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अंधेरे कोने : छंटनी की तलवार तले जीवन का पौधा


रात के तीन बज रहे थे। इसे सुबह के भी तीन बजना कह सकते हैं। अमर ने आसमान की तरफ देखा तो वहां अर्धवृत्ताकार चांद चमक रहा था। उसकी रोशनी मंे प्रकृति स्वच्छंद स्नान कर रही थी। और दिन होता तो अमर चांद और उसकी चांदनी को भाव-विभोर होकर देखता और उसे सिद्दत से महसूस करता। 
अंधेरे कोने
भाग छह
छंटनी की तलवार तले जीवन का पौधा
कार्यालय से निकलकर अमर सड़क पर आ गया। उसके साथ उसके कार्यालय के ही चार सहकर्मी और थे। इस समय वे अखबार का अंतिम संस्करण छोड़कर घर जाने के लिए निकले थे। रात के तीन बज रहे थे। इसे सुबह के भी तीन बजना कह सकते हैं। अमर ने आसमान की तरफ देखा तो वहां अर्धवृत्ताकार चांद चमक रहा था। उसकी रोशनी मंे प्रकृति स्वच्छंद स्नान कर रही थी। और दिन होता तो अमर चांद और उसकी चांदनी को भाव-विभोर होकर देखता और उसे सिद्दत से महसूस करता। उसे चांदनी रात बहुत पसंद है लेकिन आज उसे चांदनी रात में शीतलता की जगह गरमी महसूस हुई। उसने देखा उसके सहकर्मी अभी अखबार की किसी खबर पर माथा-पच्ची कर रहे हैं। अमर उनसे थोड़ा आगे होकर चलने लगा।
ऑफिस से निकलने वाला यह अंतिम जत्था था, वह भी पैदल। इससे पहले वे सभी लोग चले गए थे जिनके पास अपने वाहन थे। इन लोगों को घर तक छोड़ने के लिए कार्यालय की गाड़ी जाती है लेकिन ये लोग गप्प लड़ाने के लिए अक्सर पैदल ही घर चले जाते हैं। इसके अलावा आज उस गाड़ी से संपादक जाने वाले थे। इसलिए भी इन लोगों ने पैदल चलने का रास्ता चुना।
संपादक के पास अपनी कार है। कंपनी की तरफ से चालक भी मिला हुआ है। लेकिन वे अक्सर घर वापस कार्यालय की गाड़ी से जाते हैं। आते अपनी गाड़ी से हैं, फिर ड्राइवर गाड़ी लेकर घर चला जाता है। ऐसा उन दिनों होता है जब संपादक के बच्चे या पत्नी कहीं जाने वाले होते हैं।
अमर उसके सहकर्मी मुख्य सड़क पर आए ही थे कि संपादक की गाड़ी तेजी से निकली। अमर को संपादक का इस तरह निकल जाना अच्छा नहीं लगा। वह सोचने लगा कि इनके ‘पालक-बालक’, अमर उन लोगों को संपादक का पालक-बालक कहता है जो इनकी कृपा से नौकरी पाए हैं और उत्तरोत्तर विकास कर रहे हैं। कहते हैं कि यह आदमी बहुत संवेदनशील है। किसी के साथ अन्याय नहीं करता। लेकिन यह कैसी संवेदना है कि वह ऑफिस की गाड़ी से घर जा रहे हैं और उसी के सामने ऑफिस के ही लोग पैदल जा रहे हैं। वह गाड़ी रुकवा कर इतना भी नहीं पूछ सकते कि चलोगे क्या? 
- संपादक जी गए हैं इस गाड़ी से? उनमें से किसी एक ने कहा।
- हां, गाड़ी तो कंपनी की ही थी। किसी दूसरे ने कहा।
- ऐसे निकल गए जैसे पहचानते ही नहीं।
- हम कौन से उनके पालक-बालक हैं। किसी ने कहा और सभी ठहाका मार कर हंस पड़े।
ये लोग जो, पैदल रोज जाते हैं। बस इसलिए कि दस-बारह घंटे काम करने के बाद कुछ हंसी-मजाक कर के अपना मूड हल्का कर लेते हैं।
- पालक-बालक ही इनको ले डूबेंगे।
- ले क्या डूबेंगे? डूब ही गए समझो। बस फाइनल किक लगनी बाकी है।
- अब तो मालिक भी इनसे तंग हैं।
- तंग नहीं होंगे। इनकी करतूतें मालिक को भी तो पता चल ही जाती हैं।
- क्या खाक पता चलती हैं। मालिक भी तो चाटुकारों की सुनता है। इसमें ये माहिर हैं। सुनते नहीं हो फोन पर कैसे कहते हैं, जी भाई साहब। एक हाथ से फोन का चोंगा पकड़े होते हैं और दूसरे हाथ से खुद का ही टट्टे तोल रहे होते हैं।
एक बार फिर सामूहिक ठहाका लगा। तभी पीछे से एक जीप तेजी से निकली। सभी चुप हो गए।
- सुना है किसी दूसरे अखबार में जाने की तैयारी कर रहे हैं?
- वह तो करनी ही पड़ेगी।
- इस संस्करण को लेकर इन्हें बड़ा गुमान था। सब मिट्टी में मिल गया।
- वह तो मिलना ही था। जब अखबार से अधिक ध्यान इस पर लगाया जाएगा कि कहां किस पालक-बालक को कैसे एडजस्ट किया जाए। ड्राइवर की तनख्वाह कैसे निकाली जाए? किस पालक-बालक का वेतन कैसे बढ़वाया जाए। कौन आदमी उनके पालक-बालक को पसंद नहीं है, उसे कैसे खुड्डे लाइन लगाया जाए। कुछ पालक-बालक और कैसे भर्ती किए जाएं। घर पर एसी कैसे लगे। अधिक से अधिक सुविधाएं कैसी जुटाई जाएं। और तो और पालक-बालकों के साथ शराब पी जाएगी तो क्या होगा।
- लोग कहते हैं कि निजीकरण के जमाने में काबलियत और योग्यता की चलती है, लेकिन यह कितना गलत है। जहां देखो वहीं पहुंच, जुगाड़ और चमचागिरी की चल रही है।
- अरे भाई जहां देखो चिंटुओं, पिंटुओं और पप्पुओं की बल्ले-बल्ले है।
- यही नहीं यहां तो जातिवाद के साथ मायका और ससुरालवाद भी चल रहा है।
- बोलो सालावाद जिंदाबाद। किसी ने नारा लगाया तो सभी फिर ठहाका मार कर हंस पड़े।
- जातिवाद जिंदाबाद, क्षेत्रवाद जिंदाबाद।
- अपने यहां ही नहीं वादों की झूम हर जगह है।
- इसके बिना तो काम ही नहीं चल सकता इस देश में। यह हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है।
- सवाल देश और संस्कृति का नहीं है। अमर ने कहा।
- फिर? एक साथ कई बोले।
- सवाल व्यवस्था का है।
- ये लो। अब इनकी सुनो।
- सुनना ही पड़ेगा।
- क्यों सुनना पड़ेगा भाई?
- क्योंकि व्यवस्था की बात करने वाले ही तरक्की करते हैं....।
- ठीक ही कह रहे हो।
- समझा नहीं। किसी एक ने कहा।
- भाई इसमें समझने की क्या बात है? अपने संपादक जी भी तो बहुत पहले व्यवस्था की बात करते थे।
- अब तो हर शनिवार और मंगलवार मंदिर जाकर घंटा बजाते हैं।
फिर एक सामूहिक ठहाका लगा। माहौल सामान्य होने के बाद किसी ने कहा।
- सुना है आठ-दस लोगों की छंटनी होने वाली है।
- हां, सुना तो मैंने भी है।
- लेकिन होगी किसकी?
- जो पालक-बालक नहीं हैं।
- यानी गैर चिंटुओं, पिंटुओं और पप्पुओं की शामत।
- छंटनी इतनी आसान नहीं है।
- सब आसान है। सुना है संपादक जी कह रहे हैं कि सभी का अंग्रेजी का टेस्ट लिया जाएगा। उसमें जो फेल होगा उसे निकाल दिया जाएगा।
- फिर तो उनके कई पालक-बालक भी छंट जाएंगे।
- और चिंटू-पिंटू भी।
- कई पप्पू भी।
- छंटेंगे तो वही, जिन्हें संपादक जी छांटना चाहते हैं। अब वह चाहे अंग्रेजी का टेस्ट पास ही क्यों न कर ले।
- जिसे छांटना है उसकी कापी में चार गोले लगा देंगे और इस्तीफा लिखवा लेंगे।
- आप उनकी न्याय व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं। जबकि उनका दावा है कि उन्होंने कभी किसी के साथ अन्याय नहीं किया। आज भले हर शनिवार मंदिर जाकर शनिदेव को पूज रहे हैं लेकिन कभी कमरेड रह चुके हैं। उनका यह भी दावा है कि कोई उनकी संवेदनशीलता और न्यायप्रियता पर सवाल नहीं उठा सकता।
- दावा चाहे जो करें, लेकिन सच तो सच होता है। बातें छिपी थोड़े ही हैं। एक जिले में इन्हें अपने पालक-बालक को प्रभारी बनाना था। फिर क्या था संबंधित डेस्क प्रभारी को बुलाकर कह दिया कि आपके जिले से खबरें ठीक नहीं आ रही हैं। जिला, प्रभारी को टाइट करो। खबरों की मूल कापी दिखाओ। पंद्रह दिन यह अभियान चला सोलहवें दिन इनका पालक-बालक जिला प्रभारी हो गया। खबरें सब ठीक हो गईं।
इतनी बातें होने तक सभी का घर आ गया। एक-एक कर सब अपने-अपने घर चले गए।
कमरे पर आकर अमर चारपाई पर लेट गया। उसके सिर में दर्द नहीं था लेकिन उसे लग रहा था कि दर्द है। थकान भी महसूस कर रहा था। और दिन वह घर आता था तो हाथ-पैर धोता था तब तक पत्नी खाना गरम कर देती थी। वह खाना खाता था, पत्नी से बातें करता था। खाना खाने के बाद सो रहे बच्चों को प्यार करता। उसके बाद कुछ पढ़ता तभी सोता। हालांकि पढ़ने के लिए उसे पत्नी से काफी बातें सुननी पड़तीं फिर भी वह पढ़ता। आज आते ही उसका लेट जाना नेहा को खटका।
- क्या बात है जी? तबीयत ठीक नहीं है क्या? आफिस में कुछ हुआ? नेहा ने प्रश्नों की बौछार कर दी।
- नहीं यार, सिर में हल्का-हल्का दर्द है।
- कितनी बार कहा है कि सर दर्द वगैरह की दवा रखा करो। आप हैं कि मेरी सुनते ही नहीं।
अमर कुछ नहीं बोला। सोचता रहा कि अब इन्हें क्या बताए कि दर्द किस कारण है। नेहा थोड़ी देर तक उसके बालों को सहलाती रही फिर बोली।
- लाओ तेल लगाकर दबा देती हूं।
- हां, दबा दो। अमर ने कोई प्रतिवाद नहीं किया, क्यांेकि वह जानता था कि प्रतिवाद का मतलब है कि बहस। और वह बोलना ही नहीं चाह रहा था।
नेहा बड़ी देर तक तेल लगाकर अमर का सिर दबाती रही।
- हाथ-पैर धो लो मैं खाना गरम करके लाती हूं।
- ठीक है।
- क्या ठीक है। कितनी बार कहा है कि खाना आफिस ले जाया करो। यह भी कोई खाने का टाइम है। सुबह के चार बज रहे हैं। आफिस में खाना ले जाओ तो कम से कम समय से खा तो लोगे।
- वहां मरने का तो समय मिलता नहीं।
- आपको ही नहीं मिलता होगा। बाकी तो सभी ले जाते हैं।
- सबकी बात और है।
- क्यों? सबकी बात और क्यों है? क्या वे काम नहीं करते?
- ठीक है यार, तुम खाना लाओ। अमर झुंझला गया। कुछ तो मूड ठीक नहीं था कुछ यह भी कारण था कि नेहा को सोते से जागना पसंद नहीं था। वह चाहती है कि अमर खाना लेता जाए तो उसे अमर के आने पर देर तक जागना नहीं पड़ेगा। उठकर दरवाजा खोलेगी और सो जाएगी। खाना न ले जाने से उसे काफी देर तक जागना पड़ता है। नींद भी उचट जाती है।
नेहा भोजन लाई तो अमर अनमने मन से खाने लगा। उसे भूख का एहसास तक नहीं था। फिर भी खाना इसलिए खाने उठा कि नेहा मामले को लेकर गंभीर हो जाएगी और परेशान भी। वैसे भी उसकी शिकायत रहती है कि अमर उसके कहे अनुसार भोजन नहीं करता। कुल मिलाकर अमर मामले को तूल देने से बच रहा था।
- ऑफिस में जरूर कोई बात हुई है। नेहा ने गंभीरता से कहा। और दिन वह अमर को भोजन देने के बाद सोने के लिए लेट जाती थी और सो भी जाती थी। चिल्लाती तब थी जब भोजन करने के बाद अमर पढ़ने लगता। लेकिन आज वह यह तय करके बैठ गई थी कि अमर के उखड़े मूड का कारण जानकर ही रहेगी।
- बात तो कुछ भी नहीं हुई है। रोटी का टुकड़ा मुंह में डालते हुए अमर बोला।
- मैं मान ही नहीं सकती। इस तरीके का सिरदर्द आपको कभी नहीं हुआ। होता है तब जब आफिस में कोई समस्या होती है।
अमर बोला कुछ नहीं। खाता रहा और नेहा को देखता रहा। सोचता रहा कि समस्या तो बहुत बड़ी है। लेकिन तुम समझोगी नहीं। वह इस बात से भी डर रहा था कि यदि नेहा से चर्चा कर दे तो अगले ही दिन अपनी सहेलियों को कह देगी और बात तिल का ताड़ बन जाएगी।
- तो तुम मुझे बताना ही नहीं चाहते। सोच रहे हो अनपढ़ गंवार से क्या बात करनी। नेहा बिदक गई।
- अरे नहीं यार, ऐसी बात नहीं है। तुम तो यों ही भड़क जाती हो।
- कोई न कोई बात तो है ही। ऐसा ही उस दिन हुआ था जब सबकी तनख्वाह बढ़ी थी और आपकी नहीं। तब भी आपका टेंशन के मारे सिरदर्द कर रहा था। वैसी ही कोई बात आज भी है। बताओ या न बताओ। वैसे भी तुम सारी बातें मुझे बताते ही कहां हो?
- यार तुम तो पीछे ही पड़ गई। जब कह दिया कि कोई बात नहीं है तो नहीं है।
- आपके कहने से क्या होता है? बात तो है ही। नेहा यह कहते हुए फर्श पर ही लेट गई।
अमर सोचने लगा कि क्या नेहा को बता दे। बताए भी तो क्या कि उसे अंग्रेेजी नहीं आती। इसलिए यदि अंग्रेजी का टेस्ट लिया गया तो उसका फेल होना तय है और फिर नौकरी से हाथ धोना भी निश्चित है। वैसे भी संपादक की भृगुटि उसके प्रति तनी ही रहती है। संपादक उससे नाराज क्यांे है? यह वह आजतक समझ नहीं पाया। अपनी समझ से उसने ऐसी कोई हरकत नहीं की थी जो संपादक को हर्ट करने वाली रही हो। इसके विपरीत मौका मिलने पर संपादक उसे नीचा दिखाने और जलील करने से बाज नहीं आता। पिछले दिनांे उन्होंने वेतन वृद्धि की तो जो अमर से जूनियर थे उन्हें सीनियर बना दिया। वेतन में अंतर एक हजार से अधिक कर दिया। अमर तिलमिलाकर रह गया। बहुत गुस्सा आया लेकिन वह संपादक से इस मुद्दे पर बात करने नहीं गया। वह जानता था कि उसे दंडित किया गया है। संपादक ने जो किया है उस पर अटल रहेंगे, क्योंकि किसी के साथ अन्याय नहीं करते लेकिन जलील जरूर कर देंगे। इसलिए वह इस अपमान के घूंट को पीकर रह गया। यही नहीं उसनेे अपने दिल को यह कहकर समझाया कि मुझे अंग्रेजी नहीं आती इसलिए मुझे दंडित किया गया होगा। हालांकि वह यह भी जानता था कि जिन लोगों का वेतन उससे अधिक किया गया है, उनमें से कइयों को अंग्रेजी नहीं आती। लेकिन वे संपादक के कृपापात्र हैं। हां, इस घटना के बाद से अमर की नजर में संपादक का मान-सम्मान खत्म हो गया। इससे पहले भी संपादक ने उसे कई मौकों पर नीचा दिखाया था। जलील भी किया, लेकिन फिर भी उसके दिल में संपादक के लिए मान-सम्मान बरकरार रहा। मगर इस घटना के बाद वह संपादक से घृणा करने लगा। सामने पड़ने पर वह संपादक से नमस्कार जरूर करता लेकिन अंदर की घृणा को वह दबा भी नहीं पाता और मन ही मन गाली भी देता।
अमर खाना खा चुकने के बाद लेटने लगा तो नेहा ने उसे फिर छेड़ा।
- बता दो मन हल्का हो जाएगा। जरूर संपादक ने कुछ कहा होगा?
- अरे नहीं यार, उन्होंने कुछ नहीं कहा, लेकिन लगता है इस शहर से दाना-पानी उठने वाला है।
- क्यों?
- संस्थान में छंटनी होने वाली है।
- क्यों?
- आदमी ज्यादा हो गए हैं।
- तो आप ही ज्यादा हुए हैं?
- नहीं ज्यादा तो कई लोग हैैं।
- तो फिर, यह तो जरूरी नहीं है कि आपको ही निकाला जाए?
- हां, यह जरूरी नहीं है लेकिन छंटनी के लिए जो पैमाना बनाया गया है उस पर मैं खरा उतरता हूं।
- क्या पैमाना बनाया गया है?
- अंग्रेजी का टेस्ट लिया जाएगा, जो फेल होगा उसे निकाल दिया जाएगा।
- आपको तो अंग्रेजी आती है। आपने तो टेस्ट देकर ही इस अखबार को ज्वाइन किया है।
अमर संकोच में पड़ गया। नेहा समझती है कि मुझे अंग्रेजी आती है लेकिन मेरी अंग्रेजी काम चलाऊ है। यदि इसे यह बात बता दूं तो इसे आघात लगेगा। साथ ही इसकी नजरों में मैं गिर जाउंगा। फिर सोचा नजरों में तो गिरना ही है चाहे आज गिरूं या एक दो महीने बाद। आखिर जब टेस्ट के बाद छंटनी हो जाएगी तो नेहा को बताना ही पड़ेगा।
- क्या सोचने लगे?
- कुछ नहीं। सोच रहा था कि ... खैर छोड़ो।
- क्या छोड़ो? आपकी यही बात मुझे अच्छी नहीं लगती। आधी-अधूरी बात बताते हो। आखिर कभी तो मुझ पर भरोसा कर लिया करो। माना कि मैं अनपढ़ हूं, लेकिन इतनी गंवार भी नहीं हूं कि अपना-भला-बुरा न सोच सकंू।
- अरे नहीं यार, तुम तो खामखाह नाराज हो जाती हो। दरअसल, बात वो नहीं है जो तुम समझ रही हो।
- फिर क्या बात है?
- बात यह है कि मुझे अंग्रेजी बहुत कम आती है।
- क्या? नेहा का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया।
- कम आती है और अंग्रेजी का अखबार पढ़ने के लिए लेते हो?
नेहा के दिमाग में पहला सवाल यही कौंधा।
- कहा न कम आती है, बिल्कुल नहीं आती ऐसा तो नहीं है।
- तो क्या जितना आती है उतना काफी नहीं है?
- है भी और नहीं भी?
- मतलब?
- लोकल डेस्क पर तो अंग्रेजी की जरूरत नहीं पड़ती लेकिन रिपोर्टिंग और जनरल डेस्क पर बिना अच्छी अंग्रेजी के गुजारा नहीं होता।
- यार आप कहते हो कि एमए तक पढ़े हो और अब भी हमेशा किताबांे में ही चेहरा गड़ाए रहते हो फिर भी कहते हो कि अंग्रेजी नहीं आती?
- हां, यार, जैसी अंग्रेजी आनी चाहिए वैसी नहीं आती।
- क्या सभी को आती है?
- नहीं, सभी को भी नहीं आती।
- फिर नौकरी पर रखा ही क्यों?
- हां, तुम्हारी बात सही है, लेकिन तब रख लिया, जरूरत थी, अब जरूरत नहीं है तो निकालने का बहाना खोज रहे हैं।
- ठीक है, आपको तो दूसरे अखबार से बुला ही रहे हैं न। यहां छोड़ दो वहां चले जाओ।
- हां, कुछ तो करेंगे ही।
अमर चारपाई पर लेट गया। नेहा ने बत्ती बुझा दी। लेटने के बाद नेहा बात करने की कोशिश की लेकिन अमर ने कोई जवाब नहीं दिया। एक तो उसे मानसिक थकान महसूस हो रही थी। दूसरे उसे एक घटना याद आ रही थी। वह आंख बंद किए उस घटना को याद करने लगा।
उस समय वह एक अखबार में बतौर संवाददाता कार्यरत था। एक दिन वह एक संस्थान में किसी कार्यक्रम को कवर करने गया। वहां सभी वक्ता अंग्रेजी मंे बोल रहे थे। यह सुनकर अमर की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। मारे परेशानी के चेहरे पर पसीना चुह-चुहा आया। प्रेस की लाइन में कई अखबारों के पत्रकार बैठे थे। कुछ लोकल अखबारों के भी पत्रकार थे। उन्हें भी अंग्रेजी नहीं आती थी। वह भी अमर की तरह चुपचाप वक्ताओं के भाषण सुन रहे थे। जिन्हें आती थी वह तेजी से कागज पर कुछ नोट कर रहे थे। कुछ लोकल पत्रकार उनसे पूछताछ रहे थे। अमर चुप रहा। उसने तय किया कि पहले सभी की बात गौर से सुन ली जाए। उससे कुछ बातें तो समझ मंे आ ही जाएंगी। उसी के आधार पर वह दो कालम की खबर तो बना ही देगा। यह सोचकर उसका आत्मविश्वास लौट आया। वह चुपचाप वक्ताओं को सुनता रहा। बीच-बीच में कुछ नोट्स भी लेता रहा। कार्यक्रम जब समाप्त हुआ तो उसकी घबराहट दूर हो चुकी थी। उसने तय कर लिया था कि अब वह चार कालम की खबर लिख सकता है। ऑफिस आया। अपने प्रभारी से खबर के बारे में चरचा कि तो उसने कहा कि सिंगल कालम लिखो। बहुत बड़ी हो तो दो कालम। इस पर अमर ने और राहत की सांस ली। लेकिन जब वह लिखने लगा तो खबर चार कालम की बन गई। उसे आश्चर्य हुआ। खुद पर विश्वास बढ़ गया।
आगे क्या हुआ यह अमर सोच नहीं पाया। नींद ने उसे अपनी आगोश में ले लिया...।
जल्दी चाय खत्म करो यार। कहां खो गए? तुम्हें तो कहीं जाना है। देर नहीं हो जाएगी? यह अनिल था जो अमर को यादों की दुनिया से बाहर ले आया। अमर ने देखा उसके हाथ में चाय का कप तो है लेकिन उसकी चाय खत्म हो गई है। इस बीच अनिल खाना बनाने लगा था और सागर बाथरूम में था। उनका एक अन्य दोस्त जो रात को आ गया था वह जा चुका था।
- क्या बात है? आजकल खोये-खोये से रहते हो? अनिल ने अमर को छेड़ा।
- सागर को देखकर अपने पुराने दिन याद आ गए। आज तो मंदी के कारण छंटनी हो रही है लेकिन मैं तो अंग्रेजी न आने के कारण हमेशा ही छंटनी की तलवार के तले रहता हूं।
दोनों बातें कर रहे थे कि अमर का मोबाइल बज गया। फोन जालंधर से था। उधर से मिस्ड काल की गई थी। अमर ने पलट कर फोन किया तो उधर मझला बेटा था। छूटते ही बोला।
- डैडी मुझे स्कूल से निकाल दिया गया।
- क्यों?
- टीचर कहता है कि तुम स्कूल नहीं आते।
- तो ठीक ही कह रहा होगा। क्यों नहीं जाते स्कूल?
- यूनिफॉर्म की पेैंट ही नहीं है।
- पैंट नहीं है तो खरीद लेते।
- लेकिन पैसे?
- यार तुम पागलों वाली बात न किया करो। तुम्हारा न स्कूल जाने का मन करे न ही तुमने पैंट ली। लेना चाहते तो एक पैंट लेनी इतनी मुश्किल नहीं थी। माना कि मैंने इसके लिए अलग से पैसे नहीं दिए थे लेकिन यदि इसके कारण स्कूल नहीं जा रहे थे तो बताना तो चाहिए था। अब भुगतो। मैं क्या कर सकता हूं। अभी मैं चार-पांच दिन नहीं आऊंगा। जब आऊंगा तो देखंूगा कि क्या हो सकता है।
अमर ने फोन काट दिया। उसका मूड खराब हो गया। यह लड़का स्कूल न जाने के बहाने बनाता रहता है। पहले बोला स्कूल बदलना है। अब कह रहा है कि नाम काट दिया। स्कूल गया नहीं और कह रहा है कि पैंट नहीं है। अमर मन ही मन सोचने लगा था।
उसे याद आया कि इसको स्कूल ड्रेस की पैंट पिछले साल से ही नहीं है। चूंकि उसने कभी कहा नहीं तो उसने खरीद कर लाया भी नहीं। यदि वह कहता या उसके बिना काम नहीं चलता तो वह पैंट ला चुका होता।
अमर को अतीत की एक घटना याद आने लगी। उस समय भी यही बेटा स्कूल ड्रेस की पैंट के लिए जिद पर अड़ गया था। सुबह-सुबह का समय था। अमर सो रहा था। उस समय यह लड़का दूसरी कक्षा में था। अमर यादों की लहर मंे बहता इससे पहले बाथरूम में चला गया। सोचा वहीं नहा भी लेगा और अतीत की कुछ बातें भी याद कर लेगा।
अमर भागता हुआ बॉथरूम में गया तो उसे जाता देखता रह गया सागर। सोचा कि इसे क्या हो गया। सागर को इस तरह विचारमग्न होता देख अनिल बोला कि क्या देख रहा है? सागर ने बताया कि अमर भागता हुआ बाथरूम मंे गया है। आजकल इसे पता नहीं क्या हो गया है। इस पर अनिल ने कहा कि आजकल बात-बात मंेे अतीत में खो जाने की बीमारी हो गई है। जब देखो तब अतीत के ही पन्ने पलटता रहता है। फिर कोई घटना याद आ गई होगी। सोचा नहाते समय आराम से याद कर लेंगे। साला अतीतजीवी होता जा रहा है।
- अतीत तो इसका कोई इतना बढ़िया रहा नहीं है। सागर ने कहा। फिर क्या याद करता रहता है?
- बढ़िया अतीत होता तो कौन याद करता। अरे वह तो वर्तमान की किसी घटना पर बीते कल की गुजरी बातें याद करता रहता है। अनिल ने कहा। देखा नहीं अभी चाय-पीते हुए कैसे खो गया था। मैंने पूछा तो कहता है कि मैं तो हमेशा ही दूर की सोचता रहता हूं।
नेहा की किचकिचाहट से अमर की आंख खुल गई। उसने लेटे-लेटे दीवाल घड़ी पर निगाह डाली। सात बज रहे थे। सोचा सुबह पांच बजे लेटा था। सात बजे नींद खुल गई। तभी नेहा किचन से बड़बड़ाते हुए अंदर आई। उसे जगा देखकर बोली कि अपने बेटांे को समझा लो। मेरा कहा नहीं मानते।
- क्या हुआ?
- कह रहे हैं कि शर्ट पुरानी हो गई है। नई शर्ट आएगी तब स्कूल जाएंगे।
तभी बड़ा वाला लड़का जोकि दूसरी क्लास में पढ़ रहा था शर्ट लेकर आया।
- देखो पापा, कैसे घिस गया है कपड़ा। स्कूल में बच्चे हंसते हैं।
अमर शर्ट को पकड़ कर बड़ी देर तक देखता रहा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था क्या जवाब दे।
- देखो बेटा दो रोज काम चलाओ। दो दिन बाद तनख्वाह मिल जाएगी। मैं नई शर्ट ला दूंगा।
अमर का जवाब सुनकर बड़ा लड़का चला गया। तभी नेहा छोटे वाले लड़के की शिकायत लेकर आई।
- लो इनकी सुनो।
- क्या है?
- इनका थैला फट गया है। कह रहे हैं कि पन्नी में किताबेें लेकर स्कूल नहीं जाएंगे। बच्चे हंसते हैं।
छोटा पिछले कई दिनों से पन्नी में किताबें लेकर स्कूल जा रहा था। उसकी शिकायत भी वाजिब थी। इसे अमर समझ रहा था लेकिन उसने बच्चों को यह भी बता रखा था कि वेतन मिलते ही उनका काम हो जाएगा, फिर क्यों रोज-रोज चिकचिक करते हैं। यह सोचकर अमर को गुस्सा आ गया।
- साल में चार बार इन लोगों को बस्ता खरीद कर देना पड़ता है। इतना बस्ता किसी के बच्चे नहीं फाड़ते। जल्दी-जल्दी बस्ता फाडेंगे तो पन्नी लेकर ही स्कूल जाना पड़ेगा।
अमर के गुस्से का छोटे वाले पर कोई असर नहीं हुआ। वह जिद्दी स्वाभाव का बालक अपनी जिद पर अड़ा रहा। अमर ने उठकर उसे पुचकारा।
- आज चले जाओ बेटा, कल बस्ता आ जाएगा।
- और जूता भी। छोटे ने जोड़ दिया।
- हां पापा, जूता भी। और मोजा भी। बड़े वाले ने उसके सुर मंे सुर मिलाया।
- ठीक है भाई, आ जाएगा।
- कह तो ऐसे रहे हो जैसे कि इस बार वेतन नहीं कुबेर का खजाना मिलने वाला है। नेहा ने गुस्से मंे व्यंग्य किया।
- तुम कहना क्या चाहती हो?
- मैं क्या कहूंगी। जब से इस शहर में आई हूं हर महीने ही कड़के रहते हो। एक भी महीना ऐसा नहीं गया कि खर्च ठीक से चल पाया हो। कर्ज ऊपर से हो गया है।
- मैं अपने ऊपर तो लुटा नहीं रहा हूं। एक-एक पैसे का हिसाब दे देता हूं तुम्हें। तुम्हें लगता है कि फालतू खर्च कर रहा हूं? अब जब जरूरत भर का भी वेतन नहीं मिलेगा तो कड़की तो बनी ही रहेगी न? यह तो तब है जबकि बच्चों को सस्ते स्कूल में पढ़ा रहा हंू। किसी महंगे स्कूल में नाम लिखवा देता तो जिस कपड़े में और पन्नी लेकर हमारे बच्चे गए हैं उन्हें स्कूल से ही बाहर निकाल दिया जाता।
- मैं यह सब नहीं जानती। आप तो मुझे घर छोड़ आओ और अपना यहां का कर्जा पटाओ।
अमर मुस्कुराकर रह गया। वह कहने वाला था कि गांव में छोड़ दिया था तो साथ रहने के लिए जान खा रही थी। अब गांव जाने की धमकी दे रही हो। लेकिन कहा नहीं क्योंकि बात बेवजह बढ़ जाती। वह फिर से सोना चाह रहा था। इसलिए वह चुपचाप लेट गया। लेकिन नींद उसकी आंखों से भाग चुकी थी।
वह अपने बड़े लड़के के बारे में सोचने लगा। गांव में पढ़ रहा होता तो यह पांचवीं मंे होता। यहां आकर पढ़ रहा है तो दूसरी में है। पिता जी कह रहे थे कि तीन साल का नुकसान करवा दिया मैंने। लेकिन मैं क्या करता? वह था तो तीसरी क्लास में लेकिन उसे उस समय क ग घ भी नहीं आता था। स्कूल में नाम लिखवाने गया तो प्रिंसिपल के सामने कितना लज्जित होना पड़ा। प्रिंसिपल जो भी पूछता वह बता नहीं पाता। वह तो इलाके का सबसे सस्ता पब्लिक स्कूल था इसलिए उसने नाम पहली में लिख लिया नहीं तो नाम ही न लिखा जाता। कहने को बेटा गांव में पढ़ने जाता था। पता नहीं कैसे वह तीसरी कक्षा में पहुंच गया था।
अमर को अपने दिन याद आ गए। गांव का वह प्राइमरी स्कूल जिसमें केवल चार अध्यापक थे। बच्चे आसपास के दस गांवों के आते थे। स्कूल था सड़क के किनारे। लेकिन उसमें पढ़ने वाले बच्चे पढ़ते थे रेलवे लाइन के किनारे वाली बाग में। बाग में पढ़ना उनकी मजबूरी थी, क्योंकि स्कूल भवन में केवल दो कमरे थे। एक में हेडमास्टर ताला लगाकर रखते। उसमंे वह टूटी-फूटी कुर्सी-मेज और पता नहीं कितने कागज पत्तरों वाली दो चार लोहे की अलमारियां रखते थे। बचता एक कमरा। इसमें पांचवीं क्लास के बच्चे पढ़ते और बरामदे में कभी-कभी चौथी क्लास के बच्चे पढ़ते। बाकी बच्चे तो रेलवे लाइन और सड़क के बीच स्थित बाग में पेड़ों के नीचे बैठते। गरमी के मौसम मंें छांव में बैठते तो ठंड के सीजन में धूप मंे। बरसात होती तो अपने-अपने घर भाग जाते।
स्कूल भवन में चूंकि बिजली नहीं थी इसलिए गरमियों में तो पांचवीं क्लास के बच्चे भी पेड़ के नीचे ही पढ़ते।
स्कूल में पीने के पानी के लिए एक हैंडपंप लगा था लेकिन वह अक्सर खराब रहता। इसलिए स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे जैसे बैठने के लिए अपने घर से टाट लाते थे वैसे ही किसी डिब्बे में पीने के लिए पानी भी लाते। जो बच्चे नहीं लाते वह आसपास के घरों में पानी पीने जाते। जिस स्कूल में पीने के पानी की व्यवस्था न हो वहां पर शौचालय की व्यवस्था होगी यह सोचना भी गुनाह है। लिहाजा इस स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे टट्टी करने के लिए तालाब की तरफ जाते। एक तालाब लाइन पार करके था जो गर्मियों में सूख जाता और दूसरा सड़क पार करके था जो कभी न सूखता। हां, बरसात के दिनों में उसका पानी स्कूल भवन के पिछवाड़े तक जरूर आ जाता।
स्कूल आने पर बच्चों का पहला काम यह होता था कि जहां उन्हें बैठना है वहां की सफाई करें। अध्यापक जिसे बच्चे पंडिजी कहते, के लिए कुर्सी ले आकर रखते।
स्कूल के पंडिजी अक्सर देर से आते। तब तक बच्चे खेलते। कोई एक पंडिजी यदि जल्दी आ जाते तो वही अपने क्लास के साथ अन्य कक्षाओं के बच्चों को भी संभालते। जब चारों पंडिजी आ जाते तो वह बच्चों को काम बताकर एक साथ गप्पे मारने बैठ जाते। इनमंे से एक मास्टर थे गोगई यानी गोगाबंसत उनका नाम कुछ और था लेकिन उन्हें बच्चे ही नहीं मास्टर भी गोगई ही कहते। उन्हें कुछ आता जाता नहीं था। वह पहली या दूसरी कक्षा के बच्चों को पढ़ाते थे।
अन्य मास्टर भी उनसे मजाक करते। कभी उनका जूता छिपा देते और वह बावलों की तरह उसे खोजते फिरते तो कभी उनकी कलम गायब कर देते। कभी उनका गमछा गायब कर देते। जब अन्य मास्टर गोगई पंडिजी के साथ खेल खेलते और हंसते तो बच्चे भी उनके खेल का आनंद लेते।
स्कूल के आधे बच्चे तो हमेशा या तो पानी पीने गए होते या फिर हगने-मूतने। हां, पांचवीं कक्षा को पढ़ाने वाले पंडिजी अच्छे थे। गधा बच्चा भी उनकी सोहबत में तेज हो जाता। वह पढ़ाते ही बड़े मीठे अंदाज में थे। यही कारण था कि हर बच्चा उनसे पढ़ना चाहता था। वैसे तो वह वेवल पांचवीं कक्षा के बच्चों को ही पढ़ाते थे, लेकिन कभी-कभी यदि किसी अन्य कक्षा के बच्चों को पढ़ा देते तो वे बच्चे उनके मुरीद हो जाते।
अमर जब पांचवीं कक्षा में गया तो उसका साबका इन पंडिजी से पड़ा। इन्हीं पंडिजी ने पहली बार पंाचवीं कक्षा के बच्चों को अंग्रेजी भाषा के बारे में बताया था।
 जिस दिन एक किताब लाकर उन्होंने बच्चों को दिखाई तो बच्चों के सामने एक नई दुनिया खुल गई। उन्होंने कहा था कि जो बच्चे इसे पढ़ना चाहें वे पढ़ा देंगे। करना यह होगा कि सभी को अंग्रेजी की किताब और कापी खरीदनी होगी और लिखने के लिए पेन। उन्होंने लिखने वाली वह पेन भी दिखाई, जो एक पेंसिल जैसी लकड़ी के डंडे में फिट थी। फाउंटेन पेन की निब जैसी। बच्चों को उसे देखकर आश्चर्य हुआ। उनके बेटे की स्टेशनरी की दुकान थी। बाद में उन पर आरोप यह लगा कि बेटे को लाभ पहुंचाने के लिए उन्होंने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने का सपना दिखाया था। यह बात सच भी थी लेकिन उन्होंने बच्चों को एक सपना तो दिखा ही दिया था। एक सच से भी सामना करा दिया था। एक ऐसा सच जो पूरी जिंदगी उनका पीछा करने वाला था और कर रहा है।
इन पंडिजी ने यह भी बताया था कि आजकल जिसे अंग्रेजी नहीं आती उसकी पढ़ाई अधूरी रह जाती है। अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। दुनिया के किसी भी कोने में जाओ यदि अंग्रेजी आती है तो आपको कोई दिक्कत नहीं होगी। यदि अंग्रेजी आती है तो आपको नौकरी जल्दी मिल जाती है। एक तरह से नौकरी के लिए तो अंग्रेजी का ज्ञान अनिवार्य है।
- तो क्या हिंदी जानने वालों को नौकरी नहीं मिलती? अमर ने पूछा था।
- मिलती है, लेकिन बहुत कम।
- ऐसा क्यों?
- क्योंकि हमारे देश मंे सत्ता की भाषा अंग्रेजी है। प्रशासन का सारा काम इसी में होता है। अंग्रेजी जानने वाले ही बड़े पदों पर बैठे हैैं। वह नहीं चाहते कि इस देश में हिंदी फले-फूले। उनकी दिली इच्छा होती है कि सरकार का सारा काम अंग्रेजी में हो और उनकी सत्ता बनी रहे। हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषा को यह लोग मूर्खों की भाषा कहते हैं। और पता नहीं क्या-क्या कहा था उस दिन पंडिजी ने।
- फिर हम लोगों को पहली कक्षा से अंग्रेजी क्यांे नहीं पढ़ाई जाती? अमर ने पूछा था।
- यह सरकारी स्कूल है। सरकार की अपनी नीतियां हैं। जब तुम सब छठीं कक्षा मंे जाओगे तो तुम लोगों को भी अंग्रेजी पढ़ाई जाएगी। इसीलिए मैं चाहता हूं कि तुम सब पहले से ही कुछ सीख कर जाओ ताकि आगे तुम्हंे परेशानी न हो।
- सरकारी स्कूल है तो क्या हुआ? जब हमें छठवीं से इसे पढ़ना ही है तो पहली से क्यों नहीं? अमर ने फिर सवाल किया।
- यह तो सरकार ही जाने, लेकिन शहरों में जो पब्लिक स्कूल हैं, उनमें पहली कक्षा से ही अंग्रेजी पढ़ाई जाती है।
- फिर तो वे अंग्रेजी में बहुत तेज होते होंगे?
- हां, एक तरह से अच्छी नौकरियां तो वही हड़प लेते हैं।
- तो क्या हम लोगों को नौकरी नहीं मिलेगी?
अमर चिंतित हो गया। उसकी पढ़ाई का एक ही मकसद एक अदद नौकरी था।
- मिलेगी, लेकिन अच्छी नौकरी नहीं मिल पाएगी? पंडिजी ने कहा।
सभी छात्र गंभीर हो गए और सोचने लगे कि अंग्रेजी पढ़ ही लेनी चाहिए।
 अमर के सामने दिक्कत थी। वह अंग्रेजी तो पढ़ना चाहता था लेकिन उसके लिए कापी-किताब और पेन के लिए पैसा कहां से आए? उसके घर की आर्थिक स्थिति इस लायक नहीं थी कि उसके मां-बाप यह अतिरिक्त भार उठा पाते। फिर भी उसने तय किया कि वह एक बार पिताजी से कहेगा जरूर। क्या पता वे तैयार हो जाएं और कोई इंतजाम कर दें। जैसा इतना करते हैं वैसे एक काम और सही।
शाम को स्कूल से छुट्टी हुई तो अमर इसी बारे में सोचता हुआ घर आया। घर आकर उसने खाना खाया। उस समय उसके पिता रामअवध बाजार गए हुए थे। मां सावित्री खेतों मंे गई थी। घर पर थी उससे बड़ी तीन और छोटी एक बहनें। खाना खाकर वह सीधे खेत की तरफ भागा।
उसके खेत घर के पास ही थे। उसके पिता ने जब चकबंदी हुई तो यहीं पर खेत लिया। यह सोचकर कि घर के पास रहेगा तो घर का कोई भी आदमी खेतों की देखभाल कर सकेगा। हालांकि इस प्रक्रिया में उन्हें घाटा उठाना पड़ा। यह जमीन अच्छी थी। इसकी मालियत अच्छी लगी। उसके पहले जो खेत इधर-उधर बिखरे थे उनकी मालियत कम थी। इस कारण पहले की अपेक्षा जमीन कम हो गई। लेकिन रामअवध को यह संतोष था कि जमीन घर के पीछे है। थोड़ी कम ही सही।
कुछ खेत इधर-उधर भी मिले, लेकिन वे अधिक दिन तक टिक नहीं पाए। आर्थिक हालात बिगड़ते गये और खेत के टुकड़े बिकते गये।
रामअवध चार भाई थे। सभी शादीशुदा और बाल बच्चेदार। लेकिन कमाने के लिए शहर कोई नहीं गया। सभी खेती के सहारे ही रहे। हालांकि इनके पास जमीन बहुत थी लेकिन वह उपजाउ बहुत कम थी। कुछ यह लोग बोने-जोतने में भी लापरवाही बरतते। सिंचाई की भी सुविधा नहीं थी। इस कारण खेती से इतनी कमाई नहीं थी कि 25-26 सदस्यों वाले परिवार का भरण-पोषण हो पाता। ऐसे में जरूरत के समय जमीन का कुछ टुकड़ा बेच दिया जाता। इसका परिणाम यह हुआ कि जब तक अमर वगैरह जवान हुए तब तक जमीन इतनी कम हो गई कि उसे बेचने का मतलब आत्महत्या करने जैसे था। इसके बाद इस घर की युवा पीढ़ी कमाने के लिए शहर का रुखा किया।
आज अमर के भाई व चचेरे भाई विभिन्न शहरों में नौकरी कर रहे हैं। लेकिन किसी को ढंग की और सम्मानजनक नौकरी नहीं मिल पाई। क्योंकि कोई भी जमाने के हिसाब से पढ़ाई नहीं कर पाया। न ही उनका बैकग्राउंड ऐसा था कि उन्हें बेहतर मौका मिलता।
अमर खेत में पहुंचा तो देखा मां-दादी और चाची आलू के खेत में कुछ कर रही हैं। वह सीधा अपनी मां के पास पहुंचा। उसे देखते ही मां बोली।
- स्कूल से आ गए?
- हां।
- अब कहां जा रहे हो?
- कहीं नहीं।
- खाना खाए? सावित्री प्रश्न भी कर रही थी और आलू की मेड़ी पर उगे बथुए को उखाड़ भी रही थीं। शाम को इसी बथुए के साग से रोटी खाने की व्यवस्था की जा रही थी। घर में दाल नहीं थी...। यह बात अमर समझ गया। उसे बथुआ अच्छा नहीं लगता इसलिए उसे एकाएक रात के खाने की चिंता हो आई। वह पूछ बैठा।
- आज बथुआ बनेगा अम्मां?
- हां, दाल नाईबा
- हम ना खाब एका। उसने प्रतिकार किया।
- तोहरे लिए दूध बा।
- दूध भी तो मुझे अच्छा नहीं लगता।
- तो का करें बेटा। दाल बहुत महंगी है। तुम तो जानते ही हो कि इस साल अपने खेत में अरहर नहीं हुई थी।
- बाजार से लाओ न।
- पागल ना बना करो। तोहरे बाबू के पास पैसे नहीं हैं।
यह सुनना था कि अमर को खाने की चिंता की जगह दूसरी चिंता ने आ घेरा। वह सोचने लगा। जब बाबू दाल नहीं खरीद सकते तो मेरे लिए किताब-कापी कहां से खरीदेंगे?
- काउ सोचई ला ग? अम्मां ने उसे सोचने की मुद्रा में देखने के बाद पूछा।
- कुछ नहीं।
- कुछ तो।
- मुझे बीस रुपये चाहिए।
- बीस रुपये!!! आश्चर्य से अम्मां का मुंह खुला का खुला रह गया।
- हां।
- का करोगे?
- अंग्रेजी की कापी-किताब खरीदनी है।
- ई अंग्रेजी का होती है?
- अम्मां ई एक भाषा है। ऐका जानई वालों को नौकरी जल्दी और अच्छी मिलती है।
- अच्छा।
- हां, ऐसा हमरे पंडिजी कह रहे थे। वह हमें इसे पढ़ाने के लिए तइयार हैं।
- लेकिन बीस रुपये अईहें कहां से? तुम तो... सावित्री चुप हो गई। यह सोचकर कि नन्हीं जान क्या समझे हमारी परेशानी।
- अम्मां मास्टर जी कह रहे थे कि यह भाषा पढ़ना बहुत जरूरी होता है। हमें छठी से इसे पढ़ना ही होगा। मास्टर जी कह रहे थे कि वह हम लोगों को अभी से सिखा देंगे ताकि आगे चलकर पेरशानी न हो।
- ई तो ठीक अहई। अपने बाबू से बात करा।
- तू ही कही दा ना।
- ठीक है कह दूंगी।
शाम घिरने लगी थी। अमर की मां, चाची औद दादी खेत से घर की तरफ चल पड़ीं। अमर भी उनके साथ घर आ गया।
अब तक रामअवध बाजार से आ आ गए थे। वे बच्चों के लिए गोली लाए थे। जिसका वितरण बच्चों में हो रहा था। अमर भी पहुंचा तो पहले गोली में अपना हिस्सा बंटाने लगा। -गोली मतलब आधुनिक टॉफी का पुराना वर्जन। दस पैसे की दस गोली आती थी। 
रामअवध ओसारे मंे बिछी चारपाई पर बैठे पानी पी रहे थे। उनके सामने मौनी रखी थी जिसमें गुड़ के चूर शेष थे। दरवाजे पर दीया जला दी गई है। परिवेश पर अंधेरा धीरे-धीरे अपना शिकंजा कसता जा रहा था। आज बिजली बचाने के लिए दुनिया भर में लोग अर्थ ऑवर मना रहे हैं लेकिन इन लोगों के लिए तब और आज भी बिजली एक अजूबा है। यह लोग बिजली के बारे में सोचकर तब भी रोमांचित होते थे और आज भी। हालांकि आज इनके गांव में बिजली आ गई है लेकन वह कब आएगी और कब जाएगी कहा नहीं जा कसता। बिजली का इतना ही उपयोग हो पाता है कि मोबाइल जार्च हो जाता है। लोग कहते हैं कि चलो कम से कम मोबाइल तो चार्ज हो जाता है।
अमर मीठी गोली लेने के बाद अपने बाबू यानी पिता जी के पास पहुंच गया। बाबू ने उसे प्यार से सहलाया। वह चारपाई पर बैठते हुए बोला।
- बाबू आपको अंग्रेजी आती है?
- नहीं।
- तभी तो आपको नौकरी नहीं मिली।
- ठीक कह रहे हो। रामअवध ने हामी भरी। अब तक की दुनियादारी से अंग्रेजी के महत्व को वह समझ गए थे। वैसे उन्होंने पांच जमात शिक्षा हासिल की है। वह पढ़ाई में बहुत तेज थे लेकिन उनके पिता ने उन्हें आगे पढ़ाया ही नहीं। नतीजा वह घर-गृहस्थी में ऐसे उलझे कि कुछ कर ही नहीं पाए।
- मेरे मास्टरजी कह रहे थे कि जिसे अंग्रेजी नहीं आती उसे नौकरी नहीं मिलती।
- ठीकई कहत रहे।
- मेरे मास्टर जी हम लोगों को अंग्रेजी पढ़ाना चाहते हैं।
- पांचवीं में कौन सी अंग्रेजी पढ़ाई जाती है?
- पढ़ाई तो नहीं जाती लेकिन मेरे मास्टर जी पढ़ाना चाहते हैं।
- बेटा अंग्रेजी छठी कक्षा से पढ़ाई जाती है।
- हां, इसीलिए तो, हमारे मास्टर जी पढ़ाना चाहते हैं। वह कह रहे थे कि यदि हम लोग अभी से अंग्रेजी पढ़ लेंगे तो आगे चलकर हमें दिक्कत नहीं होगी। वह यह भी कह रहे थे कि शहर के पब्लिक स्कूलों में शुरू से ही यानी पहली कक्षा से ही अंग्रेजी पढ़ाई जाती है। यही कारण है कि इन स्कूलों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों से आगे निकल जाते हैं।
रामअवध से जवाब देते नहीं बना। अंग्रेजी की महत्ता तो अब तक वह समझ चुके थे। इसलिए उससे इनकार नहीं कर सकते थे। वे अपने बड़े लड़के को अंग्रेजी पढ़ने के लिए हमेशा प्रेरित करते रहे हैं। यही कारण है कि उनका बड़ा लड़का हाईस्कूल और इंटरमीडिएट में अंग्रेजी ऐच्छिक विषय होते हुए भी पढ़ रहा है।
- बाबू ज्यादा नहीं बस दस रुपये चाहिए।
- लेकिन बेटा ....
- ठीक है पांच रुपये ही दे दीजिए। मैं किताब नहीं लेता। किसी दोस्त की मांग लूंगा। वैसे भी आधे से अधिक किताबें तो मांग कर ही पढ़ता हूं। लेकिन कापी और पेन तो चाहिए ना।
- ठीक है, कौनो जुगाड़ करि थ। फिलहाल तो हमरे लगे पइसा नाई बा।
अमर को संतोष हुआ कि बाबू मान गए। उधर बाबू चिंतित हो गए कि पांच रुपये लाएं कहां से?
रामअवध पहले से ही चिंतित थे। बड़ी बेटी की शादी तय कर दी थी, लेकिन खर्चे का इंतजाम नहीं हो पा रहा था। पहले ही बहुत सारे खेत बिक चुके थे अब तो घर के पिछवाड़े वाले खेत रह गए थे। और आठ-दस बीघा इधर-उधर थे। रामअवध इन्हें बेचना नहीं चाह रहे थे। हां रेहन जरूर रख चुके थे। वह भी इस आशा में कि बेटे पढ़-लिखकर कुछ बनेंगे तो छुड़ा लेंगे। बेच देने के बाद तो खरीदना मुश्किल हो जाएगा।
उन्हें किसी ने सलाह दी कि पानी का ट्यूबवेल लगाने के लिए बैंक लोन दे रही है। तुम भी बैंक से लोन लेकर ट्यूबवेल लगवा लो। ट्यूबवेल लगवाने से फायदा यह होगा कि खेतों को पानी मिलेगा, तो उसमें पैदावार बढ़ेगी। पैदावार बढ़ेगी तो आमदनी अपने-आप ही बढ़ जाएगी। कर्ज का क्या है कुछ धीरे-धीरे देते रहना, कुछ बेटे कमाने लगेंगे तो भर देंगे। यह भी हो सकता है कि कोई ऐसी सरकार आ जाए और माफ कर दे। लेकिन बैंक से कर्ज लेने की रामअवध की हिम्मत नहीं पड़ रही थी। उन्होंने बैंक से कर्ज लेने के बाद उसे न चुका पाने पर कइ किसानों के खेतों की नीलामी होते देखी थी।
इस वजह से रामअवध बैंक से कर्ज लेने को राजी नहीं हो रहे थे। वह यह सोचकर घबरा जाते कि सरकार का पैसा है, न चुका पाया तो सारे खेत नीलाम हो जाएंगे, लेकिन इसके अलावा और कोई चारा भी नहीं था। उस आदमी ने इन्हें यह भी समझाया कि देखो अभी तुम दूसरे की ट्यूबवेल से खेत सींचते हो तो उसके कर्जदार हो जाते हो। समय पर पैसा नहीं दे पाते हो तो वह तुम्हारी फसल सुखवा देता है। इससे बहुत नुकसान होता है। अपनी मशीन रहेगी तो तेल डालो और खेत सींच लो। फिर मशीन रहने पर पानी की सुविधा हो जाएगी तो कुछ फसलें ऐसी उगाना जो नकद पैसा दें। उस पैसे से घर का खर्च भी चल जाएगा और लोन भी चुकता हो जाएगा।
रामअवध को यह बात जंच गई और वह दस हजार रुपये का लोन ट्यूबवेल के नाम पर पास करवा लिए। उसमें से पांच हजार तो ट्यूबवेल पर खर्च हो गया। एक हजार रुपया बैंक मैनेजर ने रिश्वत ले ली। बचा चार हजार उसमें से एक हजार खाने पीने के लिए हो गया। एक हजार में कुछ कर्ज चुकता कर दिये। शेष राशि से बेटी की शादी कर दी।
इसी में से उन्होंने अमर को किताब-कापी के लिए भी दस रुपया दे ही दिए।
अमर ने दस रुपया लाकर मास्टर जी को दे दिया। लेकिन बात बन नहीं पाई। पचास-साठ बच्चों की कक्षा में से केवल 17 बच्चे ही अंग्रेजी पढ़ने के लिए तैयार हुए। बाकी के मां-बाप ने मना कर दिया। मास्टर जी ने फिर भी हिम्मत नहीं हारी। वे अंग्रेजी पढ़ने वाले बच्चों की अलग से क्लास लेने लगे। इस कारण स्कूल मंे ही उनके साथ के अध्यापक विरोध पर उतर आए। उन्हांेने इसकी शिकायत हेडमास्टर से कर दी। वह हेडमास्टर भी इन्हें नैतिकता का पाठ पढ़ाने लगा, जोकि स्कूल न आकर अपनी कापी-किताबों की दुकान संभालता था। मास्टर जी उसकी इसी दुखती रग को दबाया भी। लेकिन बात वैसे ही नहीं बन पा रही थी। कोर्स का बहुत सारा काम रहता, ऊपर से अंग्रेजी पढ़ाना उनके लिए संभव नहीं हो पा रहा था। पहले तो 17 बच्चे ही शामिल हुए धीरे-धीरे उनकी भी दिलचस्पी कम होती गई और दो महीने बाद तो सात बच्चे ही रह गए। लिहाजा मास्टर जी ने सभी को अंग्रेजी पढ़ाना बंद कर दिया। इस तरह एक ज्योति जलने से पहले ही बुझ गई। लेकिन इन बच्चों के मन मंे इस भाषा का एक खौफ और जिज्ञासा घर कर गई। हां, ये बच्चे ए बी सी जरूर सीख गए।
अमर अतीत के पन्ने पलटते-पलटते सो गया था। उसकी नींद तब खुली जब बच्चे दोपहर को स्कूल से आ गए। उसने घड़ी की तरफ देखा तो पूरे डेढ़ बज रहे थे। वह आंख मिचमिचाता हुआ बैठ गया। उसे देखकर बड़ा लड़का बोलाµ
- पापा आज मुझे अंग्रेजी में गुड मिला है।
- अच्छा, दिखाओ।
- और मुझे भी पापा। छोटा वाला कहां पीछे रहने वाला था।
- ठीक है अपनी-अपनी कापी दिखाओ। बच्चों ने आदेश का पालन किया। बिना स्कूल की ड्रेस उतारे ही बस्ता खोलकर अपनी-अपनी कापी लेकर हाजिर हो गए।
अमर ने दोनों बेटों की कापी देखी। वाकई उन्हें गुड मिला था। गुड मिलने से बच्चे तो खुश थे ही अमर को भी खुशी हुई। हालांकि उसे बच्चों की राइटिंग पसंद नहीं आई फिर भी उसने कहा।
- ऐसे ही मेहनत करते रहो। और कोशिश करो कि क्लास ही नहीं स्कूल में पहले स्थान पर आओ।
- जी पापा। कह कर बच्चे फिर से कापी को बस्ते के हवाले किए और हाथ-धोकर खाना खाने में जुट गए। अमर भी उठकर फ्रेश होने चला गया।
टॉयलेट में बैठा अमर यही सोचता रहा कि बच्चों को अंग्रेजी परिवेश तो मिल नहीं रहा है इस कारण इनमें वह संस्कार नहीं आ पाएगा जैसा कि अंग्रेजी मीडिएम पढ़ने वाले बच्चों का होता है। इसका कारण यह था कि बच्चे एक घटिया दरजे के सस्ते हिंदी माध्यम स्कूल में पढ़ रहे थे। अमर का वेतन ही इतना कम था कि वह महंगे स्कूल का खर्चा वहन नहीं कर सकता था। हां, एक बच्चा होता तो वह प्रयास भी कर सकता था। लेकिन एक साथ दो-दो बच्चे का किसी अच्छे स्कूल में एडमिशन कराना उसके बूते की बात नही थी।
दूसरे घर का माहौल भी हिंदी वाला ही था। नेहा अनपढ़ थी तो अमर को समय ही नहीं मिलता था। वैसे भी इस भाषा से वह बचता था। वह अक्सर अंग्रेजी के शब्दों को बोलने से बचता। ऐसे में उसके बच्चों को माहौल कहां से मिलता?
- लैट्रिन में ही बैठे रहोगे क्या? बाहर से नेहा ने आवाज दी तो, अमर को ख्याल आया कि वह लैट्रिन में बैठा है
- अमर बाहर निकलो। अनिल बाथरूम का दरबाजा पीटते हुए चिल्लाया तो अमर को होश आया कि वह नहाने आया था। उसने शॉवर को बंद किया। तौलिये से खुद को पोंछा। बाथरूम में लगे शीशे में खुद को देखा, तो यकीन हुआ कि वह अमर ही है। जो अतीत के जंगलों खो मंे गया था। वर्तमान में वह नहाने आया था। हालांकि वह नहा चुका था। अमर के बाहर निकलते ही अनिल का लेक्चर शुरू हो गया कि इतना मत सोचा कर यार। किसी दिन बडी दुर्घटना कर बैठोगे। इस तरह सोचते हुए सड़क पर चले तो एक्सीडंेट वगैरह हो जाएगा। दिल्ली की सड़कों पर ट्रैफिक का बुरा हाल है। अपने आपको संभालो यार। यह तो हम लोग हैं कि तुम्हें बार-बार वर्तमान में ला रहे हैं। नहीं होते तो तुम तो नहाते ही रहते।
- अरे नहीं यार अतीत में भी पत्नी ने आवाज लगा दी थी। उस समय लैट्रिन में बैठा कुछ सोच रहा था। उसकी आवाज से तंद्रा टूटी ही थी कि तुमने आवाज लगा दी।
- ओमप्रकाश तिवारी

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