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कशिश और तपिश

आपने तो अच्छा विश्लेषण किया मेरा। लेकिन आपको जानना चाहिए कि मैं ऐसा क्यों हंू? शायद इसके लिए मेरे हालात जिम्मेदार हों लेकिन मैं निराशावादी नहीं हूं। मैं भाग्यवादी भी नहीं हूं। जो हो रहा है भाग्य में लिखा था, यह मानकर नहीं चलता। ईश्वर की मर्जी है, जो करेगा, भगवान करेगा। जो देगा भगवान देगा। ऐसे बेवकूफी भरे तर्कों-शब्दों की जगह मेरे शब्दकोश में नहीं है।
 
अंधेरे कोने
 
भाग सात
कशिश और तपिश
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अमर कमरे मंे अकेला है। अनिल ड्यूटी पर गया है। सागर नौकरी की तलाश में गया है। अमर को जालंधर जाना था लेकिन उसने जाना दो दिन के लिए टाल दिया है। उसने यह फैसला क्यों लिया, वह खुद भी नहीं समझ पाया। समय गुजारने के लिए वह टीवी देख रहा है। आम चुनाव के बाद सत्ता में वापसी करने वाली पार्टी का वित्तमंत्री बजट भाषण पढ़ रहा है। वित्तमंत्री भाषण अंग्रेजी में पढ़ रहा है। टीवी चैनल वाले उसका हिंदी तर्जुुमा करके अपने दर्शकों के सामने परोस रहे हैं।
अमर की निगाह टीवी पर थी लेकिन दिमाग कहीं और था। वह सोच रहा था कि जिस देश में 70 प्रतिशत लोग हिंदी भाषी हों उस देश का वित्तमंत्री वजट भाषण अंग्रेजी में पढ़ रहा है। इस देश के लिए इससे बड़ी विडंबना और शर्मनाक स्थिति क्या हो सकती है। हिंदी भाषियों का इससे बड़ा अपमान और क्या हो सकता है? हिंदी भाषियों ने इस सरकार को सत्ता दिलाई तो क्या यह सरकार उनका इस तरह अनादर करेगी? उनके सम्मान को ठेस पहंुचाएगी? जनता की सरकार जनता की भाषा में बात क्यों नहीं करती? अंग्रेजी की गुलामी करते-करते कुछ लोगों की मानसिकता भी दासों और गुलामों वाली हो गई। यह मानसिकता इनके डीएनए में स्थायी रूप से समाहित हो गई है। जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ रही है।
वित्तमंत्री जिस प्रदेश का है उस प्रदेश की भाषा में भी तो अपना बजट भाषण पढ़ सकता था। लेकिन उन्हें न तो अपनी मातृभाषा का ख्याल है न ही देश के नागरिकों के स्वाभिमान का।
आम बजट से पहले रेलमंत्री ने भी अंग्रेजी में ही भाषण पढ़ा। वह भी उसी प्रदेश से हैं जहां से वित्तमंत्री महोदय हैं। उन्हें अपनी मातृभाषा पर गर्व है लेकिन सदन में उनका अंग्रेजी मोह समझ में न आने वाली पहेली बनकर रह गया।
रेल बजट हो या आम बजट दोनों ही आम जनता के लिए बनाये जाते हैं। इसलिए सरकार को चाहिए कि ये आम भाषा में ही प्रस्तुत किए जाएं। लेकिन जब सरकार ही आम जनता के लिए नहीं है तो आम लोगों की भाषा में वह क्या बात करेगी? यह कितना हास्यास्पद है कि जनता द्वारा चुनी गई सरकार उसकी भाषा में बात नहीं करती। काम भी नहीं करती।
अमर बीच-बीच में चैनल बदल कर सभी चैनल देख लेता। बजट भाषण सुनने में उसकी दिलचस्पी नहीं थी लेकिन मोटा-मोटी जानकारी वह जरूर जानना चाहता था इसलिए टीवी से चिपका रहा।
बजट भाषण के बाद पत्रकारों ने प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया ली तो उन्होंने बड़े गर्व से अंग्रेजी में कहा कि यह बजट भारत और इंडिया के बीच बढ़ती खाई को पाटने का काम करेगा...।
प्रधानमंत्री के बयान पर अमर को हंसी आ गई। प्रधानमंत्री भी जिस प्रदेश के हैं उसकी अपनी एक भाषा है। साहित्य है। लेकिन उन्होंने न तो अपने प्रदेश की भाषा का ख्याल किया न ही देश की भाषा। बोले तो अंग्रेजी में। पीएम के विदेशी भाषा के इस मोह पर ही अमर को हंसी आ रही थी।
अमर को याद आया कि आम चुनाव के दौरान सत्ता और विपक्ष की तरफ से सड़कांे के किनारे लगे होर्डिंग में इबारत अंग्रेजी में ही लिखी गई थी। लेकिन इस सरकार को तो आम लोगों ने वापस सत्ता में लाया है। इस सरकार के मंत्री यह भूल गये कि जनता से संवाद उसकी भाषा में ही किया जा सकता है। जब वोट लेना होता है तो नेता लोग हिंदी या स्थानीय भाषा में बातें करते हैं। लेकिन जब जीतकर संसद में पहुंच जाते हैं तो वह हिंदी और स्थानीय भाषा को भूल जाते हैं।
प्रधानमंत्री ने भले कहा कि यह बजट भारत और इंडिया की दूरी को कम करने वाला है लेकिन बजट से ऐसी उम्मीद करना मूर्खता ही होगी। कुछ योजनाएं बना देने भर से भारत की तस्वीर नहीं बदलती। इंडिया की अपेक्षा भारत की तस्वीर बेहद बेरंग और बदरंग है। उसे इंडिया की तरह रंगदार बनाने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत है। जो इस सरकार के पास नहीं है। इसके लिए अंग्रेजी और इंडिया की मानसिकता से आजाद होना होगा।
डोर बेल बजी तो अमर का विचार प्रवाह रुक गया। वह दरवाजा खोलने के लिए नीचे गया। गेट खोलते ही वह अवाक रह गया। एक पल को लगा कि वह क्या प्रतिक्रिया जताए। लेकिन जल्दी ही अपने को संभाल लिया।
- आप! यहां!
- क्यों! मैं यहां नहीं आ सकती?
- क्यों नहीं आ सकती। आओ अंदर आओ। यह वाक्य बोलने में अमर को पसीना आ गया। उसे डर था कि अनिल के माकन मालिक इस बात का बतंगड़ न बना दें। छड़ेछांट रह रहे लड़कों के कमरे में लड़की आये इसे इस समाज के लोग पचा नहीं पाते। तरह-तरह की बातें उड़ने-फैलने लगती हैं। क्यों आयी? कौन है? क्या संबंध हैं? कितनी देर रही? क्या किया? बाहर मिला करो। यहां सभ्य लोग रहते हैं। वगैरह-वगैरह।
- मेरे आने से खुश नहीं हो?
अनु ने अमर की स्थिति को देखने के बाद सवाल कर दिया।
- नहीं ऐसी बात नहीं है।
अमर ने लगभग हकलाते हुए जवाब दिया। वह आने वाली स्थिति की कल्पना करके ही घबरा गया था।
- फिर इतने घबराए हुए क्यों हो?
- हम भारत में रहते हैं आपकी इंडिया में नहीं। यहां किसी लड़के के कमरे में लड़की आये तो उसे लोग शक की निगाह से देखते हैं। अमर ने अपनी आशंका साफ-साफ जाहिर कर दी।
- देखते हैं तो देखते रहें। लोगों की परवाह कौन करता है।
- हमारे गांव में एक कहावत है कि उड़ने को आटा उड़ गई चक्की। हमारे समाज में ऐसा अक्सर हो जाता है। तिल को ताड़ बनने में देरी नहीं लगती।
- ठीक है, मैं चली जाती हूं। मेरे आने से इतनी परेशानी है तो। एक तो मोबाइल बंद रखते हो और घर आ गई तो ऐसे डर गये जैसे भूत देख लिया हो।
अनु जाने के लिए खड़ी हो गई।
- आप तो बुरा मान गईं। मोबाइल रोमिंग में है। बैलेंस खत्म हो गया तो बंद हो गया। रही बात डरने की तो मैं डर नहीं रहा हूं। डरने की कोई वजह भी नहीं है। खैर छोड़ो इस बात को बताओ क्या लोगी ठंडा या चाय?
- कुछ भी नहीं। चलो बाहर चलते हैं।
अनु ने कमरे में घुटन महसूस की। उसने सोचा क्यों न चलकर किसी पार्क या रेस्टोरेंट में बैठा जाए। और नहीं तो मैट्रो की ही यात्रा की जाए। इन जगहों पर सामान्य तरह से कुछ बातें तो की जा सकेंगी।
अनु का प्रस्ताव अमर को अच्छा लगा। उसने सोचा मैडम जब तक कमरे में रहेंगी तब तक वह सहज नहीं हो पाएगा। उसको क्या है। वह तो चला जाएगा। लेकिन उसका दोस्त मुश्किल में फंस जाएगा। कमरे में लड़की लाने के आरोप में मकान मालिक कमरा खाली करा सकता है। इस डर के मारे अनु का प्रस्ताव मिलते ही अमर ने राहत की सांस ली। तैयार होकर दोनों घर से बाहर आ गये।
गली में अनु की कार खड़ी थी। अनु ड्राइविंग सीट पर बैठी और अमर उसकी बगल में बैठ गया। कार का एसी चलते ठंडी हवाओं के झोंके उन्हें अपनी आगोश में लेने लगे। कुछ पल में ही पूरी कार ठंडी हो गई। अमर ने मन ही मन कहा कि गर्मी में ठंडी का एहसास। गर्मी में इस तरह का वातावरण मिलना किसे अच्छा नहीं लगता। यह और बात है कि एसी कार वालों ने वातावरण में प्रदूषण फैला रखा है। अपने सुख के लिए कुछ लोग करोड़ों लोगों को बिलबिलाने के लिए छोड़ देते हैं।
अमर को एक दिन पहले की घटना याद आ गई। वह पैदल ही सड़क पर चल रहा था। एक खड़ी कार के पास से गुजरा तो लगा जैसे जलती भट्टी के पास चला गया है। कार चालू थी। उसका एसी चल रहा था। उसमें बैठा आदमी खुश था। फोन पर किसी से हंस-हंस कर बातें कर रहा था लेकिन उसकी कार के पास से गुजरने वाले लोग परेशान हो रहे थे। अमर ने सोचा कार का इंजन प्रदूषण उगल रहा है। उससे पर्यावरण को कितना नुकसान हो रहा है। पर्यावरण का नाश एसी वाली कारें और घरों व दफ्तरों में लगे एसी कितना करते हैं इसका अंदाजा उसे इस्तेमाल करने वाले नहीं लगा पाते। मामला जब हद पार कर जाता है तो यही लोग पर्यावरण प्रेमी बनकर गरीबों को ज्ञान देते हैं। कहेंगे कि तेल बचाओ अगली पीढ़ी के लिए। अर्थ ऑवर बनाएंगे। एक घंटे बिजली गायब करके अंधेरे का मजा लेते हैं। कोई इनसे यह नहीं पूछता कि जो सदा अंधेरे में रहते हैं। वह क्या करें। अरे भाई पहले उनके अंधेरे के टापुओं को उजाले की रोशनी से रोशन तो करो। बिजली तो वह बाद में बचा लेंगे। पहले उपभोग तो करने दो। लेकिन नहीं फिर यह लोग ज्ञान देने लगते हैं कि उनके चूल्हें में जलने वाली लकड़ी से इतना प्रदूषण फैल रहा है कि पर्यावरण सांस लेने लायक नहीं रह जा रहा है। गर्मी बढ़ रही है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। यह सब रोकना होगा। मानव सभ्यता को बचाने के लिए। कोई इनसे यह नहीं पूछता कि अरे भाई मानव सभ्यता को खतरे में किसने डाला? जो सारे संशाधनों का उपभोग कर रहा है वह या जो तरस रहा है वह?
- कहां खो गये? अनु ने पूछा तो अमर का ध्यान भंग हुआ।
- कहीं नहीं। अमर ने अनु को देखते हुए कहा। इतनी देर में पहली बार उसने अनु को भर नजर देखा। स्लीव लेस शर्ट और नैरो जींस में वह बेहद खूबसूरत लग रही थी। परफ्यूम की खुशबू से सुगंधित थी। 
- आप झूठ बहुत बोलते हैं।
अनु ने कार ड्राइव करते हुए कहा। कार गली में धीमी गति से चल रही थी, क्योंकि एक तो गली पतली थी ऊपर से गली में अपने-अपने घर के सामने लोग कार-बाइक खड़ी कर रखे थे। इससे रास्ता संकरा हो गया था। बहुत बचाकर कार चलाना पड़ रहा था। अनु का ध्यान ड्राइंविंग पर ही था। लेकिन अमर से संवाद बनाने के लिए वह बोले भी जा रही थी।
- ये कैसे जाना?
- अभी-अभी जाना।
- कैसे?
- कहीं खोये हुए थे लेकिन पूछा तो मना कर दिये। इससे जाना।
- ठीक पकड़ा। खोया तो कहीं था लेकिन कहां यह बता नहीं सकता।
- क्यों?
- हर क्यों का जवाब नहीं होता मैडम।
- हां, यदि आदमी बताना न चाहे तो...।
अचानक तेज ब्रेक के साथ कार रुक गई। सामने तीन-चार कुत्ते एक कुतिया के पीछे पड़े थे...। कुत्तों में कुतिया को पाने के लिए युद्ध चल रहा था। अनु ने कई बार हार्न बजाया लेकिन उन पर कोई असर नहीं हुआ। अंततः सबसे ताकतवर कुत्ते ने सभी को खेद दिया और कुतिया से रतिक्रिया करने लगा...।
अमर और अनु यह दृश्य देख रहे थे। अनु ने अमर की तरफ देखा तो अमर ने अनु की तरफ। दोनों मुस्कुरा पड़े। अनु ने हार्न बजाते हुए कार आगे बढ़ाई और अमर ने अपने मोबाइल से संभोग रत श्वान की फिल्म बनाने लगा। 
- यह क्या रहे हो?
- फिल्म बना रहा हूं।
- क्या करोगे?
- खाली समय में देखेंगे।
- कितनी घटिया सोच है।
- शायद आप नहीं जानती कि इस क्लिपिंग से अच्छा खासा धंधा भी किया जा सकता है।
- कैमरा लेकर फिर कुत्तों के पीछे पड़ जाओ। किस्मत चमक जाएगी।
- किसकी? कुत्तों की?
- नहीं, आपकी।
- ठीक कह रही हो, कुत्तों की किस्मत कुत्ते ही चमका सकते हैं।
- कभी-कभी ऐसी बातें करते हो कि एकदम इडियट लगने लगते हो।
- ठीक पहचाना आपने। लगता नहीं बल्कि हंू।
- इरादा क्या है?
- बिल्कुल नेक।
- मुझे तो नहीं लगता।
- फिर सावधान रहना।
कार मुख्य सड़क पर आई तो अनु ने राहत की सांस ली। अकस्मात ही उसके मंुह से निकल गया।
- माई गॉड! कैसे रहते हैं लोग?
- रहते नहीं हैं मैडम, जीते हैं। जीना मजबूरी है। या तो लोग आत्महत्या कर लें या फिर इसी तरह जीवन जिएं। अभी-अभी आपने गली में जो दृश्य देखा। उतना ही अश्लील, मनोरंजक और कलात्मक है यहां के लोगों का जीवन। ये लोग सरकार बनाते हैं। अपने लिए प्रतिनिधि चुनते हैं, लेकिन सरकार इन्हें उजाड़ तो सकती है पर बेहतर जीवन जीने के लिए बसा नहीं सकती। यह ऐसी हकीकत है जिससे देश की लगभग 70 प्रतिशत जनता वाकिब है। फिर भी वह वोट देती है। सरकार चुनती है। उसके वोट से सरकार बनती है। नेता जीतता है और लखपति से करोड़पति, करोड़पति से अरबपति बन जाता है लेकिन उन्हीं पांच सालों में जनता की जिंदगी मेें सिवाय बदहाली के और कोई परिवर्तन नहीं आता।
 एक ताजा अध्ययन में यह खुलासा हुआ है कि इस देश में 46 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। यानी आने वाली आधी आबादी कुपोषित है। जानती हैं कुपोषण एक ऐसी अवस्था है जिसमें व्यक्ति अपने शरीर की प्राकृतिक क्षमताओं, मसलन-वृद्धि, गर्भवस्था, सीखने की क्षमता, शारीरिक कार्य और बीमारियों से लड़ने और उनसे उबरने वाली क्षमताओं को बरकरार नहीं रख पाता। बताइये ऐसे बच्चे या युवा वैसे लोगों से क्या मुकाबला करेंगे जो सेहतमंद हैं। बचपन से ही कुपोषित लोग अपने लिए क्या भविष्य सृजित कर सकते हैं? उनकी सभी क्षमताओं का पहले ही क्षरण हो चुका होता है। इस देश में बीमार और सेहतमंद के बीच प्रतियोगिता है। ऐसे में जाहिर है परिणाम किसके पक्ष में जाएगा। बीमार लोग लाख संघर्ष कर लें लेकिन वह सेहतमंद का मुकाबला नहीं कर सकते। उनकी जिंदगी में पराजय और केवल पराजय ही है। उनके सपनों पर पैदा होते ही ग्रहण लग जाता है। ऐसे लोगों के लिए हमारी सरकार कुछ नहीं करती। उसकी दिलचस्पी पूंजीपतियों को अधिक से अधिक सुविधाएं देने में ही रहती है। यही कारण है कि देश में अमीर और गरीब दोनों बढ़ रहे हैं। देश में अमेरिका के बाद सबसे ज्यादा अरब-खरबपति हैं। वहीं गरीबी भी दुनिया में सबसे ज्यादा है।
सर्वे हमें बताता है कि आर्थिक प्रगति ने करीब पांच करोड़ लोगों को सुखी सम्पन्न बनाया है लेकिन लगभग 88 करोड़ लोग प्रतिदिन दो अमेरिकी डॉलर यानी करीब 84 रुपये रोज से कम की दिहाड़ी पर जीने को मजबूर हैं।
यदि इसे सच मान लिया जाए तो फिर भी गनीमत है लेकिन एक अन्य अध्ययन कहता है कि 77 प्रतिशत भारतीय 20 रुपये रोज से कम पर गुजारा करते हैं। 86 प्रतिशत भारतीय 20 रुपये रोज से कम कमाते हैं। भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई में 60 प्रतिशत से अधिक आबादी झुग्गी-झोपड़ियों में रहती है।
- हालात बहुत चिंतनीय हैं। लेकिन ऐसा देखने में नहीं आता। सड़कों पर कारों और मोटरसाइकिलों की बाढ़ है। अनु ने कहा।
- सड़कों पर कितनी गाड़ियां हैं? इसी दिल्ली में गाड़ियों से अधिक लोग सड़क के किनारे फुटपाथों  पर सोते हैं। झुग्गी-झोपड़ियों की तो बात ही छोड़ दो। जितने लोग रोज मैटरो में चलते हैं उससे ज्यादा लोग सड़कों-चौराहों पर दिहाड़ी के लिए श्रम बेचने को खड़े होते हैं हर रोज सुबह-सुबह।
लेकिन इस तरफ सोचने की फुर्सत किसी के पास नहीं है। एक तो सरकार इनके लिए कुछ करती नहीं और यदि कोई योजना बना भी देती है तो उसे नौकरशाह ही हजम कर जाते हैं। उसका लाभ इन लोगों तक पहुंचता ही नहीं है। देखना यह है कि लोग ऐसी नारकीय जिंदगी कब तक जीते हैं। एक न एक दिन इनकी समझ में आएगा फिर जो होगा उसकी कल्पना भी शायद अभी किसी ने नहीं की होगी।
- आप इसके लिए किसे दोषी मानते हैं!
- कोई एक नहीं है। पूरा एक वर्ग है। इन लोगों को यह समझना चाहिए कि मानव को आमनवीय स्थिति में जीने के लिए मजबूर करने से बड़ा कोई अपराध नहीं है। जो ऐसा कर रहे हैं। वह किसी भी तरह से क्षमा के योग्य नहीं हैं। वक्त शायद उन्हें माफ भी न करे।
- यह सब आप मुझे क्यों सुना रहे हैं?
- मैं आपको नहीं सुना रहा। आपने एक सवाल किया था तो उसका जवाब दे रहा था।
- जवाब था कि यूएन में पढ़ी जानी वाली स्पीच।
- हकीकत बयां की तो आपको भाषण लग रहा है। इसमें आपका दोष भी नहीं है। यह आपकी वर्गीय समझ है। आप लोग हकीकत से रू-ब-रू होना ही नहीं चाहते। हमेशा अपने हित की ही सोचते हैं। अपने समाज के बारे में सोचते हैं। कुछ गरीबों के बारे में सोचें तो देश का, समाज का कल्याण हो जाए।
- आप तो हर बात पर मुझे ही निशाने पर रखते हैं।
- सवाल तो आप करती हैं फिर जवाब किसे दें?
- इस साल अभी तक मानसूनी बारिश नहीं हुई? अनु ने बात बदलने के लिए संवाद ही बदल दिया।
- अपनी सुविधाओं के लिए आदमी ने नेचर से उसकी प्रकृति ही छीन ली। ऐसे में हम कैसे उमीद करें कि कुदरत हम पर हमेशा मेहरबान रहेगी। दुनिया के  मुठ्ठी भर लोगों के स्वार्थ के कारण अधिकांश आबादी कुदरत के कहर को झेलने के लिए अभिशप्त और मजबूर है।
- कहना क्या चाहते हैं?
- यही की कुछ लोग अपनी सुख-सुविधा के लिए तमाम तरह के संसाधनों का उपभोग कर रहे हैं। उससे विभिन्न तरह का प्रदूषण फैल रहा है। जिसकी मार साधन सम्पन्न लोगों को नहीं पड़ रही है। झेल तो गरीब जनता रही है।
छोटा सा उदाहरण आपकी कार है। इसमें एसी लगी है। बाहर आसमान से आग बरस रही है लेकिन इस कार में बैठे हुए हमें कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। इसी सड़क पर पैदल चलने वाले, बस से, साइकिल या बाइक से चलने वालों से पूछिये। वह बताएंगे कि गर्मी क्या होती है? आप तो अभी एसी कार में हैं। घर में भी एसी लगी है। बिजली नहीं होगी तो जनरेटर चला लेंगे। लेकिन उन सब से पूछिये जो बिना बिजली के पंखा भी नहीं चला पाते। इस भयानक गर्मी में कीड़े-मकोड़े की तरह बिलबिला रहे हैं। उनकी इस दशा के लिए जिम्मेदार कौन है?
- हम हैं।
अनु ने अमर की तरफ देखते हुए कहा।
- इसमें कोई शक नहीं कि भारत में जो इंडिया बन गया है वही भारत के लोगों की समस्याओं के  लिए जिम्मेदार है। भारत के संसाधनों पर इंडिया के लोगों ने कब्जा कर लिया। वे उसका अपने तरीके से उपभोग कर रह हैं और उसका दुष्परिणाम भारत के लोगों को भुगतना पड़ रहा है।
- मैं भी बड़ी विचित्र हूं जो मुझे अपना दुश्मन समझता है उसी के साथ घूमने निकली हूं।
- आप गलत समझ रही हैं।
- इतनी नादान भी नहीं हंू।
- इसीलिए तो इतनी हसीन हैं।
- इरादा तो नेक है न?
- क्या मतलब?
- कहीं मौका पाकर काम तो तमाम नहीं कर दोगे?
- काम तो तमाम करना है लेकिन मौका तो दो।
अमर ने अनु को देखते हुए यह बात अपने आप से कही।
- देख क्या रहे हो? जान लोगो क्या?
- ऐसी हसीना की कौन कमबख्त जान लेना चाहेगा? कमीने से कमीना भी इन जुल्फों की छांव में कुछ पल बिताना चाहेगा। झील सी आंखों में डूब जाना चाहेगा...।
- बस-बस शायर मत बनिये। शादीशुदा हो। तीन बच्चे के पिता हो और इस तरह की बातें कर रहो हो?
अनु का वाक्य अमर को अपने गाल पर झापड़ सा लगा। उसकी सारी मस्ती बरसाती बुलबुले की तरह खत्म हो गई। वह चुप हो गया और अपनी साइड की खिड़की से बाहर की तरफ देखने लगा। अमर की खामोशी सेे अनु को एहसास हुआ कि उसने कुछ गलत कह दिया। हालांकि वह अभी भी नहीं समझ पा रही थी इसमें गलत क्या है? अमर यदि मजाक कर रहा था तो उसने भी मजाक कर दिया। इसमें इतना सीरियस होने की क्या बात है? इन्हीं बातों में खोई वह कार चलाती रही।
अमर व्यथित है। वह अपनी स्थिति से अवगत था लेकिन जाने अनजाने वह अनु को प्यार करने लगा है। उसे अनु की संगत अच्छी लगने लगी है। हालांकि वह जानता है कि यह संगत एकदम असंगत है। इसका परिणाम कुछ भी हो लेकिन सुखद नहीं हो सकता। परंुत दिल था कि मानता ही नहीं है।
अनु ने बेशक बात को मजाक में कहा लेकिन इसे अमर ने अपनी बेइज्जती समझी। उसे आत्मग्लानी भी हुई कि वह एक ऐसे रास्ते पर चलने की कोशिश कर रहा है जो सही नहीं है।
मैंने ऐसा क्यों किया? क्या किसी लड़की को भुलाया नहीं जा सकता? वह सोचता कि अनु से उसकी दोस्ती ही रहे। वह किसी न किसी बाहने से अनु से जुडा रहना चाहता था। अपनी जिंदगी में किसी लड़की के लिए पहली बार वह इतना बेचैन हुआ था।
हालांकि एक लड़की की आंखें उसे आज तक नहीं भूलतीं। उस समय वह एक कार्यशाला में भाग लेने चित्रकूट जा रहा था। रास्ते में एक जीप पर बैठा तो दिल जोर से धक् करके रह गया। दो ऐसी आंखें उसके नयनों से चार हुईं जिसे देखते ही वह देखता रह गया।
गाय की आंखों के समान उस लड़की के नयन अमर के दिल दिमाग मंे किसी कील की तरह तिरछे धंस गये। वह पूरे रास्ते उन्हें ही निहारता रहा। उस समय वह इसी में खुश था कि वह ऐसे नयन का दर्शन कर रहा है जो दुर्लभ हैं। अनमोल हैं।
जब वह जीप से उतर गया और जीप लड़की को लेकर भीड़ मंे गुम हो गई तो उसे लगा कि वह लुट गया है..। उसे किसी ने जगाकर पीटा है। उसने जीप की तरफ भागने का प्रयास किया। लेकिन सब बेकार..।
तीन दिन कार्यशाला में वह उदास और बेचैन रहा। वही दो आंखें हर-पल उसके सामने आ जातीं। उनमें चाहत भरी उलाहना होती जिसे अमर बर्दाश्त न कर पाता।
कार्यशाला के अंतिम दिन उसका दल चित्रकूट के एक विश्वविद्यालय को देखने गया। यहां एक क्लास में वही आंखें उसे फिर दिख गईं। लेकिन विवशता ऐसी कि वह अपने साथियों और वरिष्ठों के साथ था तो मृगनयनी क्लास में थी। चाहकर भी वह कुछ नहीं कर पाया। हालांकि उसने बहुत कोशिश कि वह एक बार उसकी तरफ देख ले तो उसे इशारा करके बाहर बुला लेगा लेकिन उन आंखों में जुंबिश तक नहीं हुई। वह निराश होकर दिल्ली आ गया।
बहुत दिन तक वह उदास और बेचैन रहा। वही दो आंखें उसे परेशान करती रहीं लेकिन धीरे-धीरे स्थिति सामान्य हो गई। तब से अब तक जब भी उन आंखों की याद आती है वह बेचैन हो जाता है। इस आकर्षण और उससे उपजी बेचैनी को वह आज तक कोई नाम नहीं दे पाया। कई बार कविता-कहानी लिखने का प्रयास किया लेकिन शब्द ही साथ छोड़ जाते। भावनाएं हिमखंड हो जातीं। उन दो आंखों की तरह इस अनु को भी भूलना होगा। इसकी भी यादें दिल के दरिया में दर्द की सरिता बनकर बहती रहेंगी।
अमर की चुप्पी ने अनु को बेचैन कर दिया। वह सोच रही थी कि अमर कुछ बोल क्यों नहीं रहा है? उसे यह एहसास तो था कि शायद उसकी बात अमर को बुरी लग गई है लेकिन वह सोच रही थी कि मजाक में कही बात को क्या अमर इतना दिल पर लेगा। फिर सोचा कि शायद यह मेरा परीक्षण कर रहा है। मैं भी देखती हंू कि कब तक नहीं बोलता है। जब काफी देर तक अमर की तरफ से कोई हरकत नहीं हुई तो अनु ने कार को सड़क के किनारे रोक दिया।
- क्या मैं इतनी बोरिंग हूं?
- क्यों? क्या हुआ?
- मुझे नहीं आपको कुछ हुआ है।
- नहीं ऐसी बात नहीं है।
- यदि कोई बात नहीं है मिस्टर राइटर तो इतने खामोश क्यों हो गये?
- कोई खास वजह नहीं है।
- लेकिन कोई वजह है?
- वजह भी कोई नहीं है।
- फिर मुंह फेर कर क्यों बैठ गये?
- बाहर का दृश्य अच्छा लग रहा था।
- ओह, आई सी, तो मैं इतनी बुरी हूं। अनु ने सीधा हमला किया। दरअसल उसे अमर के जवाब से दुख पहुंचा था। उसे लगा कि यह उसकी और उसके सौंदर्य की उपेक्षा है, जिसे वह बर्दाशत नहीं कर पाई और तिलमिला गई।
- मैंने तो यह नहीं कहा।
- बहुत बातें बिना कहे ही कह दी जाती हैं। अनु ने बाहर देखते हुए कहा। अमर को अुन का यह अंदाज अच्छा लगा। वह मुस्वुफरा पड़ा।
- लोग तो अपनी अनदेखी भी बर्दाश्त नहीं कर पाते लेकिन दूसरे की भावनाएं भी नहीं समझते। अमर ने अनु को लक्ष्य करके कहा।
- दूसरे भी कौन दूसरे की भावनाओं को समझते हैं। अपने सिद्धांत और विचार के हथियार से घाव ही देते हैं। अनु ने भी प्रहार किया।
- मेरी किसी बात से आपकी भावनाओं को ठेस लगी हो तो मैं माफी चाहता हूं लेकिन मेरा इरादा आपको आहत करने का नहीं था। कई बातें प्रसंग वश हो जाती हैं।
- सॉरी। मुझे भी माफ कर दो शायद मैं भी गलत थी। बात पटरी पर आते देख अनु ने भी हथियार डाल दिये। वह नहीं चाहती थी कि अब फिर बात बिगड़ जाए।
माफी मांगने के बाद दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा और मुस्कुरा पड़े। दोनों की इच्छा हुई कि वह एक दूसरे के गले लग जाएं लेकिन दोनों ने ही अपनी भावनाओं पर काबू रखा। उमंगें उमड-घमड़ कर बिना बरसे ही चली गईं ...।
- मैडम गरीब दुखिया को खाने के लिए दीजिए। भगवान भला करेगा। एक 10-12 साल की लड़की मैले-कुचैले कपड़े में कार के पास खड़ी अनु से विनती कर रही थी। अनु ने उसकी तरफ देखा और उसे डांटने ही वाली थी कि उसे ख्याल आ गया कि बगल में अमर बैठा है। वह रुक गई। कुछ भी कहने से पहले अमर की तरफ देखा। अमर उसी की तरफ देख रहा था। उसने बच्ची की दारुण पुकार सुन ली थी। यह लोग एक दूसरे को देख रहे थे और सोच रहे थे कि कौन क्या प्रतिक्रिया करे तभी बच्ची ने फिर हाथ से कार का शीशा खटखटाया और वही पुरानी रट लगाई।
- यह बिना कुछ लिए जाने वाली नहीं है। अमर ने अनु से कहा।
- डांट कर भगा दंे तो ? अनु ने कहा।
- यह कोई इंसानियत नहीं होगी। - इसे पैसे देने का मतलब है भीख के धंधे को बढ़ावा देना। अनु ने प्रतिवाद किया।
- क्या कुतर्क कर रही हैं आप? आप लोग न तो मजदूरों को उनकी मेहनत की पूरी मजदूरी देना चाहते हैं न ही असहाय गरीब लोगों का भला करना चाहते हैं। न देने का अच्छा तर्क है कि भीख मांगने को बढ़ावा मिलेगा। यह बात तो तब सोचनी चाहिए जब अपने यहां काम करने वाले श्रमिकांे का शोषण करते हैं और उनकी मेहनत के हिसाब से पैसे नहीं देते।
- आपको कैसे पता कि हम मजदूरों को उनका पूरा मेहनताना नहीं देते? हमारे यहां किसी का शोषण नहीं किया जाता। अनु ने अमर की बात को व्यक्तिगत हमला मान कर जोरदार प्रतिवाद किया।
- हो सकता है कि आप सही हों, लेकिन अपने यहां काम करने वाले नौकरों की जिंदगी देखी है कभी आपने? कभी उनके घर गईं हैं? नहीं न? फिर ऐसा दावा क्यों कर रही हैं? आपने कभी सोचा है कि जो व्यापार आपके पिता करते हैं, उसमें उनकी तो तरक्की होती है। साल दर साल करोड़पति से अरबपति बन जाते हैं। एक फैक्ट्री के बाद दूसरी फैक्ट्री लगाते हैं। एक कोठी के बाद दूसरी कोठी बनवाते हैं। एसी कार में चलते हैं। एसी वाले कमरे में सोते हैं। बढ़िया शराब पीते हैं। अच्छे-महंगे कपड़े पहनते हैं। दुनिया की हर कीमती वस्तुओं का उपभोग करते हैं। लेकिन आपके यहां श्रम करने वालों की हालत साल दर साल खराब होती जाती है। महंगाई बढ़ती है 20 फीसदी और श्रमिकों वेतन बढ़ाया जाता है पांच फीसदी। आखिर क्यों? क्या उनके बिना आपकी फैक्ट्री चल सकती है? बिना श्रमिकों के एक कारखाना नहीं चल सकता। फिर श्रमिकों की यह दयनीय हालत क्यों? किसी उत्पाद के उत्पादन में जितना महत्व पैसे का होता है उतना ही श्रम का भी होता है। फिर ऐसा क्यों होता है कि पैसा बढ़ता रहता है और श्रम करने वाला बदहाल होता जाता है? कभी सोचा है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है? जाहिर है पैसा लगाने वाला। वह मुनाफे को पूरा-पूरा हड़प जाता है जबकि मुनाफे में श्रमिकों का भी हिस्सा होता है, क्योंकि मुनाफे में पूंजी की तरह श्रम भी लगा होता है। पूंजी बढ़ती है क्योंकि वह श्रमिकों का हिस्सा हड़पती है। यह अमानवीय है। यही शोषण है। यही अन्याय है। मानवता के खिलाफ है। यही श्रमिकों की बदहाली के लिए जिम्मेदार है। इसी मानसिकता के कारण करोड़ों लोग नारकीय जीवन जीते हैं। उनके बच्चे सड़कों पर भीख मांगते हैं।
कॉमनवेल्थ गेम के नाम पर आपकी सरकार दिल्ली को चमका रही है। लेकिन उसने इन गरीबों के लिए क्या किया? उसकी योजना ऐसे गरीबों को दिल्ली से बाहर खदेड़ देने की है। उसकी यह योजना नहीं है कि वह लोगों की आय बढ़ाने के लिए न्यूनतम मजदूरी बढ़ाये। उसे लागू करने के लिए ईमानदारी से काम करे। दिल्ली ऐसे ही साफ सुथरी नहीं हो जाएगी। उसके लिए जरूरी है कि लोगों को जीने लायक वेतन मिले। मजदूरी मिले। उनकी क्रय शक्ति बढ़े। आप गरीबों को गाड़ी में भरकर शहर के बाहर नहीं फेंक सकते। यह देश उनका भी है। उन्हें भी यहां रहने और जीने का हक है। 
आप लोग मजदूरों का शोषण ही नहीं करते बल्कि परजीवी कीड़े की तरह उनका खून पीते हैं। ऐसे लोगों के बारे में सोचकर भी घृणा आती है। लेकिन यही लोग दानवीर बनते हैं। इंसानियत के ठेकेदार भी बनते हैं। गरीबों के लिए दान करेंगे। मंदिर बनवाएंगे। सर्दियों मंे कंबल बांटेगे और समय-समय पर लंगर लगाएंगे। मैं पूछता हूं कि यह ढकोसला क्यांे? लेकिन नहीं यह व्यवस्था ढकोसले से ही चलती है। यहां जो जितना पतित है। गिरा हुआ है। भ्रष्टचारी है। वह उतना ही महान है। महानता का आलम यह है कि देश में अलग देश ही बना लिया है। कहते हैं यह मेरा इंडिया है। यह भारत नहीं है।
- अच्छा भाषण दे लेते हो? राजनीति में क्यों नहीं हाथ आजमाते? अनु ने व्यंग्य किया। अमर की बातें उसे अच्छी नहीं लगी थीं लेकिन वह यह सोचकर कूल रही कि यह उस पर व्यक्तिगत हमला नहीं है। हालांकि अमर के एक-एक शब्द उसे शूल की तरह चुभ रहे थे...।
- माफ करना। आपको-अच्छा नहीं लगा होगा। मैंने जो कुछ भी कहा वह व्यक्तिगत तौर पर आपके लिए नहीं था लेकिन यह सच है कि आप भी उनमें शामिल हैं। क्यांेकि आप भी उसी वर्ग से आती हैं। इसलिए मुझे माफ करंेगी। आपको हर्ट करना मेरा मतलब नहीं था लेकिन प्रसंग ऐसा आ गया कि यह कहना जरूरी हो गया था।
- बेशक, लेकिन लड़की तो चली गई। आपने उसे कुछ नहीं दिया।
- देना तो आपको चाहिए था। या फिर आपका यह भगवान दे। सामने के मंदिर की तरफ इशारा करते हुए अमर ने कहा। मैं तो खुद भी उसी की तरह हूं। आठ घंटे काम करता हूं तो उसके बदले जो मिलता है उससे पेट पालना मुश्किल हो गया है। ऊपर से मंदी की मार इस साल ऐसी पड़ी की वेतन भी नहीं बढ़ा। महंगाई बढ़ गई 40 फीसदी और वेतन वहीं का वहीं रह गया। कंपनी घाटे में है लेकिन मालिक और बड़े अधिकारियों की जीवन शैली पर कोई फर्क नहीं पड़ा। उन लोगों ने अपनी सुविधा और उपभोग में कोई कमी नहीं की। कंपनी से मिलने वाली अपनी तनख्वाह को बढ़ा लिया है लेकिन कर्मचारियों को एक पैसा नहीं देना चाहते। यह शोषण नहीं हत्या है।
आप भिखमंगों को बढ़ावा नहीं देना चाहते तो मजदूरी को बढ़ावा दीजिए। कुछ तो करिये। सारे साधनों का उपभोग अकेले ही क्यों करना चाहते हैं?
- यह सवाल तो आपको सरकार से करना चाहिए। हम जो कमाते हैं। उसका टैक्स देते हैं। सब का हिसाब-किताब होता है। कानून का उल्लंघन नहीं करते।
- आप लोग कानून का उल्लंघन कहां करते हैं। यह और बात है कि टैक्स चोरी आप लोग करें। उत्पाद शुल्क की चोरी आप लोग करें। सरकार से सारी सुविधाएं आप लोग लें। कमाते करोड़ों में दिखाते लाखों में हैं। यह है आप लोगों की ईमानदारी। देश की अर्थव्यवस्था के बराबर काले धन की अर्थव्यवस्था है। यह सब आप लोगों की ईमानदारी के कारण ही तो संभव हुआ है। आप लोगों की ईमानदारी के कारण पूरा समाज भ्रष्ट हो गया है। पतित हो गया है। आप लोग खुद भ्रष्ट हैं और दूसरों को भी भ्रष्ट कर देते हैं। आप अपना काम बनाने के लिए रिश्वत देते हैं। अधिकारी से लेकर  नेता तक को रिश्वत देते हैं। नेताओं को चुनाव में चंदे के नाम पर पैसा देकर ब्लैकमेल करते हैं। सारी नीतियां अपने अनुकूल बनवाते हैं फिर कहते हैं कि यह काम तो सरकार का है। सरकार एक नीति की घोषणा गरीबों के लिए करती है तो आपका शेयर बाजार ढहने लगता है। सरकार न्यूनतम मजदूरी तय करती है लेकिन वह इतनी शर्मनाक होती है कि उल्लेख करते भी शर्म आती है। फिर भी आप लोग उसका भी पालन नहीं करते। सरकार कहती है कि श्रमिकों से 8 घंटे काम लिया जाए। लेकिन आप लोग 12 घंटे काम करवाते हैं।
इस देश के एक राज्य के एक तानाशाह मुख्यमंत्री को पिछले दिनों उद्योगपतियांे ने देश का भावी प्रधानमंत्री घोषित कर दिया। जानती हैं क्यों? क्योंकि उसके राज्य में न्यूनतम मजदूरी का पालन नहीं किया जाता। सब काम ठेके पर होता है। जहां श्रमिकों के प्रति किसी फैक्ट्री मालिक की कोई जिम्मेदारी नहीं होती। वहां मजदूरों से 12-14 घंटे काम लिया जाता है। अब उद्योगपतियों के लिए ऐसा ही नेता तो प्रिय होगा। जो श्रमिकों के हित में काम करता है आप लोग उसे बड़े आराम से रास्ते से हटा देते हो। पहले तो उसे पथभ्रष्ट करते हो लेकिन यदि वह तब भी न माने तो किसी गुंडे से टपकवा देते हैं। आप लोग क्या नहीं करते? कहां तक बयां किया जाए?
- जहां तक बोल सकते हैें बोलते रहिये। आपकी बातें सुनकर लगता है कि मैं लड़की नहीं कोई डयान हूं जो आदमियों का खून पीती है।
- अच्छा एहसास है। आपके वर्ग के लोगों को यदि ऐसा एहसास हो जाए तो करोड़ों लोगों का भला हो जाए।
- देखिये, आसमान में बादल घिर आये हैं। चलो बाहर चलते हैं। मुझे काली घटाएं अच्छी लगती हैं। अनु ने बाहर आसमान की तरफ देखते हुए कहा। अमर ने भी बाहर देखा आसमान काले बादलों से घिर गया था।
- वाह। क्या कमाल है। लगता है बारिश होगी। अनु के साथ अमर भी कार से बाहर आ गया। अब उसका ध्यान आस-पास के क्षेत्र पर गया। इस समय वे अक्षरधाम मंदिर के पास खड़े थे। कार नोएडा फ्लाईओवर पर खड़ी थी। थोड़ी दूर पर मेट्रो रेल लाइन जा रही है। सामने अक्षरधाम मंदिर है तो उसके सामने खेल गांव का निर्माण जारी है। दिल्ली 2010 में कामनवेल्थ गेम की मेजबानी कर रही है और पूर्वी दिल्ली में उसकी तैयारियों के लिए युद्धस्तर पर निर्माण कार्य हो रहा।
गगन में काली घटाएं घिर आई थीं। इस कारण दोपहर में ही शाम का अहसास हो रहा था। काले बादल देखकर दोनों खुश थे। अनु रोमांचित थी कि बरसात होगी तो वह भींगेगी। अमर सोच रहा था कि बारिश होगी तो गर्मी से राहत मिलेगी। मानसून नहीं आने से आम लोगों का जीना दूभर हो गया है। किसानों की खेती चौपट हो रही है...।
- काले घने बादल कितने अच्छे लग रहे हैं? अमर ने अनु से पूछा।
- मैं तो एक्साइटेड हूं। ये बादल कब बरसें और मैं भीगूं। मुझे बारिश मंे भीगना बहुत अच्छा लगता है।
- लेकिन इसके लिए समय नहीं मिलता होगा?
- समय मिल भी जाए तो अब वैसी बरसात कहां होती है?
- क्यों नहीं होती बारिश जानती हैं?
- हां, मौसम में काफी बदलाव आ गया है। प्रदूषण भी काफी बढ़ गया है।
- कौन है इसके लिए जिम्मेदार? अमर के इस सवाल पर अनु ठिठक गई। उसे लगा कि अमर इस बहाने कुछ कहना चाहता है। इसका भाषण शुरू होगा और अच्छे भले मौसम का मजा किरकिरा हो जाएगा। लिहाजा उसने अमर के सवाल का जवाब ही नहीं दिया और तेजी से आते काले बादलों को देखने लगी।
- आप ने कोई उत्तर नहीं दिया।
- हमने जरूरत नहीं समझी।
- या फिर जान कर अनजान बन रही हैं?
- यही समझ लो।
- ठीक है, मैं बता देता हूं।
- लेकिन मुझे जानना ही नहीं है।
- क्यों अमेरिका की तरह व्यवहार कर रही हो?
- क्योंकि मैं अमेरिका हूं।
- तो यह भी जान लीजिए कि प्रदूषण के लिए अमेरिका ही जिम्मेदार है।
- मुझे पता था आपको यही कहना है। प्रदूषण के लिए इंडियन लोग जिम्मेदार हैं। उनकी करनी का फल हम भारतीय भोग रहे हैं।
- काफी समझदार हो गईं हैं।
- संगत का असर तो पड़ता ही है न?
- ऐसी संगत तो आपके लिए खतरनाक है।
- मुझे खतरों से खेलना अच्छा लगता है।
- नाजुक लोगों को खतरांे से नहीं खेलना चाहिए।
- मैं नाजुक-ओजुक नहीं हंू। इतना कहकर वह सामने देखने लगी और खुद से ही बोली, दिल से मजबूर हूं इसलिए खतरों से खेल रही हूं। देखते हैं क्या परिणाम निकलता है।
- अंगारों पर चलने से पैर में छाले ही पड़ते हैं।
- लेकिन अनुभव और परिणाम के लिए अंगारों पर तो चलना ही पड़ता है?
- वो तो है।
- चलो मंदिर चलते हैं। अनु ने बात को बदलाने के लिए प्रस्ताव रखा।
- मैं मंदिर नहीं जाता।
- भगवान से भी दुश्मनी है?
- दुश्मनी तो जो होता है उससे होती है। जो है ही नहीं उससे काहे की दुश्मनी।
- भगवान को भी नहीं मानते?
- नहीं।
- कम्युनिस्ट हो?
- क्यांे भगवान को नहीं मानने वाला कम्युनिस्ट होता है?
- जहां तक मैं जानती हूं।
- गलत जानती हैं आप। कई कम्युनिस्ट मंदिर जाते हैं और घंटा बजाते हैं।
- आप बातें भी वैसे ही करते हो।
- कैसी?
- नक्सलियों की तरह।
- एक और उपाधि। लेकिन मैडम सच कड़वा होता है। वह जिसके खिलाफ जाता है उसे वह स्वीकारता ही नहीं। फिर वह कहता है कि फला आदमी पागल हो गया है। इससे भी बात नहीं बनती है तो कहता है कि वह कम्युनिस्ट है। जब इससे भी बात नहीं बनती है तो कहता है कि नक्सली हो गया है। कई बार तो आतंकी ही घोषित कर देता है। इस तरह अपने विराधी को खत्म करना आसान हो जाता है...।
पुलिस अपनी तरक्की और आका को खुश करने के लिए फर्जी एनकाउंटर करती है। जिस मुख्यमंत्री को उद्योगपतियों ने भविष्य का प्रधानमंत्री घोषित किया है। वह तो अपने विरोधियों को आतंकी बताकर पुलिस मुठभेड़ में मरवा देता है। अपनी सत्ता के लिए समुदाय विशेष के खिलाफ दंगा कराता है। अपने राज्य से उस समुदाय को ही साफ कर देना चाहता है। यह और बात है कि वह बदनाम हो गया है इसलिए उस पर उंगली उठती है लेकिन सत्ता में रहते हुए लगभग सभी ऐसा ही वर्ताव करते हैं। सत्ता के खिलाफ बोलने वाले को ऐसे लोग पसंद नहीं करते। कोई न कोई अरोप लगाकर खत्म करवा देते हैं। पूंजीपति कई बार मजदूरों को कुचलने के लिए यही हथकंडा अपनाते हैं। मजदूर नेताओं की हत्या इनके लिए आम बात है। इसी देश में एक प्रदेश की सरकार ने एक जनकवि को नक्सली बताकर जेल में डाल दिया। पुलिस ने उसके खिलाफ इतने सुबूत जुटा दिये कि वह कई सालों तक जेल में सड़ता रहा। लेकिन इससे समस्याएं खत्म नहीं होती। गरीबों के लिए बात करने वाला नक्सली नहीं हो जाता। और यदि हो भी गया तो क्या गुनाह कर दिया।
- हमारे देश में तो हर कोई गरीबों की ही बात करता है।
- सही कह रही हैं आप। लेकिन बातें करना और गरीबों के लिए काम करना दो अलग बातें हैं। जो केवल बातें करते हैं वह नेता कहे जाते हैं और जो गरीबों के लिए काम करने लगते हैं उनके हक की आवाज उठाने लगते हैं उन्हें यह व्यवस्था नक्सली, माओवादी आदि पता नहीं क्या-क्या कहने लगती है। ताकि उनका सफाया कर सके और एक वर्ग का भला होता रहे।
- गरीबों के हक के लिए हिंसा जायज है?
- किस हिंसा की बात कर रही हैं?
- कई राज्यों में नक्सली और माओवादी जो कर रहे हैं? पुलिस वालों पर हमला करके मार डालते हैं।
- किसने कहा कि वह हिंसा कर रहे हैं? मीडिया आपका, सरकार आपकी। आप तो कहेंगे ही। गरीबों के खिलाफ आप हिंसा करें वह जायज? मजदूरों का शोषण करें वह सही। किसानों की जमीन अपने कारखाने के लिए हड़प लें वह सही। आदिवासियों की भूमि छीन लें। उन्हें दरबदर कर दें वह जायज। बदले में यदि यह लोग विरोध करें तो वह आपको हिंसा नजर आती है। आखिर किसी को कब तक दबाते रहोगे? शोषण करते रहोगे? एक सीमा के बाद तो विरोध होगा ही। आप हिंसा करें वह जायज। हिंसा के विरोध में हिंसा हो तो वह गैर कानूनी हो जाती है। नक्सली और माओवादी जो कर रहे हैं उसके लिए आप और आपकी सरकार ही दोषी है। बिना हक दिये आप उनकी अवाज बंदूक से नहीं दबा सकते। यदि ऐसा करने का प्रयास होगा तो हिंसा तो होगी ही। जिस हिंसा की बात कर रही हैं वह प्रतिहिंसा है। अन्याय, शोषण गैर-बराबरी, जोर-जुल्म से मुक्ति के लिए विरोध है। जिसे समझने की जरूरत है। आप इसे हिंसा कहकर खारिज नहीं कर सकते। ध्यान रखें कि हर क्रिया कि प्रतिक्रिया होती है।
- बेकसूर पुलिस वालों को मार देना हिंसा नहीं है?
- नहीं। क्योंकि पुलिस वाले भी बेकसूर लोगों को नक्सली बताकर मार देते हैं। जब उन्हें मौका मिलता है तो वह हिंसा करते हैं इसलिए उनके खिलाफ भी हिंसा होती है। आत्मरक्षा के लिए हिंसा करने का हक आपका कानून भी देता है। चार पुलिस वाले मारे जाते हैं तो आप लोग हिंसा-हिंसा करने लगते हो लेकिन जब पुलिस वाले हिंसा करते हैं तो कोई नहीं बोलता। तब आपकी सरकार अखबारों में विज्ञापन देकर नहीं बताती। तब कोई मीडिया वाला चीख-चीखकर नहीं बोलता।
- आपके विचार बड़े खतरनाक हैं।
- मैं खतरनाक नहीं हूं?
- जब विचार ऐसे हैं तो क्या कहा जा सकता है।
- संभलकर रहना। कहीं अखबार की हेडलाइन न बन जाए कि एक पंूजीपति की बेटी नक्सली से इश्क लड़ा रही है।
- खुद को नक्सली मानते हो?
- तुम्हीं कह रही हो। मैं तो एक लेखक-पत्रकार हूं। विचार व्यक्त करने के लिए आजाद भी हूं।
- मंदिर नहीं जाना है तो मत जाओ लेकिन भाषण मत सुनाओ।
- जो सच कहा तो बुरा लग गया। बात को भाषण बता दिये।
- तुम्हारे अंदर दिल नहीं है क्या? अनु ने अमर के हृदय स्थल पर अंगुली रखते हुए कहा।
- कान लगा कर देखो। अमर ने अनु का सिर अपने वक्ष स्थल पर रख दिया। अनु ने विरोध नहीं किया।
- धड़क रहा है न? अमर ने पूछा।
- बहुत धीमे-धीमे।
- अच्छा, इससे भी तेज धड़कता है क्या?
- हां, क्यांे नहीं?
- फिर तो आपका धड़क रहा होगा?
- जरूर।
- दिखाओ।
- दिखाऊं?
- हां।
- देखोगे?
- हां।
- हिम्मत है?
- हां।
- ठीक है, इधर आओ।
अनु ने अमर को अपने समीप खींचा और उसके सिर को अपने वक्ष स्थल पर रख दिया।
- कुछ पता चला?
- न? अमर ने शरारत की।
- झूठे कहीं के। कहते हुए अनु रेंलिग पकड़ कर खड़ी हो गई। अमर ने अनु को भर नजर देखा। उसके खुले बाल हवा में लहरा रहे थे। टाइट टी शर्ट में वक्ष अपनी संपूर्ण बनावट में काफी आकर्षक लग रहे थे। लेकिन उसकी निगाह अनु के कमर के निचले भाग पर बार-बार टिक जा रही थी। टाइट जींस में हिप्स, जांघ और टांगों की बनावट तराशे गए शिल्प की तरह लग रही थी। यदि यह सूट या साड़ी में होती तो कभी इतनी आकर्षक नहीं लगती। अमर को संस्कृत के महाकवि कालिदास की नायिका शंकुतला याद आई...।
मंत्रविध सा अमर अनु के पास गया और उसकी कमर में हाथ डाल दिया। अनु चिहुक गई। पलट कर देखा अमर है तो वह संयत हुई। और अमर के हाथ को कमर से हटा कर अपने हाथों में ले लिया। अमर की हथेली को देखते हुए बोली।
- तुम कितने अच्छे हो। मेरा दिल कहता है कि मैं हमेशा तुम्हारे करीब रहूं। बिल्कुल तुम्हारे नजरों के सामने। अमर की निगाह अनु के चेहरे पर ही थी। इतना कहने में उसका चेहरा लाल टमाटर हो गया। शर्म से पलकें झुक गईं। आंखों में एक लाल रेखा सी तैर गई।
- मेरी भावनाएं इससे अलग नहीं हैं लेकिन...।
- लेकिन क्या? अनु ने पलकें उठाईं और निगाहें अमर की आंखों में डाल दी। अमर उन आंखों की व्याकुलता को बर्दाश्त नहीं कर पाया। इस बार उसकी पलकें झुक गईं। उन पलकों पर मजबूरी का वजन साफ देखा जा सकता था...।
- मुझे अपने परिवार का पेट पालना है। मैं एक गरीब किसान का ऐसा बेटा हूं जो इस व्यवस्था में फिट नहीं हो पाया। मैं आज तक आपने मां-बाप और बीवी बच्चों को कुछ नहीं दे पाया तो आपको क्या दूंगा?
- मुझे तुमसे कुछ नहीं चाहिए। बस अपना साथ दे दो।
- और मेरा परिवार?
- सॉरी, मैं स्वार्थी हो रही हंू। इस तरफ तो सोचा ही नहीं। बट आई लाइक यू... अनु ने अमर के हाथ को चूम लिया।
- क्या कर रही हो? हम सड़क पर खड़े हैं।
- तो क्या हुआ?
- आने-जाने वाले हमें ही देख रहे हैं।
- देखने दो। वह अपना काम कर रहे हैं, हम अपना।
- लोग हमें देखेंगे और एक्सीडेंट कर देंगे। फिर हमें पुलिस पकड़ कर ले जाएगी।
- ऐसा क्या?
- और नहीं तो क्या?
- फिर तो अच्छा है। मैं तो गिरफ्तार होना चाहती हूं। कम से कम इस बहाने तो हम एक कमरे में होंगे। यह कहते हुए अनु ने रोमांच का अनुभव किया।
- इस गलतफहमी में मत रहना। वह हमें अलग-अलग रखेंगे।
- फिर तो नहीं होना हमें गिरफ्तार।
वे जहां खड़े थे उनसे थोड़ी ही दूरी पर एक पुलिस वाला एक रेहडीवाले को पीट रहा था। अमर की निगाह उस पर पड़ गई। वह अनु को वहीं छोड़ रेहडी वाले के पास आ गया।
- इस गरीब को क्यों मार रहे हो भाई? अमर ने आते ही पुलिस वाले से पूछा। उसके पीछे-पीछे अनु भी आ गई थी। वह अपनी कार भी बैक कर लाई थी। उनके आने के बाद पुलिस वाला रेहडी वाले की पिटाई बंद कर दी। रेहडी वाला अपनी पीठ और चूतड़ सहला रहा था। अमर के पूछने पर पहले तो पुलिस वाला उसे ऊपर से नीचे तक देखा फिर अनु को देखा और उसके कार को गौर से निहारा।
- साला रास्ते में रेहडी लगाता है। कितनी बार मना किया पर बहन चो.. मानता ही नहीं। सिपाही ने जवाब दिया।
- मानता नहीं कि हफ्ता नहीं देता? अमर ने सवाल किया।
- कहां से दूं साहब। यह पांच सौ रुपये मांगते हैं। इतनी कमाई नहीं होती। परिवार का पेट पालना ही मुश्किल है।
- चुप स्साला। आवाज निकाली तो डंडा गांड़ में पेल दंूगा।
सिपाही की अभद्र्र भाषा पर अनु चकित थी
- ये डंडा इसीलिए मिला है तुझे? अमर गुस्से में सिपाही से कहा। एक आदमी शराफत से जीना चाहता है। अपने बीवी बच्चों का पेट पालना चाहता है तो तुम उसे डंडे मार रहे हो। दुनिया भर के चोर उचक्के घूम रहे हैं। उनका तुम कुछ भी नहीं कर सकते। आये दिन हत्या-बलात्कार, छीना-झपटी, लूटमार, डकैती हो रही है क्या कर हो तुम? यह देश की राजधानी है लेकिन एक भी आदमी सुरक्षित नहीं है-क्यों? शर्म-हया है तो यही डंडा अपनी गां.. में डाल लो...।
- तुम कहना चाहते हो कि इसको सड़क पर दुकान लगाने दंू? पुलिस वाले ने अमर से गुस्से में बोला।
- बिल्कुल, क्यों नहीं लगाने दोगे? जब इससे रिश्वत लेकर लगाने दे सकते हो तो वैसे क्यों नहीं लगाने दोगे?
- सड़क चलने के लिए बनाई गई  है।
- क्यों बनाया? किसने बनाया? किसके लिए बनाया? इसने तो नहीं कहा था कि तुम यहां सड़क बनाओ। इस सड़क पर जितना अधिकार कार वालों व अन्य वाहन चालकों का है उतना ही हक इसका भी है। कुछ लोगों को सड़क बनाकर दोगे और करोड़ों लोगों को रोजगार भी नहीं दोगे? यह दोगली नीति क्यों? यदि लोगों को इस सड़क पर चलने का अधिकार है तो इन्हें भी जीने का, रोजगार करने का अधिकार है।
- तुम क्या बकवास कर रहे हो मेरी समझ में नहीं आ रहा है लेकिन सड़क के किनारे दुकान लगाना गैर कानूनी है।
- हां, गैर कानूनी हैं लेकिन इस देश में कानूनी क्या है? यह जो मंदिर बना है कानूनी है? इसके बनने से यमुना का पानी यहां तक नहीं आ सकता। उसकी वजह से धरती को जो पानी मिलता था वह नहीं मिल पाएगा। फिर यह कानूनी कैसे हो गया? फिर भी यह बना। इसी तरह दिल्ली में करोड़ों मकान, हजारों कालोनियां गैर कानूनी तरीके से बनी हैं। तुमने क्या कर लिया? हजारों फैक्ट्रियां अवैध तरीके से गैर-कानूनी तौर-तरीकों से चल रही हैं। क्या कर लिया तुमने? यह सामने जो खेलगांव बन रहा है इसके लिए हजारों पेड़ काट दिए गए। क्या वह सब कानूनन हुआ? यमुना के किनारे करोड़ों रुपये वाले फ्लैट बनाये जा रहे हैं ये कानूनी तौर पर हैं? इनसे पर्यावरण को जो नुकसान हो रहा है उसकी भरभाई कौन करेगा? तुम? तुम तो सौ-दो सौ, पांच सौ, हजार लेकर चलते बनते हो। भुगतना तो आम आदमी को पड़ता है। यह जो मेट्रो का निर्माण हो रहा है इसमें घटिया सामग्री लागाई जा रही है उसका तुम क्या कर रहे हो? वह तो तुम्हें नहीं दिखता। कल को इसकी वजह से लाखों जिंदगियां बर्बाद होंगी, तबाह होंगी उनका जिम्मेदार कौन होगा? ये सब चींजे तुझे क्यों नहीं दिखाई दे रही हैं? बड़ा कानूनची है तो उखाड़ न इनकी। वहां तो जाते ही फट जाती।
- देखो, जबान संभाकर बोलो।
- जैसे तू बोल रहा है। वैसे ही बोल रहा हंू। खाकी की वर्दी पहन लिया है तो तेरी तानाशाही नहीं चलेगी।
- मुझे भाषण मत दो। यह सब जाकर अपने नेताओं को बताओ। कानून वही बनाते हैं, हम नहीं।
- लेकिन पालन तो तुम कराते हो। क्यों नहीं हो पाता कानून का पालन? एक गरीब किसी तरह अपने परिवार का पेट पाल रहा है तो तुम उसे इसलिए परेशान कर रहे हो कि वह तुम्हें हफ्ता नहीं देता। हफ्ता दे तो उनकी दुकान कानूनी हो जाएगी? यह कहां का कानून है कि पुलिस वाले को हफ्ता दो और काम करो? यह कानून तुमने बनाया है नेताओं ने नहीं बनाया है। इसलिए जवाब भी तुम्हीं दो।
- मेरे पास तेरे बकवास सवालों का जवाब देने के लिए समय नहीं है।
- सच को बकवास बता रहा है?
- देखो, मेरे से पंगा मत लो नहीं तो...। पुलिस वाले को अचानक एहसास हुआ कि वह वर्दी वाला है और कुछ भी कर सकता है तो इस फटीचर की बकवास क्यों सुन रहा है?
- नहीं तो क्या करेगा तू? मारेगा? थाने ले जाएगा? क्या करेगा आएं?
- देखो मैं कह रहा हूं कि मेरा दिमाग मत खराब करो और यहां से चलते बनो
- नहीं जाता। क्या करेगा तू? तुमने वर्दी पहन ली है तो किसी को कहीं खड़ा नहीं होने देगा?
- अमर चलो? क्यांे उलझ रहे हो? इतनी देर में पहली बार अनु ने हस्तक्षेप किया।
- उलझ मैं रहा हूं कि यह उलझ रहा है। अमर ने प्रतिवाद किया।
- मैडम इसको ले जाओ। इसका दिमाग खिसक गया है। किसी डाक्टर को दिखाओ। गाड़ी में बैठाओ ठंडा-संडा पिलाओ। गर्मी दूर हो इसकी नहीं तो...।
- नहीं तो तू दूर कर देगा मेरी गर्मी? अपनी वर्दी का बहुत घमंड हो गया है तुझे? बकवास करेगा साले तो..।
- वर्दी उतरवा देगा? चल देखते हैं कौन क्या करता है? पुलिस वाले ने अमर का हाथ पकड़ने की कोशिश की। यह देखकर अनु बीच में आ गई। सिपाही रुक गया। अमर को धक्का देते हुए अनु कार के पास लाई दरवाजा खोलकर उसे बैठाया और कार स्टार्ट करके चलती बनी।
- यार तुम तो राह चलते भी उलझ जाते हो। अच्छे भले मौसम का कबाड़ा कर दिया। कार चलते ही अनु ने अमर से कहा।
- ये तो हद ही है न। हर तरफ गैर कानूनी काम हो रहा है लेकिन एक गरीब आदमी रोजी-रोटी नहीं कमा सकता। इसी फ्लाईओवर के नीचे रेलवे लाइन के पास जो जगह है। वहां एक विज्ञापन एजेंसी वाले ने कब्जा कर रखा है। उसकी गाड़ियां वहां खड़ी होती हैं। वहीं पर होर्डिंग आदि बनते हैं। यह इसको नहीं दिखता लेकिन वहीं दो चार गरीब लोग रात में सोते हैं तो इन पुलिस वालों के पेट में दर्द होता है। बताओ करोड़ों गरीब लोग कहां जाएं? सरकार उनके लिए कुछ करती नहीं। लोग अपने जीने के लिए कुछ करना चाहते हैं तो पुलिस वाले करने नहीं देते। इससे भले तो चोर उचक्के और बदमाश ही है न? कम से कम इज्जत से और शान से जीते तो हैं। ये पुलिसवाले उनसे भी मिले होते हैं। उनसे भी कमीशन लेते हैं। इन वर्दी वालों से भ्रष्ट तो इस देश में कोई है ही नहीं। यही कारण है कि लोग पुलिस में भर्ती होने के लिए लाखों रुपये रिश्वत देते हैं। उन्हें पता है कि वह जो निवेश कर रहे हैं, उसका कई गुणा नौकरी मिलते ही वसूल लेंगे। एक बार वर्दी मिलने की देर है फिर देखो इनका डंडा कैसे चलता है। नक्सली इसीलिए इन्हें मारते हैं...।
- कूल रहो यार। यह व्यवस्था ही ऐसी है। इसमें हम-तुम क्या कर सकते हैं?
- यही विचार तो खतरनाक है। हम और आप नहीं करेंगे तो कौन करेगा? एक वर्दी वाला हमें धौंस देगा और हम भाग लेंगे? यह कैसी कायरता है?
- शुकर है कि भाग लिए नहीं तो तुम तो जानते ही हो कि पुलिस कैसी होती है। उससे इतना बोल लिए क्योंकि वह अकेला था? सिपाही था और तुम कार से उतरे थे..।
- नहीं तो क्या करता साला? थाने ले जाता? मैं भी उसकी कचूमर निकाल देता। जो बातें उससे कही वही अदालत में चीख चीख कर कहता। तब तो कई लोगों तक मेरी आवाज जाती। वैसे भी मैं गलत नही हूं?
- गलत नहीं थे लेकिन गलत आदमी से बहस कर रहे थे।
- वह गलत आदमी नहीं था। इस व्यवस्था के सबसे बडे़ भ्रष्ट विभाग का सबसे भ्रष्ट कारिंदा था। उसे यह एहसास कराना जरूरी था।
- लेकिन उस पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा?
- बेशक न पड़े लेकिन मैंने अपना कर्म किया और फर्ज निभाया। यदि सभी ऐसा करने लगें तो हालात बदल सकते हैं। हमें एक दूसरे को कोसने के बजाय क्या कुछ करना नहीं चाहिए?
- जरूर करना चाहिए लेकिन करे कौन?
- किसी न किसी को तो करना ही पड़ेगा एक न एक दिन।
- लेकिन पुलिस वाला भी अपनी जगह सही है।
- कैसे सही है?
- फुटपाथ पर रेहड़ी कैसे लगाने दे?
- सही है। न लगाने दे। लेकिन हफ्ता लेने के बाद क्यों लगाने देगा?
- यह तो गलत है।
- मैं तो इसी बात का विरोध कर रहा था। हफ्ता किस बात का भाई? रेहड़ी लगाना गैरकानूनी है तो है। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। बेशक हफ्ता न ले लेकिन रेहड़ी वाले की रोजी-रोटी की व्यवस्था तो करनी होगी। उसे आत्महत्या करने या परिवार सहित भूख से मरने के लिए तो नहीं छोड़ा जा सकता?
- किसी को रोजगार देना पुलिस का काम नहीं है।
- बेशक नहीं है। लेकिन किसी को उजाड़ने का भी अधिकार उसे नहीं हैं।
- लेकिन वह फुटपाथ पर रेहड़ी लगाकर यातायात को बाधित कर रहा है।
- तो क्या फर्क पड़ता है। एक आदमी बेरोजगार रहे। उसका परिवार भूख से मरे उससे तो अच्छा ही है न कि वह फुटपाथ पर रेहड़ी लगाकर कुछ रुपये कमाये और परिवार का पालन-पोषण करे। यदि किसी को लगता है कि वह गलत है तो वह सबसे पहले उसे रोजगार दे। आप अपनी सुविधा के लिए किसी को उजाड़ नहीं सकते।
- इस तरह तो लोग सड़कों पर ही कब्जा कर लेंगे।
- तो क्या बुरा करेंगे? जब उन्हें रोजगार नहीं मिलेगा तो वह क्या करें? आत्महत्या कर लें? जान देने से तो अच्छा है कि सड़कों पर कब्जा करके दो पैसे कमाएं और जिंदा रहें। यह सरकार का काम है कि उन्हें रोजगार दे। नहीं तो दूसरी सड़क बनाए।
- देखो बारिश शुरू हो गई है? चलो भीगते हैं।
अनु ने प्रसंग बदल दिया।
- बारिश का क्या भरोसा? चार बूंदें पड़कर चली जाए। तेज बरसने लगे तो देखते हैं।
- तुम किसी पर भरोसा क्यों नहीं करते?
- किसी पर से मतलब?
- हर जगह आशंका, किंतु, परंतु, लेकिन, अगर-मगर, करते रहते हो। थिंक पॉजिटिव। हमेशा नेगिटिव ही क्यों सोचते हो?
- आपने तो अच्छा विश्लेषण किया मेरा। लेकिन आपको जानना चाहिए कि मैं ऐसा क्यों हंू? शायद इसके लिए मेरे हालात जिम्मेदार हों लेकिन मैं निराशावादी नहीं हूं। मैं भाग्यवादी भी नहीं हूं। जो हो रहा है भाग्य में लिखा था, यह मानकर नहीं चलता। ईश्वर की मर्जी है, जो करेगा, भगवान करेगा। जो देगा भगवान देगा। ऐसे बेवकूफी भरे तर्कों-शब्दों की जगह मेरे शब्दकोश में नहीं है। मैंने हमेशा कर्म पर भरोसा किया है। नजरिया हमेशा यह रहा कि आदमी असंभव को भी संभव बना सकता है। असंभव जैसे शब्द कभी इस्तेमाल नहीं करता। जो भी आज तक पाया है। इसी सोच पर चलकर पाया है। निगेटिव थिंकिंग होती तो आज जहां हूं वहां नहीं होता....।
- ओमप्रकाश तिवारी

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डर ---- तेज बारिश हो रही है दफ्तर से बाहर निकलने पर उसे पता चला घर जाना है बारिश है अंधेरा घना है बाइक है लेकिन हेलमेट नहीं है वह डर गया बिना हेलमेट बाइक चलाना खतरे से खाली नहीं होता दो बार सिर को बचा चुका है हेलमेट शायद इस तरह उसकी जान भी फिर अभी तो बारिश भी हो रही है और रात भी सोचकर उसका डर और बढ़ गया बिल्कुल रात के अंधेरे की तरह उसे याद आया किसी फिल्म का संवाद जो डर गया वह मर गया वाकई डरते ही आदमी सिकुड़ जाता है बिल्कुल केंचुए की तरह जैसे किसी के छूने पर वह हो जाता है इंसान के लिए डर एक अजीब बला है पता नहीं कब किस रूप में डराने आ जाय रात के अंधेरे में तो अपनी छाया ही प्रेत बनकर डरा जाती है मौत एक और डर कितने प्रकार के हैं कभी बीमारी डराती है तो कभी महामारी कभी भूख तो कभी भुखमरी समाज के दबंग तो डराते ही रहते हैं नौकरशाही और सियासत भी डराती है कभी रंग के नाम पर तो कभी कपड़े के नाम पर कभी सीमाओं के तनाव के नाम पर तो कभी देशभक्ति के नाम पर तमाम उम्र इंसान परीक्षा ही देता रहता है डर के विभिन्न रूपों का एक डर से पार पाता है कि दूसरा पीछे पड़ जाता है डर कभी आगे आगे चलता है तो कभी पीछे पीछे कई

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