जब तक यहां रखो, उतने दिन खुद भी रहो। वरना हमें अकेला छोड़ो ही नहीं। यहां के दिमाग में हम नहीं खप सकते। हर कदम बंदिशों के बारूदी सुरंग बिछे हैं। बिना खाद-पानी कयासों-तोहमतों की खेती होती है। या तो यहां के लोग जंगली हैं जो हमारी खुशमिजाजी को भी शक की नजर से देखते हैं या फिर हम अजूबे हैं जो इनके असली मकसद को समझते हुए भी झुठलाने का नाटक करते हैं।`

आवेश में खड़ी हो गई नीतू। मि की की तरफ इशारा करते हुए बोली, 'बहुत गलत नक्षत्र में पैदा हुई थी हरामजादी। अपनी जिद की अकेली है। लाख कहा कि दे दो चिट्ठी मांग रहे हैं तो। नहीं, दांत गड़ा कर बैठी है कि पापा को ही देगी। तो दो, आ गए पापा-झापा।` फुफकारती हुई नीतू कमरे से निकल गई। जाने से पहले इतना जरूर कह गई, 'किसी की अर्जी थामोगी तो फिर पूर्ति भी तो करनी पड़ेगी।`

पत्नी के विष बुझे श?दों को अपनी चुप्पी से झेल गया समर। उसकोअभी टोकने का मतलब होता एक दूसरा ही बखे़डा खड़ा करना। सो, वेगवती पत्नी को बिना किसी अवरोध के कमरे से बाहर निकल जाने दिया।

समर ने मि की को देखा। वह उसे ही देख रही थी। डबडबाई हुई आंखें, कांपते होंठ और पलंग के पाए को खोदतीं उंगलियां उसकी बेचारगी जता रही थी।

समर आगे बढ़ा। मि की ने पाए को कसकर पकड़ लिया। समर उसके बिलकुल करीब आ गया। मि की की आंखें झरने लगीं। होंठ दयनीयता से फैल गए, 'मुझे यहां से ले चलिए पापा, मेरा दम घुट रहा है! बिना कुछ किए-धरे तोहमतें लगती हैं यहां। जो कुछ आपने सुना होगा दरवाजे पर, ऐसा कुछ नहीं हुआ है। आपकी कसम पापा! सच कहती हूं। हां, कैलू ने यह चिट्ठी जरूर दी थी मेरे हाथ, कल जब मैं दरवाजे पर बैठी थी। तब वहां न दादाजी थे और न ही कोई नौकर। नौकर खेतों पर गए थे, दादाजी पंचायत करने।`

मांगने पर तुमने वह चिट्ठी दादाजी को यों नहीं दी? कठोर थे समर के श?द।

उसके पहले ही चिट्ठी देने को लेकर अनर्गल बातें टोले भर में फैला दी गइंर्। दादाजी ने भी चिट्ठी मांगने के पहले जो जी में आया कहा, जो नहीं कहना चाहिए वह भी। इसलिए मैंने तय किया कि चिट्ठी आपको ही दूंगी।

मि की के डर के विपरीत समर ने संयत भाव से वह चिट्ठी मांगी और पढ़ता हुआ कमरे से बाहर निकल गया।

दरवाजे पर सबके सब वैसे ही जमा थे। समर को आया देख कइयों ने पहलू बदले, कई दालान के और करीब आ गए। बाबू सर्वदानंद दोनों पैर लटकाए पलंग पर बैठे थे, दोनों हाथों से बौंकुरी को थामे हुए जैसे चढ़ाई से पूर्व शंखनाद सुनने भर को बैठे हों।

समर ने उन सबको करीब बुलाया जिन लोगों ने चन्नर दास के बेटे को मि की को चिट्ठी देते देखने का दावा किया था। समर के पूछने पर किसी ने बताया कि उसने दोनों को बांसबिट्टी में देखा तो एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए थे। किसी ने कहा कि उसने दोनों को रास्ते में पड़ते गड्ढे में गिटपिट करते देखा। किसी ने कहा कि उसने कैले को उनकी बाड़ी में पीछे से घुसते हुए देखा। उनके दियाद-रिश्तेदारों ने तो दहकते शोले का ही रूप धारण कर लिया। बोले, 'दोनों बाड़ी में लिपट-चिपट रहे थे। जब तक लाठी लाने दौड़े, कैला भाग गया। नहीं तो बाड़ी में ही भुट्टे की तरह कूट देते साले को।`

सभी अपनी-अपनी बातें कह कर समर की प्रतिक्रिया जानने के लिए उनका मुंह ताकने लगे।

समर बाकी को छोड़ बाबू सर्वदानंद से मुखातिब हुआ। न बाबूजी, न कोई और संबोधन। सीधे सवाल किया, 'यह वही चन्नर दास है न जिसने मरौत के दियारे पर डकैतों द्वारा कूटे जा रहे बाबू सर्वदानंद सिंह को अपनी जान पर खेलकर बचाया था? यह वही चन्नर दास है न जिसने खेत में धान रोप रही पत्नी और बेटे-बेटियों के सहारे अपने कंधों पर टांग कर नौकर-चाकरों और लठैतों से भरे दरवाजे पर सलामत छोड़ गया था बाबू सर्वदानंद सिंह को? यह वही चन्नर दास है न जिसने पिछले दस साल से किसी को बताया तक नहीं कि बावजूद इतने बड़े अहसान को मानने के आपने कैली के ?याह में दिए चार हजार रुपयों के एवज में उसकी तीन गछिया वाली दस कट्ठे की जमीन सूदभरने पर रख ली? मेरी नजर में तो चन्नर दास और उसके परिवार का कद ज्यादा बड़ा है। उनके बड़प्पन के आगे हम बौने साबित हुए हैं। आज उसकेबेटे का सिर फोड़ने के लिए आप इसलिए कह रहे हैं कि उसने मि की को पत्र दिया है? यों दिया, किसलिए दिया, यह जानने की कोशिश किए बगैर उसके खिलाफ फरमान जारी कर दिया? कैलू और मि की को मौके पर देखने के इन सबके कहने में कोई तारतम्यता नहीं है, फिर भी आपने अपनी ही पोती पर वे सारी तोहमतें लगाइंर् जिन्हें किसी दुश्मन पर भी लगाने से पहले कोई इंसान सौ दफे सोचेगा।`

बेटे कातेवर देख बाबू सर्वदानंद ह के-ब के रह गए। समर रुका नहीं, वह टोले वालों से रूबरू हुआ, 'आप लोगों ने भुसिया टोले वालों से और चन्नर दास से टोला और पंचायत के झगड़े का बदला देने के लिए मेरी बेटी को मोहरा बनाया। बहुत गलत किया। मि की का ऊंची तालीम हासिल करना और शहर में रहना आप लोगों को पसंद नहीं है तो मुझे कहिए। सही-गलत का जवाब मैं दूंगा।... बिना सच जाने कुछ भी बोलने से पहले इतना भी नहीं सोचा कि उसके दिमाग पर इसका कितना बुरा असर पड़ेगा? सब दिन के लिए नफरत हो जाएगी आप सबसे।`

'तो या हम झूठ बोल रहे हैं?`

'झूठ-सच का फैसला करने के लिए विवेक चाहिए जिसे आप सबने जातीय अहंकार की दुकान में बेच खाया है। पहले अपने-अपने घरों में हो रहे अनर्थ को रोकिए, फिर बाहर का फैसला करने की हिम्मत जुटाइए।` गुस्से में समर आंगन चला गया।

वहां खड़े लोग दुर-दुर करते हुए जाने लगे। बेटे की इस हरकत पर बाबू सर्वदानंद का गुस्सा घना होने लगा। दांतों पर दांत का दबाव बढ़ता गया। हथेली बौंकुरी की मूंठ को मसलने में जुट गई। आंखों से अंगारे बरसने लगे। दिमाग में विरि त के कीड़े डंक मारने लगे, 'आज फैसला होकर ही रहेगा।`

उनकी पगड़ी के आगे आज फिर से उनका बेटा सीना ताने खड़ा था। स्मृति की कड़ाही में नफरत के छनौटे से घटनाआें को उलटने-पलटने लगे तो पाया कि अपनी पढ़ाई के समय से ही समर उनके फैसलों को चुनौती देता चला आ रहा है। फसल कटाई को लेकर भुसिया टोले के नए लड़कों के उकसाने पर मजदूरों ने १६ बोझ में एक बोझ की जगह १२ बोझ में एक बोझ की मजदूरी मांगी तो उन्होंने साफ मना कर दिया। उनकी छतरी के नीचे एकजुट होकर जोतदारों ने मजदूरों की गोलबंदी का विरोध किया। मगर इस मुद्दे पर बैठी पंचायत में समर ने ही मजदूरों की मांग को जायज ठहराया था। खेत में खड़ी फसल बर्बाद होने लगी तो मन मसोस कर जोतदारों ने मजदूरों की मांग मान ली लेनिक समर की हरकतों को लेकर उन्हें खूब खरी-खोटी सुनाई थी।

उनकी मां के श्राद्ध पर भोज करने से ही मना कर रहा था समर, लेकिन जब भोज होना प का हो गया तो इस बात पर अड़ गया कि दरवाजे पर पंगत हर जात की बैठेगी और शुरुआत दलितों से होगी। कर्ता के रूप में उ?ारीय धारण करने बावजूद वह लाठी लेकर दौड़े थे। कुटुंबियों ने बीच-बचाव किया तो ही समर चुप हुआ। लेकिन उसने भोज का एक दाना भी मुंह में नहीं लिया।

उनके एकादशी निस्तारण के व त भी टंटा खड़ा किया समर ने। प्रकारांतर से उन्हें धर्मभीरू कहा, यज्ञ को फिजूल का खर्च बताया, और तो और भागवत कथावाचक से ही प्रतिवाद पर उतर आया। लोगों के सामने कितनी किरकिरी कराई थी कुलनाशक ने। यज्ञ होने तक घर से दूर चले जाने को नहीं कहते तो जरूर यह दानव धर्मनाश का करवाता।

ठाकुरबाड़ी के पुजारी पर दुश्चरित्र होने का आरोप लगाने पर तो पूरा ब्राह्मण समाज समर के खिलाफ उनके सामने आ खड़ा हुआ था। उन्होंने लाख कहा कि वह पुजारी से माफी मांगे लेकिन समर अपनी बात से टस से मस नहीं हुआ। ब्राह्मणों की नाराजगी दूर करने के लिए उन्होंने खुद पुजारी से माफी मांगी थी। हालांकि कुछ दिन बाद अपनी ही बिरादरी की बहू के साथ गलत हरकत पर पुजारी को थाने में बंद होना पड़ा तो ब्राह्मणों ने समर मामले में उनसे अफसोस जताया था।

पंचायत में इस बात को सबसे ज्यादा हवा समर ने ही दी थी कि बहुसंख्यक होने के नाते मुखिया दलितों में से ही कोई बने। पंचायत के इतिहास में पहली बार २००१ के चुनाव में दलितों की ओर से उम्मीदवार खड़ा हुआ था। हालांकि बड़जोरी के आगे जीत नहीं पाए, लेकिन चन्नर दास के पिता ने मुखिया पद पर अपना दावा ठोंककर सबको सन्नाटे में डाल दिया था। आज उसी चन्नर दास का बेटा उनकी इज्जत से खेलने पर उतारू है और उनका बेटा नालायकी पर उतर आया है। उन्होंने सोचा भी नहीं था उनके घर ऐसा भी कपूत पैदा होगा जिसे अपनी ही बेटी की आबरू का खयाल नहीं। लेकिन वह ऐसा नहीं होने देंगे। निकाल बाहर करेंगे घर से इस विभीषण को। ध्वस्त कर देंगे चन्नर दास और उसके लौंडे को।

कुछ ही देर में नीतू और मि की को लेकर बाहर आ गया समर। साथ में सूटकेस और झोला देख बाबू सर्वदानंद की भौंहें सिकु़ड गइंर् गोकि उनका दांव ही उल्टा पड़ गया। बिना प्रणाम-पाती किए समर उनके सामने से निकल रहा था। आशंकित-आतंकित बाबू सर्वदानंद ने टोका-'कहां जा रहे हो?`

'वापस भागलपुर जा रहा हूं।`

'अभी तो छुट्टी बाकी है?`

'हां, मगर मुझे अपनी बच्ची का तमाशा नहीं बनाना है।`

'फिर कब आओगे?`

'कह नहीं सकता।`

इस दरम्यान समर ने एक बार भी पिता की तरफ नहीं देखा। उसके तेवर से बाबू सर्वदानंद समझ गए कि समर फैसला कर चुका है। अपनी जिद का प का है, झुकेगा नहीं। आखिरी दांव खेला, 'मेरा आग-श्राद्ध करने तो आओगे?`

'मैं आपका श्राद्ध करूंगा या नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन हमारी बेहतरी के लिए अब आपका मर जाना ही ठीक है। मैं उस खबर का इंतजार करूंगा ताकि आप जिन-जिन लोगों की जमीन पर कुंडली मारकर बैठे हैं, उन्हें लौटाकर माफी मांग सकूं।`

हतप्रभ रह गए बाबू सर्वदानंद। आगे मुंह से न कोई बोल फूटे न दिमाग में कुछ सूझा। फूलती सांस को दबाने की कोशिश कर ही रहे थे कि मि की ने हाथ में कैलू की दी हुई चिट्ठी थमाई और पिता के पीछे जाकर खड़ी हो गई।

समर ने उलाहना दिया, 'है कोई गांव की ऊंची खून में ऐसा लड़का जिसने बोर्ड परीक्षा में कैलू से ज्यादा नंबर पाया हो! ढूंढे नहीं मिलेगा।` फिर बोला, 'चिट्टी भी वही दे सकता है जिसमें लिखने की तमीज हो। अपनी बात कहने का साहस हो। और कैलू के साहस को मेरा सलाम है।` समर मु़डा और चलता बना। पीछे नीतू और मि की।

बाबू सर्वदानंद ज्यों-ज्यों चिट्ठी की लाइनें पढ़ते जा रहे थे, उनका शरीर झुकता जा रहा था। दियाद-पड़ोसी अपने-अपने दायरों से गर्दन उचका-उचका कर पराक्रमी पट्टीदार के चेहरे पर आ-जा रहे भावों को पढ़ने की कोशिश कर रहे थे।

चिट्ठी यों थी, 'समर चाचा, बाबूजी बेकार की जिद पर अड़े हैं। आपसे अनुरोध कर रहा हूं कि तीनगछिया वाली जमीन लौटा दीजिए। उसी की उपज के जरिए किसी तरह बीए पास कर जाऊंगा तो कहीं लर्क-अर्दली होकर परिवार को रोटी-दाल खिला सकूंगा। हमारे घरवाले तो मेरे अच्छे रिजल्ट को भी बाबूजी का आशीर्वाद मानते हैं और वह हैं कि हमें फूटी आंखों नहीं देखना चाहते। मैं कोर्ट-कचहरी नहीं जाना चाहता, लेकिन नई उम्मीदों को यूं ही नष्ट भी नहीं होने देना चाहता हूं। अब फैसला आपके ऊपर है। -आपका कैलू।`



-रणविजय सिंह सत्यकेतु

संपादकीय विभाग, अमर उजाला

इलाहाबाद-२११००१.

मो. ९८३८३३२१९९

Comments

संदीप said…
रणविजय आपकी कहानी अच्छी लगी,


गांवों में पूंजी की पैठ से उजाड़ होते किसानी समाज में अब भी व्याप्त सामंती मूल्‍य-मान्यताएं, कूपमंडूकता, अतर्कपरकता, जातीय दंभ और दलीत उत्पीड़न को बेहतर ढंग से प्रस्तुत किया है आपने...


कहती थीं, 'अच्छा ही हुआ तू अपने बाप की राह पर नहीं गया जो अपनी बदरंग होती हैसियत को दिखावे के ठाट-बाट के नील-टीनोपॉल से चमकाने की कोशिश में ही जिंदगी गुजारने को विवश हैं। कम-से-कम तू अपने मन की सुनता-करता तो है। चिंदी-चिंदी हुए खानदानी लिहाज को ढोने से आजादी मैं न सही, मेरी बहू तो पा सकी।`


ये पंक्तियां काफी कुछ कह जाती हैं....
Unknown said…
bahut accha likha hai

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कविता

डर ---- तेज बारिश हो रही है दफ्तर से बाहर निकलने पर उसे पता चला घर जाना है बारिश है अंधेरा घना है बाइक है लेकिन हेलमेट नहीं है वह डर गया बिना हेलमेट बाइक चलाना खतरे से खाली नहीं होता दो बार सिर को बचा चुका है हेलमेट शायद इस तरह उसकी जान भी फिर अभी तो बारिश भी हो रही है और रात भी सोचकर उसका डर और बढ़ गया बिल्कुल रात के अंधेरे की तरह उसे याद आया किसी फिल्म का संवाद जो डर गया वह मर गया वाकई डरते ही आदमी सिकुड़ जाता है बिल्कुल केंचुए की तरह जैसे किसी के छूने पर वह हो जाता है इंसान के लिए डर एक अजीब बला है पता नहीं कब किस रूप में डराने आ जाय रात के अंधेरे में तो अपनी छाया ही प्रेत बनकर डरा जाती है मौत एक और डर कितने प्रकार के हैं कभी बीमारी डराती है तो कभी महामारी कभी भूख तो कभी भुखमरी समाज के दबंग तो डराते ही रहते हैं नौकरशाही और सियासत भी डराती है कभी रंग के नाम पर तो कभी कपड़े के नाम पर कभी सीमाओं के तनाव के नाम पर तो कभी देशभक्ति के नाम पर तमाम उम्र इंसान परीक्षा ही देता रहता है डर के विभिन्न रूपों का एक डर से पार पाता है कि दूसरा पीछे पड़ जाता है डर कभी आगे आगे चलता है तो कभी पीछे पीछे कई

संतान मोह और मानव सभ्यता

कविता ...... सन्तान मोह और मानव सभ्यता ....... क्या दो जून की रोटी के लिए जिंदगी पर जिल्लतें झेलता है इंसान? पेट की रोटी एक वजह हो सकती है यकीनन पूरी वजह नहीं हो सकती दरअसल, इंसान के तमाम सपनों में सबसे बड़ा ख्वाब होता है परिवार जिसमें माता-पिता नहीं होते शामिल केवल और केवल बच्चे होते हैं शामिल इस तरह हर युवा संतान की परिधि से बाहर हो जाते हैं माता-पिता जरूरी हो जाते हैं अपने बच्चे जब उनके बच्चों के होते हैं बच्चे तब वह भी चुपके से कर दिए जाते हैं खारिज फिर उन्हें भान होता है अपनी निरर्थकता का लेकिन तब तक हो गई होती है देरी मानव सभ्यता के विकास की कहानी संतान मोह की कारूण कथा है जहां हाशिये पर रहना माता-पिता की नियति है संतान मोह से जिस दिन उबर जाएगा इंसान उसी दिन रुक जाएगी मानव सभ्यता की गति फिर न परिवार होगा न ही घर न समाज होगा न कोई देश छल-प्रपंच ईर्षा-द्वेष भी खत्म बाजार और सरकार भी खत्म जिंदगी की तमाम जिल्लतों से निजात पा जाएगा इंसान फिर शायद न लिखी जाए कविता शायद खुशी के गीत लिखे जाएं... #omprakashtiwari

कविता : आईना तुम आईना नहीं रहे...

आईना अब तुम आईना नहीं रहे तुम्हारी फितरत ही बदल गयी है डर गए हो या हो गए हो स्वार्थी गायब हो गई है तुम्हारी संवेदनशीलता बहुत सफाई से बोलने और दिखाने लगे हो झूठ जो चेहरा जैसा है उसे वैसा बिल्कुल भी नहीं दिखाते बल्कि वह जैसा देखना चाहता है वैसा दिखाते हो हकीकत को छिपाते हो बदसूरत को हसीन दिखाने का ज़मीर कहां से लाते हो? क्या मर गयी है तुम्हारी अन्तर्रात्मा?  किसी असुंदर को जब बताते हो सुंदर तब बिल्कुल भी नहीं धिक्कारता तुम्हारा जमीर?  आखिर क्या-क्या करते होगे किसी कुरूप को सुंदर दिखाने के लिए क्यों करते हो ऐसी व्यर्थ की कवायद?  क्या हासिल कर लेते हो?  कुछ भौतिक सुविधाएं?  लेकिन उनका क्या जो तुम पर करते हैं विश्वास और बार बार देखना चाहते हैं अपना असली चेहरा जैसा है वैसा चेहरा दाग और घाव वाला चेहरा काला और चेचक के दाग वाला चेहरा गोरा और कोमल त्वचा वाला चेहरा स्किन कहने से क्या चमड़ी बदल जाएगी?  काली से गोरी और गोरी से काली खुरदुरी से चिकनी और चिकनी से  खुरदुरी हो जाएगी?  नहीं ना जानते तो तुम भी हो मेरे दोस्त फिर इतने बदले बदले से क्यों हो?  क्यों नहीं जो जैसा है उसे वैसा ही दिखाते और बताते ह