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अंधेरे कोने : रपटीली राहों के पथिक


आईटीओ स्थित मीडिया समूह के इस भवन में वह कई बार आया है। पहले तब जब वह स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर काम कर रहा था। तब सप्ताह में लगभग एक बार आना हो ही जाता था। इसके बाद वह एक हिंदी अखबार के स्थानीय संस्करण में नौकरी करने लगा और दिल्ली छोड़कर पंजाब चला गया। उसके बाद दो बार आया। अब तीसरी बार वह इस भवन की सीढ़ियां चढ़ रहा है।

अंधेरे कोने
भाग तीन
रपटीली राहों के पथिक
आईटीओ स्थित मीडिया समूह के इस भवन में वह कई बार आया है। पहले तब जब वह स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर काम कर रहा था। तब सप्ताह में लगभग एक बार आना हो ही जाता था। इसके बाद वह एक हिंदी अखबार के स्थानीय संस्करण में नौकरी करने लगा और दिल्ली छोड़कर पंजाब चला गया। उसके बाद दो बार आया। अब तीसरी बार वह इस भवन की सीढ़ियां चढ़ रहा है। आज वह इंटरव्यू देने या लेख छपवाने के लिए नहीं आया। आज तो वह अपने एक मित्र से मिलने आया है।
उसका यह वही मित्र है जो उसके साथ इंटरव्यू देने आया था। दोस्त सेलेक्ट हो गया और वह रह गया। वह इसे एक घटना मानता है।
उस समय हर हाथ में मोबाइल नहीं आया था। पीपी यानी पड़ोसी के नंबर की अपनी अहमियत हुआ करती थी। हालांकि संचार क्रांति हो चुकी थी लेकिन आम जनता तक उसका लाभ नहीं पहुंच रहा था।
अमर सुबह दस बजे सोकर उठा तो अपने एक दोस्त के यहां चला गया था। वहां से आया तो नेहा ने बताया कि दिल्ली से फोन आया था। आंटी जी कह रही थीं कि कोई लड़की बोल रही थी। आंटी जी से मतलब पड़ोस में रहने वाली महिला, जिनका फोन यह लोग बाहर से आने वाली काल को सुनने के लिए करते हैं। अभी वह नेहा से बात कर ही रहा था कि आंटी जी फिर आ गईं।
- अमर तेरा फोन है। कोई लड़की बोल रही है। इतना कह कर वह चलती बनीं। उनके पीछे अमर भी गया।
घर के एक कोने में रखे टेलीफोन के चोंगे को कान से लगाया और हेलो बोला। उधर से किसी लड़की की आवाज उसके कानों में गूंजी
- आप अमर बोल रहे हैं?
- जी हां।
- सर मैं, आज का इंडिया से बोल रही हूं। आपने मेरे यहां जॉब के लिए अप्लाई किया था?
- अप्लाई नहीं किया था। आपके यहां से ही मुझसे बॉयोडाटा मांगा गया था।
- ओके सर, कल चार बजे आपका इंटरव्यू है।
- कल?
- जी।
- मैं इतनी जल्दी कैसे पहुंच सकता हूं? पहले बताना चाहिए था।
- सर आपको ई-मेल किया गया था लेकिन आपका कोई जवाब नहीं आया तो आज कन्फर्म करने के लिए फोन किया। इससे पहले आपको लेटर भी भेजा गया था। आपकी तरफ से उसका भी कोई जवाब नहीं आया।
- मुझे न आपका लेटर मिला न ही ई-मेल तो मैं आपको जवाब कैसे देता।
- सर इसमें मेरी क्या गलती है?
- लेकिन मैं इतनी जल्दी में नहीं आ सकता। मेरा प्रोग्राम पहले से तैयार है। मैं चंडीगढ़ जा रहा हूं।
- सर यह आपके कैरियर के लिए जरूरी है। इसे आप कैसे मिस कर सकते हैं।
- जानता हूं लेकिन...।
- प्लीज सर, लड़की ने अमर का वाक्य पूरा नहीं होने दिया।
- ठीक है मैं सोचता हूं।
- प्लीज सर आप श्योर करें।
- मैं कोशिश करूंगा।
- ओके सर, थैंक्यू। प्लीज आना जरूर। कहते हुए लड़की ने फोन रख दिया। अमर भी फोन रखकर जाने लगा तो आंटी जी ने पूछ लिया कि किसका फोन था?
- दिल्ली से एक अखबार से नौकरी के लिए बुलाया है।
- दिल्ली जाना पड़ेगा?
- हां, कहते हुए अमर वहां से आ गया।
उसे याद आ रहा था कि एक दिन वह अपने आफिस में बैठा काम कर रहा था कि आज का इंडिया के एक वरिष्ठ अधिकारी का फोन आया था। उन्होंने पूछा था कि मैं अमर जी से बात करना चाहता हूं।
- जी मैं बोल रहा हूं। अमर ने कहा था।
- अमर जी, नमस्कार। में आज का इंडिया से कुलदीप बोल रहा हूं।
- जी, आदेश करें।
- आप मेरे अखबार से जुड़ना चाहेंगे?
- क्यों नहीं? यह तो मेरा सौभाग्य होगा।
- आप अपना बॉयोडाटा मेल या फैक्स कर सकते हैं?
- अभी तो नहीं कल फैक्स कर दूंगा।
- ठीक है, नमस्ते। कहकर उन्होंने फोन रख दिया। अमर को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने सोचा ऐसा भी होता है। कहां मांगने से नौकरी नहीं मिलती कहां बुलाकर दी जा रही है। उसने मन ही मन कहा कि बिन मांगे मोती मिले मांगे न मिले भीख।
वह बड़ा खुश हुआ। काम में मन लगाने लगा लेकिन मन तो उछल रहा था। वह चाय पीने के बहाने कैंटीन पर आ गया और फोन तथा उस अखबार के बारे मंे सोचने लगा।
- किससे मिलना है? स्वागत कक्ष में बैठे व्यक्ति ने अमर से पूछा तो वह अतीत से वर्तमान में आ गया।
- विजय से।
उस व्यक्ति ने विजय से बात की। उधर से अनुमति मिली तो उसने विजिटिंग रजिस्टर पर साइन करवा कर उसे अंदर जाने के लिए कहा।
जिस व्यक्ति ने अमर को इंटरव्यू के  लिए बुलाया था जब वह उसके सामने गया तो वह आश्चर्य चकित रह गया। उसके मुंह से पहला वाक्य यही निकला था कि आप ही अमर हैं? मुस्कुराते हुए अमर ने कहा था कि जी हां, मैं ही अमर हूं। आप इतने आश्चर्यचकित क्यों हो रहे हैं? नीली जींस और सफेद शर्ट में अमर उन्हें हैरान कर रहा था। उन्होंने कहा था, यार मैंने तो सोचा था कि आप टिपिकल बुद्धिजीवी जैसा होंगे। इस पर अमर ने पूछा था कि मतलब, आपने मेरी क्या छवि बना रखी थी? उनका जबाव था कि भाई आपके लेखन से तो मैंने यही सोचा था कि आप खद्दर का कुर्त्ता, पायजामा या जींस वगैरह पहनते होंगे। आप तो स्पोर्ट्स सूज, जींस की पैंट और शर्ट। दाड़ी तो है लेकिन बुद्धिजीवियों वाली नहीं। उनकी बात सुनकर अमर मुस्कुराता रहा। फिर उन्होंने बैठने को कहा और लंबी बातचीत हुई।
अमर को देखकर विजय बहुत खुश हुआ। दोनांे गले मिले। फिर एक दूसरे का हालचाल पूछा।
- बहुत दिनों बाद कैसे आना हुआ? विजय ने पूछा।
- पटकथा और संवाद लेखन के लिए इंटरव्यू देने आया था।
- हो गया?
- हां।
- बात बनी?
- नहीं।
- क्यों?
- अंग्रेजी का अल्पज्ञान।
- यार ये अंग्रेजी तेरी सबसे बड़ी बाधा और दुश्मन है। कुछ करो इसका। इसी की वजह से तुम्हारा यहां भी सलेक्शन नहीं हो पाया था। विजय ने रहस्योद्घाटन किया।
- क्या करें यार। यह अंग्रेजी तो मेरे पीछे ही पड़ गई है।
इस बीच विजय अपने कंप्यूटर पर काम करने लगा। अमर उसे देखने लगा। वह अंग्रेजी से कोई लेख हिंदी में अनुवाद कर रहा था। उसे अपना इंटरव्यू वाला दिन याद आया।
कोई आठ लोग इंटरव्यू पैनल में बैठे थे। सबसे पहले बातचीत का सिलसिला वहां के संपादक ने ही शुरू किया। वे सभी अंग्रेजी में सवाल करते अमर उनका जवाब हिंदी में देता। जब यह सिलसिला थोड़ी देर चला तो उनमें से एक ने पूछ लिया।
- आपको अंग्रेजी नहीं आती?
- आती है और नहीं भी आती है। अमर ने जवाब दिया था।
- दिस इज नॉट राइट अंसर। वह व्यक्ति झल्ला गया था। इस पर अमर ने कहा  था।
- देखिए इतनी तो आती है कि आपके अंग्रेजी के सवाल को समझ सकंू लेकिन इतनी नहीं आती कि उसका उत्तर अंग्रेजी में दे सकूं।
उसका उत्तर सुनकर उनमें से कई हंसे थे। दो एक ने तो कहा भी कि इंट्रस्टिंग। लेकिन एक महानुभव ने सीधा सवाल ही कर दिया।
- यदि हम आपको नौकरी दे देते हैं तो आप काम कैसे करेंगे? हमारे यहां तो आर्टिकल, न्यूज, अंग्रेजी में आते हैं। उसका ट्रांसलेशन कैसे करेंगे?
- माफ करना मैं अनुवादक नहीं हूं। वैसे भी मुझे यदि अच्छी अंग्रेजी आती तो में अंग्रेजी में पत्रकारिता करता। अमर ने तीखा जवाब दिया था। वह थोड़ा उत्तेजित हो गया था और धाराप्रवाह बोलता जा रहा था।
- हिंदी के पाठकों से यह निहायत ही गंदा, भद्दा और अश्लील मजाक है कि उन्हें मौलिक नहीं अनुवाद पढ़ाया जाता है। अंग्रेजी के लेखक ऐसा क्या लिखते हैं कि हिंदी के लेखक नहीं लिख पाते?
- हिंदी के लेखक कूड़ा-कचरा के अलावा और क्या लिखते हैं? इंटरव्यू के पैनल में से किसी ने अपनी घृणा जाहिर की थी।
- जैसा भी लिखते हैं अंग्रेजी वालों से बेहतर लिखते हैं। अमर का आक्रोश भरा जवाब था।
- कितने लेखक हैं हिंदी में जो गंभीर और स्तरीय लिखते हैं?
- देखिये जनाब। हिंदी में लिखने वालों की कमी नहीं है। आप छाप नहीं पाएंगे इतने लोग लिखते हैं। आप हिंदी के लेखक को सम्मान देना ही नहीं चाहते। आप लोग मेंटली सेट हैं कि हिंदी वाला क्या लिखेगा। बेहतर तो अंग्रेजी में ही लिखा जाता है। यहां दोष हिंदी के लेखकों का नहीं है। दोष आपकी मानसिकता का है। चूंकि आपने मान लिया है कि हिंदी दोयमदर्जे की भाषा है। इसलिए हिंदी में लिखने वाला भी दोयमदर्जे का होता है। तो जनाब यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि आप हिंदी में अखबार क्यों निकालते हैं? एक घटिया और असभ्यों की भाषा में अखबार निकालना कुछ समझ में नहीं आया। यह तो वही बात हुई कि जब तक गाय दूध दे वह माता है और जब दूध देना बंद कर दे तो उसे कसाई के हाथ बेच दो। चूंकि हिंदी के अखबार से आपका धंधा चलता है तो हिंदी में अखबार निकालना ठीक है लेकिन हिंदी को सम्मान नहीं दे सकते। उसे एक भाषा के रूप मंे स्वीकार नहीं सकते। यह कैसा  दोगलापन है।
अपने चेहरे पर चुहचुहा आए पसीने को पोछते हुए अमर ने अपनी बात खत्म कर दी। इसके बाद उसने वहां बैठना भी उचित नहीं समझा। अपनी फाइल उठाई और बाहर आ गया। केबिन से बाहर आकर वह विजय के पास बैठ गया। पूरी बात बताई तो विजय ने कहा कि तूने तो काम बिगाड़ लिया। अब देखो किसका काम होता है। करीब बीस लोगों को बुलाया है। वह थोडी देर बातचीत करते रहे। तभी उनके पास एक लड़की आई।
-सर मिस्टर अमर कौन हैं?
- मैं ही हूं। अमर ने कहा।
- सर आप जा सकते हैं। आपको फोन पर बताया जाएगा।
- फोन पर क्या बताया जाएगा, मैं जानता हूं इसीलिए तो मैं आ नहीं रहा था लेकिन आपके यहां से ही फोन गया था। वह लड़की तो पीछे ही पड़ गई। अच्छा भला घूमने जा रहा था। सब कबाड़ा हो गया।
- सॉरी सर। लड़की ने दुखी मन से कहा।
- आप क्यों सॉरी बोल रही हैं?
- वो लड़की मैं ही हूं।
- आप ही हैं! तो देखा? मैं जानता था कि कुछ ऐसा ही होगा।
- मैं शर्र्मिंदा हूं सर।
- अरे भई आप शर्मिंदा होकर अपनी खूबसूरती क्यांें घटा रही हैं। यह तो अच्छा ही हुआ कि इसी बहाने आपके दर्शन हो गए। पता तो चल गया कि मीठा बोलने वाली की सूरत भी भोली सलोनी और सुंदर है।
- कंप्लीमंेट के लिए थैंक्स सर। आप अपना टिकट दे दें तो आपको आने जाने का खर्च दिलवा दंू।
- हां, यह काम आप अच्छा करेंगी। नौकरी तो मिली नहीं, कम से कम आने जाने का खर्च तो मिल जाएगा।
अमर ने अपना टिकट दिया। लड़की लेकर चली गई। इस बीच वह फिर विजय से बातें करता रहा। तभी लड़की पैसा लेकर आ गई। उसने कुछ कागज पर साइन कराये और पैसे अमर को दे दिए। पैसा मिलने के बाद अमर वहां से चल दिया।
- कहां खो गये यार? विजय ने कहा तो अमर चौंक गया।
- खोना कहां है। तुम काम करने लगे तो मैं अतीत के पन्ने पलटने लगा।
- आओ कैंटीन में चलते हैं।
दोनों कैंटिन में आकर बैठ गये।
- और सुना यार क्या हाल चाल है? कैसे कट रहे हैं दिन?
- बहुत बुरा हाल है।
- क्या हो गया? सेहत काफी गिर गई है, बीमार हो गया था क्या?
- हां, अभी सात दिन अस्पताल में रहकर आया हूं।
- क्या हो गया था?
- फेंफड़ांे में पानी भर गया था।
- अब कैसा है?
- अभी तो ठीक हूं। दवा चल रही है। गुर्दे में पथरी हो गई। अब उसका ऑपरेशन करवाना है। बचत तो खत्म करके आ गया। अब क्या करें?
- सुना संस्थान वेतन में कटौती कर रहा?
- कर नहीं रहा है, कर दिया। हालत बहुत खराब है। वेतन बढ़ाने की कौन कहे तनख्वाह ही कम कर दी जा रही है। इतने पर भी यह भरोसा नहीं है कि नौकरी बची रहेगी। यह आर्थिक मंदी तो हम जैसों को ले ही डूबेगी। इधर बीमारी उधर वेतन कटौती दूसरी तरफ भाई को पढ़ने के लिए विदेश भेजा तो दस लाख लोन ले लिया, उसकी किस्त अलग से देना है। सोचा था कि कुछ सेलरी बढ़ेगी तो बोझ कम हो जाएगा। यहां तो सब कुछ उल्टा ही हो गया। कहां से इलाज कराएं? कहां से लोन की किस्त दें। उधर भाई को भी आस्ट्रेलिया में पार्ट टाइम कोई काम नहीं मिल रहा है। अब उसका खर्च भी भेजना होगा।
- आस्ट्रेलिया में तो भारतीय छात्रों पर हमले भी हो रहे हैं?
- हां, यह एक नई आफत आ गई है। दिन रात मन उधर ही लगा रहता है। पूरा परिवार चिंतित है। कब क्या हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। इतना खर्च कर दिये हैं कि वापस आ नहीं सकते। वहां के हालात वहां रहने की इजाजत नहीं देते। बड़ी दुविधा है। क्या करें क्या न करें?
अमर कहना चाहता था कि विदेश में नौकरी या पढ़ाई के लिए नहीं जाना चाहिए लेकिन विजय की व्याथा देखकर वह कुछ कह नहीं पाया।
- कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करें? दो-तीन लाख के शेयर खरीद लिए थे, वह भी डूब गये। आज बेचें तो एक लाख भी नहीं मिलेंगे। घर में किचकिच अलग से शुरू हो गई है।
विजय एक सांस में अपना दुखड़ा कह गया। अमर की समझ में नहीं आ रहा था कि वह किस तरह से विजय को सांत्वना दे।
- क्या सचमुच कंपनी की हालत इतनी खराब है या यह सब मंदी का फायदा उठा रहे हैं? अमर ने सवाल किया।
- विज्ञापन तो कम हो ही गये हैं। अब तो पेज भी घटा दिए गये हैं। फीचर आदि बंद कर दिए गये। दस फीसदी स्टॉफ की कटौती कर दी गई है। अब कहा जा रहा है कि दस फीसदी और की जाएगी। एक बार तो बच गया था। अब देखो इस बार क्या होता है। नौकरी रहती है कि जाती है।
- यह सही है कि अखबारों को विज्ञापन कम मिल रहे हैं। लेकिन सरकार ने विज्ञापन के दाम बढ़ा कर और न्यूज प्रिंट में टैक्स कम करके राहत तो दी ही है। फिर अखबारों ने पेज भी कम कर दिये हैं। ऐसे में वेतन कटौती या छंटनी का मतलब समझ मैं नहीं आता है।
- सही बात है। एक तरफ प्रधानमंत्री कहते हैं कि किसी की नौकरी नहीं ली जाए। दूसरी तरफ आलम यह है कि कंपनियां धड़ाधड़ कर्मचारियों को निकाल रही हैं।
- छंटनी से अच्छा तो यही है कि वेतन ही कम कर दिया जाए। खास करके जिनका वेतन पचास हजार से ऊपर है। उनकी 25 फीसदी सेलरी कम की जा सकती है।
- हां, ऐसा किया जा सकता है। लेकिन यार जो जितना कमाता है उसका खर्च भी वैसे ही बढ़ता जाता है। जिसकी भी सेलेरी कम की जाएगी उसे दिक्कत तो होगी ही। मुझे ही देख लो। पहले छह हजार मिलते थे और आज पचास में भी खर्च पूरा नहीं हो रहा है। आज ही पत्नी से झगड़ा हो गया। वह भी नये पर्दे के लिए।
- तुम्हारी कंपनी की हालत इतनी खराब कैसे हो गई? यह तो बहुत पुरानी और बड़ी है।
- हालत खराब तो कहीं नहीं है। कंपनी के लाभ में कमी नहीं आई है। लाभ को सहयोगी कंपनियों में निवेश किया गया है। ऐसे में कैसे कहा जा सकता है कि कंपनी घाटे में है? हां, कंपनी के लाभ का बड़ा भाग शेयर बाजार में लगा दिया गया था। वह सारा पैसा डूब गया। इसी से यह हाहाकार है।
- ये मंदी कहां ले जाएगी हम लोगांे को?
- कुछ कहा नहीं जा सकता। इससे निपटने के लिए तो अभी जी-20 के देशों का सम्मेलन हुआ है। जिसमें तय किया गया है कि एक बिलियन डालर का निवेश किया जाएगा? ताकि मंदी को भगाया जा सके।
- यह मंदी से उबरने की कवायद है या पूंजीवादी व्यवस्था को बचाने की?
- मंदी से उबरेंगे तो व्यवस्था बचेगी।
- और इसका बचना मुश्किल लग रहा है। अमेरिका जोकि इस व्यवस्था का अगुआ है वही इससे सबसे ज्यादा प्रभावित है। हालत यह है कि आज अमेरिका चीन और भारत से अपनी प्रतिभूतियां गिरवी रखकर कर्ज ले रहा है। दुनिया को कर्ज बांटने वाला विश्व का सबसे बड़ा कर्जदार हो गया है।
- इतिहास गवाह है कि आर्थिक मंदियां अपने साथ युद्ध लेकर आई हैं। यह मंदी भी उसी ओर बढ़ रही है। अमेरिका की विशालकाय सैन्य उपकरणों का उत्पादन करने वाली कंपनियां बेचैन हो उठी हैं। वह दुनिया को अशांत कर अपना माल खपाने की व्यवस्था करने की जुगत में लग गई हैं।
- दिक्कत यह है कि यह मंदी मांग की कमी से नहीं आई है। पहले की मंदियों का कारण डिमांड में कमी रही है। इस बार मंदी वित्तीय तंत्र ढहने से आई है। यह पूंजीवाद के लिए बड़ा खतरा है। वित्तीय तंत्र पूंजीवाद का बड़ा हिस्सा होता है। यदि यह ठीक से काम न करे तो कंपनियां बंद होने लगती हैं। कंपनियां बंद होंगी तो बेरोजगारी बढ़ेगी। इसके बाद तो बाजार में उत्पादों की मांग भी कम होगी। उसकी भी मार कंपनियों पर पड़ेगी। नतीजा यह होगा कि पूरी व्यवस्था धड़ाम हो जाएगी। आज कंपनियां धड़ाधड़ दीवालिया और बंद हो रही हैं। इस समय पूरी तरह से अनिश्चितता का माहौल है। कोई किसी पर यकीन नहीं कर रहा। कर्ज लेकर अधिक खर्च के कारण यह संकट पैदा हुआ है। उपभोक्ता से लेकर कंपनियां तक कर्ज के दम पर अपना विकास करने में लगी थीं। परिणाम सामने है। ऐसी व्यवस्था में यदि एक डूबता है तो कइयों को ले डूबता है। एक कंपनी डूब गई और दूसरी कंपनियों का कर्ज नहीं दे पाई तो वे कंपनियां भी डूब जाती हैं। फिर आगे भी यही प्रक्रिया चलती है। जोकि चल पड़ी है। अमेरिका में कंपनियां इसी कारण डूब रही हैं। यही कारण है कि अरबों का पैकेज भी इन्हें नहीं उबार पा रहा है।
- इस हिसाब से तो इस व्यवस्था को जाना ही होगा।
- हां, इसकी आयु पूरी हो गई है। हम लोग अपनी जिंदगी में बहुत उथल-पुथल देखने वाले हैं। यह शुरूआत भर है। अभी देखो आगे क्या होता है?
- क्यों डरा रहे हो यार।
- डरा नहीं रहा। जहां तक मैं समझ पा रहा हूं। यही सच है। यह व्यवस्था अपने को बचाने के लिए कुछ भी कर सकती है। अमेरिका, अफगानिस्तान और ईराक में लड़ ही रहा है। पाकिस्तान के हालात भी काबू से बाहर हैं। उत्तर कोरिया पर अमेरिका की टेढ़ी निगाह है। ईरान भी दहाड़ रहा है। इजराइल और फिलीस्तीन मंे लड़ाई चलती ही रहती है। कहने का मतलब दुनिया बारूद के ढेर पर है। एक चिंगारी उठने की देर है। इतने बम दगेंगे कि सभ्यता अपने अस्तित्व के लिए भीख भी नहीं मांग पाएगी।
यह आर्थिक संकट मानव सभ्यता के संकट मंे भी बदल सकता है। यह तभी होगा जब इसे बचाने के लिए घातक कवायद की जाएगी। बेहतर होगा कि इस व्यवस्था का मर्सिया पढ़ दिया जाए। बदले में एक ऐसी मानव कल्याणकारी व्यवस्था की रचना की जाए जिसमें मानव  सभ्यता फले-फूले। उसका विनाश न हो।
- तुमने तो इतना डरा दिया कि जीने की इच्छा ही खत्म हो गई। लगता है कि ऐसे में बीमारी का इलाज कराके क्या होगा? अब कुछ अपनी सुनाओ। तुम्हारा क्या हालचाल है? विजय ने विषय परिवर्तन किया। वह नहीं चाहता था कि इस विषय पर अमर और बोले। विजय को पता था कि बहस करना अमर को बहुत भाता है। अव्वल तो वह बोलता नहीं और जब शुरू हो जाता है तो रोकना मुश्किल होता है।
- मेरा हाल भी तुम्हारे जैसा ही है। बैंक से कर्ज लेकर मकान ले लिया था। बीच में श्रीमती जी की सेहत खराब हो गई तो इलाज के लिए एक लाख पर्सनल लोन ले लिया। अब इन्हीं कर्जों को भर रहा हूं। आज हालत यह है कि यदि मेरी नौकरी चली गई तो मुझे बर्बाद होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। नौकरी नहीं रहेगी। तो कर्ज की किस्ते दे नहीं पाउंगा। बच्चे पढ़ नहीं पाएंगे। भोजन-पानी कहां से मिलेगा? क्या होगा सोचकर घबरा जाता हूं। अमर ने कहा।
- तुम्हारी नौकरी को भी खतरा है?
- जो प्रक्रिया तुम्हारे अखबार में चल रही है। वैसा ही हाल हमारे यहां भी है। अब तक 20 फीसदी लोगों की नौकरी जा चुकी है। अपनी देखो कब तक बचती है। बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी?
- यार, क्या वकई इतनी मंदी है? है भी तो क्या कास्ट काटिंग के नाम पर लोगों की नौकरी लेना ही एक मात्र उपाय है? एक तरफ सरकार कहती है कि हमारी अर्थव्यवस्था ग्रोथ कर रही है। दूसरी तरफ यह मंदी और छंटनी। समझ में नहीं आता कि जब अर्थव्यवस्था 7 से 8 फीसदी की दर से विकास कर रही है तो मंदी कहां है?
- दरअसल, मंदी का जितना खौफ अपने देश में प्रचारित किया जा रहा है वैसी स्थिति है नहीं। सभी कंपनियां सरकार से फायदा लेने के लिए माहौल क्रिएट कर रही हैं। यह सरकार पर दबाव बनाने का कारपोरेट तरीका है। कर्मचारियों की नौकरी लेकर कंपनियां ‘फील गुड’ कर रही हैं। किसी कंपनी के बड़े कर्मचारी की छंटनी या वेतन कटौती नहीं हो रही है। जबकि जब भी कोई कंपनी डूबती है या घाटे में जाती है इसके लिए यही दोषी होते हैं। हम सब यह कैसे भूल सकते हैं कि कुछ साल पहले एक अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी दिवालिया हो गई। उसके पीछे कंपनी में बड़े कर्मचारियों की ऐआशी जिम्मेदार थी। जिन्होंने अपने एशो-आराम के लिए कंपनी को चूना लगाया। ऐसा दूसरी कंपनियों में नहीं होता होगा इसकी क्या गारंटी है?
- हां, अपने ही देश में एक कंपनी के मालिक ने करोड़ों रुपये के घपले की बात खुद स्वीकारी है। मजे की बात है कि अपराधी खुद चलकर थाने गया और बोला कि हां, मैंने गुनाह किया है। जबकि यह खेल वर्षों से चल रहा था। अपने आपको लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहने वाला मीडिया इस खबर को सूंघ तक नहीं पाया। वैसे तो अंग्रेजी  मीडिया बड़ी तोप चलाने की डींगे मारता है लेकिन इस मामले में सब फुस्स।
- क्या मीडिया और क्या लोकतंत्र का प्रहरी। सभी अपने फायदे के लिए बिक गए हैं। जिस कंपनी का विज्ञापन छापते हैं उसके गलत काम को भी सपोर्ट करते हैं। यह है आधुनिक मीडिया की नैतिकता। दरअसल, मुनाफे का कोई नैतिक मूल्य नहीं होता। मुनाफाखोर पूंजीपति और सूदखोर में कोई अंतर नहीं होता। दोनों ही दूसरे की जिंदगी को नरक बना देते हैं।
अमर को याद आया एक विधानसभा का चुनाव। मीडिया जगत को राजनीतिक दलों ने खरीद लिया था। खासकर के हिंदी अखबरों में तो विज्ञापन खबरों की तरह छप रहे थे। साफ-साफ यह पत्रकारिता के मानदंडों के खिलाफ था। लेकिन पैसा आ रहा था तो नैतिकता की किसे चिंता थी? सभी बहती गंगा में हाथ धो रहे थे। संवाददाता से लेकर संपादक और मालिक तक। सभी के बैंक एकाउंट में पैसा जा रहा था। सभी खुश थे। पाठक समझ नहीं पा रहा था कि यह सब क्या हो रहा है? चुनाव आयोग भी नहीं समझ पा रहा था कि यह सब क्या है? विज्ञापन है कि खबर? ऐसा इसलिए किया जा रहा था ताकि जनता भ्रमित हो जाए और प्रत्याशी चुनाव आयोग को खर्च का ब्योरा देने से बच सके। लेकिन हुआ क्या? जनता बिल्कुल भी भ्रमित नहीं हुई। वह इस खेल को समझ गई लेकिन अखबारों की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता ध्वस्त हो गई। पत्रकारों, संपादकों की मूर्ति खंडित हो गई। पत्रकारिता कलंकित हो गई। ऐसे बिकाउ लोगों पर कोई कैसे यकीन करेगा? यही खेल  लोकसभा चुनाव में भी खेला गया। जिसमें एक दो अखबारों ने सहभागिता नहीं निभाई बाकी तो सभी ने खुला खेल फरूखाबादी बना दिया।
जिस प्रत्याशी ने पैसे नहीं दिये उसकी एक लाइन भी नहीं छपी। इसे ही कहते हैं कि गले में नैतिकता का ढोल है और कमर के नीचे कपड़ा ही नहीं है।
- क्या सोचने लगे?
- कुछ नहीं। अखबार वाले चुनाव में मंदी दूर कर लिए।
- कैसे?
- नेताओं से विज्ञापन लेकर। बड़ा आश्चर्य होता है। संपादकीय पेज पर ज्ञान और नैतिकता की गंगा बहती है और खबरें विज्ञापन के हिसाब से तय की जाती हैं। क्या यही कारपोरेट कल्चर है? कुछ अखबारों ने तो पैसा न देने वाले नेताओं का बहिष्कार ही कर दिया। उनकी खबर ही नहीं छापी। जिसने पैकेज दिया वही छपा।
- जी हां, यही कारपोरेट कल्चर है।
- इंडिया में कारपोरेट कल्चर। बाकि तो ‘फील गुड’।
अमर का मोबाइल बजा तो उनकी वार्ता टूट गई। उधर से अनु थी।
- हाय! हाउ आर यू?
- ठीक हूं। आप कैसी हैं?
- फिल्म देखने का मन कर रहा है।
- तो .... देखो।
- आ जाओ।
- कहां? अनु ने उसे स्थान का नाम बताया।
- मुझे कुछ काम है। मैं नहीं आ सकता।
- मैं इंतजार करूंगी। कहते हुए उसने फोन काट दिया।
अमर ने पलटकर अनु को फोन मिलाया तो एक रिंग जाने के बाद ही फोन काट दिया गया। अमर ने फिर मिलाया तो फिर वैसा ही किया गया। इसके बाद अमर ने एसएमएस भेजा कि मैं नहीं आ सकता। उधर से तुरंत जवाब आया कि आई वेट यू।
- कहां उलझ गये यार? कौन बुला रही है? भाभी जी को तो वहां छोड़ आये हो और यहां चक्कर चला रहे हो?
- चक्कर नहीं चला रहा हूं। जिस टीवी प्रोडक्शन कंपनी में इंटरव्यू देने गया था। वहां अंग्रेजी के अल्पज्ञान के कारण नौकरी तो नहीं मिली यह मोहतरमा टकरा गईं। जनाबे आली अंग्रेजी में कविताएं और कहानियां लिखती हैं। उसी संबंध में बात करना चाहती हैं।
- हद में ही रहना। विजय ने कहा।
इस बीच अमर को अनु के ख्यालों में खो सा गया। उसने बेचैनी सी महसूस की और विजय को कोई उत्तर नहीं दिया।
- जाओ भई मिलो लेकिन संभलकर।  किसी शायर ने कहा है कि ये इश्क नहीं आसां, इतना जान लीजिए। आग का दरिया है और डूब कर जाना है। दीपक की दीवानगी में पतंगा अपनी जान ही गंवाता है। वैसे भी तुम्हें आरएन तो याद ही होंगे।
विजय ने अमर को सचते किया। साथ में ऐसा उदाहरण रख दिया कि अमर अनु के ख्यालों से बाहर निकल आया।
आरएन को अमर कैसे भूला सकता था। इश्क के चक्कर में उन्हें अपनी नौकरी ही नहीं शहर तक छोड़ना पड़ा था।
अमर जिस अखबार में काम करता था उसमें दो लड़कियों ने ज्वाइन किया था। संपादक ने उन दोनों को फीचर पेज की जिम्मेदारी सौंपी थी। लेकिन उन दोनों को कुछ नहीं आता था। हां, अंग्रेजी अच्छी बोल लेती थीं। संपादक ने उनका अंग्रेजी का टेस्ट लिया था।
संपादक की यह आदत थी कि वह किसी को भी नौकरी देने से पहले उसके अंग्रेजी ज्ञान के बारे में जरूर पूछते थे। यदि वह न कह देता था तो उसे लौटा देते और यदि हां कह देता तो उसे अंग्रेजी के अखबार की कोई खबर पकड़ा देते। कहते अनुवाद करके दिखाओ। लेकिन ऐसा उसी के साथ करते जो सिफारिशी न होते। जो कहीं से सिफारिश लगा कर आते उन्हें वैसे ही रख लेते। न केवल नौकरी पर रख लेते उन्हें संस्थान में एडजेस्ट भी करते।
एक बार तो उन्होंने एक लड़का ऐसा रख लिया था जिसे पत्रकारिता के बारे मंे क ख भी नहीं आता था। उसे उन्होंने एडजस्ट किया। एक साल बाद वह अनुभवी पत्रकार बन गया। यह और बात है कि अंग्रेजी उसे नहीं आती थी लेकिन उसकी नौकरी पर उनके रहते तक खतरा कभी नहीं आया।
फीचर सेक्शन में रहते हुए उन लड़कियों ने आरके नाम के एक लड़के को पकड़ा। वे जो भी कूड़ा-करकट लिखतीं आरके अपना काम करने के साथ उनका कूड़ा भी ठीक करता। यहां तक की पेज भी बनवा देता। लेकिन ऐसा कितने दिन तक चलता? संपादक फीचर का जो स्तर चाहते थे, वह नहीं हो पा रहा था। लिहाज़ा उन लड़कियों को न्यूज सेक्शन में डाल दिया। इस विभाग के प्रभारी थे आरएन। उनमें से एक लड़की ने जिसे कुछ भी नहीं आता था, पाला बदल लिया। उसने आरएन को अपने हुस्न से ऐसा प्रभावित किया कि उसका सिक्का चलने लगा। यहां दूसरी लड़की चूक गई। इससे पहले दोनों में खूब बनती थी अब दोनों एक दूसरे की दुश्मन हो गईं।
बिंदू को आरएन का संरक्षण मिला तो उसकी नौकरी बच गई। उसकी बनाई खबरें भी छपने लगी। आरएन खुद उसकी खबरों को ठीक कर देते। लेकिन सोनम की बनाई खबरें न छपतीं। वह अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद करके देती तो कोई उसे देखने तक की भी जहमत न उठाता। अखबार छप कर आता और अपनी बनाई खबर छपी न देख कर सोनम फुक जाती। धीरे-धीरे उसने काम करना ही छोड़ दिया। आफिस आकर इधर-उधर लोगों से बातंे करती या फिर फोन पर बातें करती। सोनम बोल्ड किस्म की लड़की थी। सेक्स के संबंध में भी वह लड़कों से खुलकर बातें कर जाती थी। इसी बीच उसका आफिस के ही एक लड़के से दोस्ती हो गई और उसने बिंदू की तरफ ध्यान देना बंद कर दिया।
इधर आरएन और बिन्दू का इश्क परवान चढ़ने लगा। आरएन शादी-शुदा थे और बिन्दु भी। एक दिन अमर आफिस पहुंचा तो यह चर्चा तेज थी कि आरएन और बिन्दू किसी होटल में देखे गये थे। आफिस के ही किसी बंदे ने देखा है। किसी को कोई आश्चर्य नहीं हुआ। अब तो वह लोग आफिस में ही एक दूसरे को चिकोटी काटने लगे थे। दोनों अगल-बगल बैठते और पैर से एक दूसरे को छेड़ते रहते। ऐसा करते उन्हें केबिन में बैठे अन्य सहयोगी भी देखते। पीठ पीछे सब चरचा करते लेकिन सामने सब भाई साहब कहते और बिंदू मैडम बनी हुई थी।
एक दिन अचानक आरएन आफिस नहीं आये। अफवाह उड़ी कि वह नौकरी छोड़ गये। उन्होंने ऐसा क्यों किया? हर किसी की जुबान पर यही सवाल था। छोड़ गये तो कहां गये? यह भी किसी को पता नहीं था।
धीरे-धीरे बात आई गई हो गई लेकिन करीब दो माह बाद फिर यह चर्चा होने लगी कि आरएन नौकरी छोड़कर गये नहीं बल्कि उन्हें भाग जाने के लिए धमकाया गया था।
दरअसल, उनके इश्क की जानकारी उनकी पत्नी और बिन्दू के पति को भी हो गई थी। आरएन की पत्नी तो क्या करती, लेकिन बिन्दू के पति ने एक दिन उनको रास्ते मंे पकड़ लिया और धमकाया कि अपनी जान की सलामती चाहते हो तो कल से इस शहर में नजर मत आना। बताते हैं कि उसने यह धमकी कनपटी पर बंदूक रखकर दी थी। किसी अच्छे बच्चे की तरह आरएन ने उसकी आज्ञा का पालन किया और उसी दिन आफिस आने के बजाए शहर छोड़कर चले गए।
बिन्दू कुछ दिन आफिस आती रही लेकिन फिर उसके हुश्न का जलवा किसी और पर नहीं चला। जलवा चल भी जाता लेकिन आरएन के हश्र ने कई मनचलों के हौसलें को पस्त कर दिया।
कुछ दिन बाद बिंदू काम में फेल कर दी गई। उसका डिमोशन कर दिया गया। विरोध में उसने नौकरी छोड़ दी। यह और बात थी कि बिंदू की अंग्रेजी अच्छी थी लेकिन उसे हिंदी लिखनी नहीं आती थी। यही कारण था कि उसने सफल होने के लिए अपने हुस्न का सहारा लिया था। यह अखबार छोड़ने के बाद वह दूसरे अखबार में भी गई। वहां भी उसने वही हरकतें जारी रखीं।
- फिर क्या सोचने लगे? विजय ने कहा तो अमर हड़बड़ा गया। भाई अब मैं चलता हूं। कुछ काम कर लें। आजकल अंग्रेजी से आर्टीकल ट्रांसलेट करने पड़ रहे हैं।
- पहले कौन से नहीं करने पड़ते थे?
- पहले तो केवल कालमिस्टों के ही करने होते थे। आजकल तो पैसे बचाने के लिए नेट से मैटर उड़ाकर काम चलाया जा रहा है।
- ये हिंदी के अखबार वाले पता नहीं कब सुधरेंगे। जिस भाषा में अखबार छापते हैं उसी का सम्मान नहीं करते। उसी में लिखने वाले लेखकों को बेवकूफ समझते हैं। अंग्रेजी के लेखक को अच्छा पेमेंट करेंगे। वही लेख हिंदी का लेखक लिख देगा तो पैसे ही नहीं देंगे। देंगे तो अंग्रेजी वाले का आधा। यह कहां का न्याय है? हिंदी के पाठक क्या बेवकूफ होते हैं? जो उन्हें दोयमदर्जे की सामग्री यह लोग परोसते हैं?
- जो अपनी मातृ भाषा का सम्मान नहीं करते वे कहीं सम्मान नहीं पाते। बताते हैं कि इस देश की एक महिला प्रधानमंत्री किसी विदेश यात्रा पर गईं थीं। वहां उन्होंने अंग्रेजी में बात की तो वहां के राष्ट्राध्यक्ष ने उनसे पूछा कि क्या आपके देश की भाषा इंग्लिश है? न में जवाब देने पर उसने कहा था कि फिर आप हिंदी क्यों नहीं बोलतीं?
अमर दोस्त के कार्यालय से बाहर निकला तो बड़ी देर तक इसी उहापोह में खड़ा रहा कि कहां जाए? अनु के पास या जिस दोस्त के पास रुका है वहां। उसे याद आया कि अभी तो कोई दोस्त कमरे पर आये नहीं होंगे। अनिल और सागर नौ बजे तक ही आएंगे। ऐसे में वहां जाकर मैं करूंगा भी क्या? लेकिन अनु के पास भी जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी।
उसे बार-बार याद आ रहा था कि वह शादीशुदा है। अनु के पास जाने का मतलब आग से खेलना होगा। यदि वह अनु के आकर्षण में फंस गया तो एक साथ कई की जिंदगी तबाह हो जाएगी। उसे अपने बेटे किसी फैक्ट्री में काम करते नज़र आए और छोटे के साथ उसकी मां भीख मांगती नज़र आई। उसके चेहरे पर पसीना आ गया। नहीं मैं ऐसा कभी नहीं कर सकता। उसने अपने आपसे कहा। मैं अब अनु से नहीं मिलूंगा। इसी में सबका भला है। लेकिन इस प्रण पर वह अधिक देर तक कायम नहीं रह पाया। उसके दिल ने कहा कि मिलने में कोई बुराई नहीं है। बात को आगे मत बढ़ने देना। लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है? लड़के-लड़की की दोस्ती की परिणति अंततः सेक्स में बदल जाती है। तो क्या हुआ? यदि वह राजी है तो तुम्हें क्यांे ऐतराज है? लेकिन इसके बाद यदि उसने पीछा नहीं छोड़ा तो? अरे तुम्हें कौन सा इस शहर में रहना है। दो-चार दिन में चले जाना है। इत्तफाक से मिल गई है तो.... तो क्या साले लालच में मारे जाओगे। वह कोई ऐसी-वैसी लड़की नहीं है। अरबपति की बेटी है।
इधर इस उधेड़-बुन में अमर बस स्टाप पर  खड़ा है तो उधर मॉल के सामने अनु घड़ी देखते हुए चहलकदमी कर रही है। संगमरमर के पत्थर की फर्श दूधिया रोशनी में चमक रही थी। माल के अंदर के शोरूमों में रोशनी की मौजूदगी में विभिन्न तरह के कपड़े व अन्य चीजें चमक रही हैं। लेकिन अनु का ध्यान केवल घड़ी पर है। वह कभी बाहर रखी बेंच पर बैठ जाती तो कभी टहलने लग जाती। कभी फर्श पर ही बैठ जाती। उसके आस-पास से लोग आते और चले जाते लेकिन उसका ध्यान किसी पर भी नहीं जाता। कई जोड़े बेंच पर बैठ बातें कर रहे थे। वह उन्हें देखकर गुस्से से भर जाती।
उसने कई बार सोचा कि वह अमर को फोन करे लेकिन रुक गई। यदि मेरा यह हाल है तो उसका भी तो होना चाहिए। मैं लड़की होकर इतनी बेचैन हूं तो वह क्यों नही हो सकता?
क्यों होगा? आखिर वह शादीशुदा है। हां, यह बात तो है। मैं भी पागल हूं। तीन बच्चे के बाप के लिए ऐसी उतावली हो रही हंू। न आए साला तो अच्छा है। एक दो दिन के बाद सब खत्म हो जाएगा। कौन सा पहली बार किसी के लिए ऐसी बेचैनी उठी है।
उसे याद आया कि जब वह बारहवीं कक्षा में पढ़ रही थी। तब उसे अपने क्लास का ही एक लड़का अच्छा लगने लगा था। जिस दिन वह स्कूल नहीं आता उस दिन अनु बेचैन हो जाती। उसके दोस्तों से पूछती थी अमन क्यों नहीं आया? लेकिन अमन था कि उसकी तरफ ध्यान ही नहीं देता था। एक दिन पता चला कि वह तो किसी और लड़की को चाहता है। प्यार में अनु को यह पहली चोट थी।
इसके बाद वह कालेज में आ गई। यहां एक साल तक तो कोई लड़का उसे पसंद ही नहीं आया। लेकिन दूसरे साल एक लड़के के प्रति उसका आकर्षण बढ़ा। उसने उससे दोस्ती भी कर ली लेकिन एक दिन कालेज कैटिन में उसकी बातें सुनकर उसके सारे सपने धराशायी हो गए। वह लड़का अपने दोस्त से कह रहा था कि अनु को तो मैं पका रहा हूं। जैसे पका आम खाने में मजा आता है, वैसे ही उसे भी पका कर खाऊंगा। फिर चूस कर छोड़ दूंगा। मुझे कौन सी लड़कियों की कमी है। लेकिन यह ज्यादा स्मार्ट है। साली हाथ नहीं रखने दे रही है। आखिर कब तक शरीफ बना रहूंगा। आजतक कितनी लड़कियों को एंज्वाय कर चुका हूं। उन्हें बिस्तर तक लाने मेें दो माह का भी वक्त नहीं लगा। इसके पीछे पूरे छह माह से लगा हूं। भाव ही नहीं दे रही है। जब से इसके पीछे पड़ा हूं तब से चार लड़कियों को निपटा चुका हूं। लगता है इसे अपना असली रूप दिखाना ही पड़ेगा।
अनु ने यह बातें सुनीं तो उसे लगा कि उसे जलती आग में फेंक दिया गया है। एक बार तो उसने सोचा चलकर इसे चार झापड़ लगाती हूं। लेकिन यह सोचकर की इससे बात बिगड़ जाएगी। वह वहां से चुपचाप चली गई और एक माह तक कालेज ही नहीं गई। इसके बाद वह कालेज गई तो उस लड़के से बचती रही। अपने को हमेशा व्यस्त रखती। इसी बीच वह लड़का एक लड़की से बालत्कार के केस मंे जेल चला गया। इसके बाद अनु ने राहत की सांस ली। फिर उसने कालेज में किसी लड़के की तरफ देखा भी नहीं। हर लड़के मंे उसेे वही लड़का नज़र आता। इस घटना के बाद वह अंतरमुखी भी हो गई। वह अपने आपको व्यस्त रखने के लिए लिटरेचर पढ़ने लगी। किताबें पढ़ते-पढ़ते वह कविता और कहानियां लिखने लगी। लेकिन उन्हें आज तक कहीं छपने के लिए नहीं भेजा। इसी बीच उसने एमबीए भी कर लिया। इसके बाद अपने पिता के व्यवसाय में मदद करने लगी। लेकिन उसका मन पिता के कारोबार में न लगता। वह अक्सर नई-नई किताबें खरीद कर लाती और उन्हें पढ़ती रहती। कभी समय मिलता तो लैपटॉप पर कुछ लिख लेती। कुछ दिनों से एक पिफल्म प्रोडेक्शन कंपनी में बतौर कहानी और पटकथा लेखक के तौर पर जुड़ी है।
- हैलो। अमर ने कहा तो अनु चौक गई। पलट कर अमर की तरफ देखा और धम्म से पास की बेंच पर बैठ गई। अमर भी उसके पास बैठ गया। थोडी देर तक दोनों मौन रहे। हालांकि बोलने के लिए दोनों बेचैन हो रहे थे। लेकिन पहल करने के लिए उपयुक्त शब्द नहीं मिल रहे थे। अनु इसलिए भी चुप थी कि उसे गुस्सा आ रहा था। वह सोच रही थी कि गुस्से में कुछ बोल दिया और यह चला गया तो। इससे अच्छा है गुस्सा ठंडा होने दे।
- ज्यादा देर इंतजार करना पड़ा क्या? अमर ने पहल की। बदले मंे अनु ने अमर को केवल घूरा।
- बस से आना था। मिलती तभी तो आता। आपकी दिल्ली है। यहां कब जाम लग जाए पता ही नहीं चलता। ऐसे हालात में मेरा क्या कसूर? अमर ने सफाई दी।
- आप तो बोले थे कि मैं नहीं आउंगा।
- ठीक है चला जाता हूं? अमर खड़ा हो गया। अनु भी कुछ नहीं बोली। वह भी जानती थी जो मना करने के बावजूद आया है वह जाएगा कहां?
- आप क्यों जाओगे, मैं ही चली जाती हूं। अनु ने कहा और खड़ी हो गई। अमर के पास आकर बोली कि लोग बनते राइटर हैं और किसी का इमोशन तक नहीं समझते। यह कहकर आगे बढ़ने लगी तो अमर ने उसकी कलाई पकड़ ली। दो जोड़े बैठे उन्हें देख रहे थे। उनकी इस हरकत पर वह मुस्कुराये और यह जानने के लिए उन पर निगाह टिका दी की अब आगे क्या होता है।
अमर ने अनु को गौर से देखा। इस समय वह टाइट काली पैंट और टाइट ब्लू टी शर्ट पहने थी। इस पहनावे में उसके शरीर की बनावट किसी मूर्ति की तरह उभर रही थी। एक बार को तो अमर के मन में आया कि अनु को बाहों में भर ले लेकिन फिर उसे यह ख्याल आया कि वह पब्लिक प्लेस पर है।
- क्या कर रहे हो? हाथ टूट जाएगा। अनु ने कहा तो उसे ध्यान आया कि उसने किसी लड़की का हाथ पकड़ रखा है।
- आप तो बहुत कुछ तोड़ कर जा रही हैं। मुझे हाथ तोड़ने का उलाहना दे रही हैं।
- अच्छा। उल्टा चोर कोतवाल को डांटे।
- अरे वाह। मैडम तो हिंदी की कहावत भी जानती हैं।
- हिंदी किसी की बपौती है क्या?
- मैडम, मेरे चक्कर मंे पड़ोगी तो अंग्रेजी भूल जाओगी।
- अपनी सोचो। कहीं हिंदी भूल गए तो क्या होगा?
- काश ऐसा हो पाता।
- मेरी संगत कर लो हो जाएगा।
 वह बातों में लगे थे कि उनके पास एक छोटा बच्चा आ गया। कोई तीन साल की उम्र रही होगी उसकी। बच्चे ने आकर अनु के पैर को पकड़ लिया। उसे देखकर अनु ने उसे गोद में उठा लिया। अमर को अपना छोटा बेटा याद आया। वह भी ऐसा ही चंचल है। अनु बच्चे को प्यार करने लगी। यह देखकर अमर बोला कि बच्चे भी कितने खुशनसीब होते हैं। उन्हें कोई भी गोद मंे ले लेता है। किस भी कर लेता। अमर की बात सुनकर अनु बोली कि अब आप सोच रहे हैं कि काश मैं भी बच्चा होता। ये पुरुष भी न जाने कैसी-कैसी कल्पानाएं करते हैं।
तभी बच्चे की मां आ गई। वह जींस की पैंट और टी शर्ट पहने थी। उसके साथ एक आठ-नौ साल का बच्चा और भी था। महिला ने आकर अनु से बच्चे को ले लिया। अमर उसकी उम्र का  अंदाजा लगाता रह गया।
- क्या देख रहे हो? वह दो बच्चों की मां है उसे तो बख्श दो।
- मैं कौन सा उससे बलात्कार कर रहा हूं।
- इस तरह घूरना भी तो बलात्कार है।
- मैं घूर नहीं रहा हूं।
- फिर क्या कर रहे हो?
- मैं उसे देखकर यह अंदाजा लगाने का प्रयास कर रहा हूं कि मोहतरमा की उम्र क्या होगी? दाएं-बाएं और पीछे से तो इन्हें हर कोई लड़की ही समझेगा। हां, चेहरा और बच्चे देखकर कोई कह पाएगा कि यह अम्मां हैं। पैंट और टी शर्ट में अम्मां..
- पहली बार देख रहे हो क्या?
- हां यार।
- कहां रहते हो?
- भारत में।
- तो ये कौन सी जगह है?
- इंडिया।
- भारत और इंडिया में क्या फर्क है?
- भारत में हिंदी या स्थानीय भाषा बोलने वाले गरीब लोग रहते हैं। जिनकी महिलाएं साड़ी या सलवार शूट वगैरह पहनती हैं।
- और इंडिया में?
- अंग्रेजी बोलने वाले, अंग्रेजों की तरह रहन-सहन वाले, पैसे वाले लोग रहते हैं। जिनकी महिलाएं पैंट और शर्ट वगैरह पहनती हैं।
- आपने तो इस देश को ही बांट दिया।
- काश ऐसा हो पाता। हालांकि भारत का विभाजन धर्म के आधार पर हो चुका है लेकिन पाकिस्तान का विभाजन भाषा के नाम पर हो गया। मुझे डर है कि यदि इंडिया और भारत के बीच ऐसी ही दूरी बढ़ती रही तो एक दिन भारतीय अलग भारत की मांग जरूर करेंगे। फिर इस देश का विभाजन हो जाएगा। एक बनेगा भारत और दूसरा इंडिया। फिर इतिहासकार इस विभाजन के लिए दोषी लोगों को खोजेंगे और लिखेंगे। लेकिन उन्हें कोई एक व्यक्ति  इसके लिए दोषी नहीं मिलेगा। यह ऐसी साजिश है जिसमें जाने अनजाने करोड़ों लोग शामिल हैं।
- हद हो गई यार। जिसके बच्चे हो गये तो क्या वह साड़ी पहन कर घूमेगी? इस ड्रेस में हम लेडीज कम्फर्टेबल फील करती हैं। साड़ी में तो लगता है जैसे जाल में फंसा दिया गया है। अनु ने कहा।
- आप इंडियन वीमेन हैं न। आपको भारतीय महिलाओं का यह पहनावा कहां से पसंद आएगा।
- आप पता नहीं क्या कहते रहते हो। मुझे तो भूख लगी है। चलो पहले कुछ खाते हैं। अनु अमर का हाथ पकड़ कर खींचने लगी।
वह उसे एक विदेशी कंपनी के रेस्टोरेंट में ले आई। उसके अंदर आते ही अमर को गर्मी से ठंडी का एहसास हुआ। दोनों एक टेबल पर बैठ गये।
- क्या खाओगे?
- जो आप खाएंगी मैं भी खा लूंगा। मैं ठहरा देशी आदमी, देहाती भारतीय। ऐसे विदेशी रेस्टोरेंट मंे पहली बार आया हूं। कैसे कह दूं कि क्या खाउंगा?
- इसमंे देखकर बताइए। अनु ने एक खूबसूरत पुस्तिका उसके आगे कर दी। अमर ने उसे देखा। उसमेें उस रेस्टोरंेट में बनने वाले व्यंजनों को लिखा गया था। साथ ही उनका दाम भी लिखा गया था। अमर की समझ में नहीं आया कि वह किस डिश का नाम ले। कौन कैसा होता है उसे पता ही नहीं था। यदि किसी का नमा ले ले और वह अच्छा न हो तो अनू हंसेगी। यही सोच कर वह कुछ नहीं बोला।
- क्या हुआ? अब तो कुछ बोलो।
- ये अंग्रेजी मंें लिखा है। मुझे पढ़ना नहीं आता। अमर ने झूठ बोला। उसने पढ़ लिया था। लेकिन संकोच मंे किसी डिस का नाम नहीं ले रहा था।  इसलिए उसने बहाना मार दिया।
- आपको पढ़ना-वढ़ना सब आ रहा है लेकिन बदमाशी कर रहे हैं।
- आप जो खाएंगी मैं भी वही खा लूंगा।
अनु ने आर्डर किया और अमर रेस्टोरेंट को निहारने लगा। लगभग सभी टेबलों पर जोड़े ही बैठे थे। किसी पर प्रेमी-प्रेमिका तो किसी पर पति-पत्नी। कुछ लड़कियों का तो कुछ लड़कों का भी गु्रप था। अमर सोचने लगा इंडिया में विदेशी रेस्टोरंेट और उसमें फास्ट-फूड खाते इंडियन। उसकी आंखों के सामने एक दृश्य रील की तरह चलने लगा।
कुछ दिन पहले वह किसी काम से दिल्ली आया था। सुबह की ट्रेन से जालंधर जा रहा था। ट्रेन नई दिल्ली स्टेशन से थोड़ी ही दूर गई होगी कि रेलवे पटरी के किनारे बहुत सारे लोग शौच करते नजर आए। ट्रेन आती देख सबने सिर झुका लिया लेकिन अपनी जगह से उठे नहीं। लैट्रिन की गंध का एक झोंका आया और ट्रेन में बैठे लोगों ने अपनी नाक पर रूमाल रख ली। कुछ ने तो खिड़की भी बंद कर ली। कइयों ने इस तरह शौच करने वालों को भद्दी-भद्दी गालियां दीं। उनका मानना था कि इन लोगों ने देश को गंदा कर दिया है। अमर सोच रहा था कि इनका क्या कसूर है? यदि इन्हें इनकी मेहनत के बराबर भी मजदूरी नहीं मिलेगी तो इनका जीवन स्तर कैसे सुधरेगा? देश की राजधानी में कितने फैक्ट्री वाले हैं या कितने दुकानदार और शोरूम वाले हैं जो अपने यहां काम करने वालों को उचित मजदूरी देते हैं? कामगारों को वेतन देते हुए तो इनकी नानी मर जाती है। यदि कामगारों को जीवन-यापन करने भर का भी वेतन नहीं मिलेगा तो वह क्या करेंगे? कैसे जीवन-यापन करेंगे? झुग्गी में रहेंगे और रेलवे लाइन के किनारे ऐसे ही हगेंगे। यह देश की राजधानी है। यहां पर कानून बनता है लेकिन यहां पर इसका पालन नहीं किया जाता। संविधान के अनुच्छेद 26 के अनुसार किसी भी असहाय की मदद करना राज्य का दायित्व बनता है। लेकिन राज्य अपना दायित्व कहां निभा रहे हैं? यदि निभाते तो इस तरह सड़क के किनारे गांड़ खोले और सिर झुकाये यह लोग हग रहे होते?
कामनवेल्थ गेम की मेजबानी कर रही दिल्ली ऐसी ही रहेगी? देश का गृहमंत्री कह रहा है कि दिल्ली वालों को मैनर सीखना होगा। गेम के दौरान विदेशी आएंगे तो क्या कहेंगे? देश की छवि को आघात लगेगा। उससे पूछा जाना चाहिए कि ऐसे लोगों के लिए वह क्या कर रहा है? क्या इन्हें उठाकर दिल्ली से बाहर फिकवा देगा यह गृहमंत्री? शायद ऐसा ही करे। वह दिल्ली को इंडिया की कैपिटल बनाना चाहता है। भारतीयों की राजधानी कहां है दिल्ली? गृहमंत्री से यह भी पूछना चाहिए कि जब अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां आंकड़ें जारी करके कहती हैं कि यहां इतनी गरीबी है। इतने बेघर हैं। इतने स्लम हैं। इतने बच्चे कुपोषित हैं तो विदेशियों के समाने हमारी क्या छवि बनती है। क्या इस सरकार को कभी शर्म आएगी?
ट्रेन थोड़ी दूर ही गई थी। एक पंक्ति से कई महिलाएं और लड़िकयां शौच करने बैठी थीं। ट्रेन आते देख उन्होंने भी सिर झुका लिया लेकिन उठी कोई नहीं। किसी का अगवाड़ा दिख रहा था तो किसी पिछवाड़ा।
- कितने बेशर्म हैं ये लोग? ट्रेन में किसी ने कहा था। अमर ने उसे देखा और सोचा बेशर्म कौन हैं? ये लोग या वे लोग जो इस परिस्थिति के लिए जिम्मेदार हैं? सृजनकर्ता हैं। शर्म किसे आनी चाहिए? ट्रेन में बैठे अधिकतर लोग या तो नाक पर रूमाल रख इस दृश्य को देख रहे थे या तो इन्हंे देखते हुए कह रहे थे कि कितने बेशर्म हैं। लेकिन कोई यह नहीं कह रहा था कि इस बेशर्मी के लिए जिम्मेदार कौन है?
- मिसेज की यादों मंे खो गये क्या?
- सुंदर लड़की सामने बैठी हो तो घरवाली की याद किसे आएगी?
- मैं तो बोनस हूं। पत्नी तो सेलरी है।
- कमाल का डॉयलाग बोला है आपने।
- गलत कहा क्या?
- आप गलत कह सकती हैं भला। लेकिन आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि मैं बोनस पर यकीन नहीं करता।
- ओह। बट वाई?
- बोनस का क्या भरोसा। कभी मिलता है कभी नहीं मिलता। मिलता है तो खर्च ही बढ़ाता है। आदमी सुसंस्कृत नहीं रह पाता।
- ओ हो। बड़े उच्च विचार हैं। बट आई थिंक जेंट्स इज लाइक ए डॉग। यह कहते हुए अनु के चेहरे पर आक्रोश के साथ सचमुच की घृणा थी।
- हां, यह सही है लेकिन सभी पुरुष कुत्ते नहीं होते।
- लाइक यू?
- पता नहीं। लेकिन इतना कह सकता हूं कि मैं शुद्ध शकाहारी हूं। एकदम हंड्रेड परसेंट। आई एम नॉट डॉग। आई एम ए मैन, जिसे अपने बीवी-बच्चों से प्यार है।
- प्यार माई फुट। यू आर रबिश। आई एम नॉट विलीव दिस?
- आप मानें या न मानें। मैं जो हूं सो हूं। मैंने आजतक अपनी पत्नी के अलावा किसी अन्य औरत से शारीरिक संबंध नहीं बनाये हैं।
- अरे वाह। क्या कमाल किया है आपने। इस धरती पर आप शायद अकेले जेंट्स हांेगे जो ऐसा कह रहे हैं। यदि यह सच है तो आप देवता हैं बल्कि उनसे भी आगे। क्यांेकि हमारे देवता भी समय-समय पर औरतों पर अत्याचार ही किये हैं।
- मैं देवता नहीं हूं। एक आम इनसान हूं।
- क्या अपनी पत्नी से पहले किसी से प्यार नहीं किया है आपने?
- किया है।
- फिर आप ऐसा दावा कैसे कर सकते हैं?
- क्यांेकि मेरा प्यार वहां तक पहुंचा ही नहीं जहां तक आप सोच रहीं हैं। मैंने वासना रहित प्रेम किया था।
- वासना रहित बोले तो?
- लव विदाउट सेक्स।
- आप जैसे लोग वर्चुअली रेप करते हैं।
- नॉट रेप ओनली लव।
- किसी लड़की को घूरना। फिर इमेजिंग करना। मन ही मन उसके शरीर को रौंदना। यह सब क्या है? वर्चुअली रेप नहीं है यह?
- यह एक मानसिक बीमारी है। वर्चुअल लव करने वाला हिंसक नहीं होता। वह कल्पना में जीता है। उसके लिए उसकी कल्पना ही यथार्थ होती है। एक तरह से वह उसका शक्ति-पुंज है। ऐसे लोग हैं इसलिए आप जैसी महिलाएं सुरक्षित हैं। अन्यथा रेप की घटनाएं और बढ़ जाएं। कल्पना करिये यदि सभी वर्चुअल सेक्स करने वाले अपनी कल्पना से बाहर आ जाएं और हकीकत में वैसा करने लगे तो क्या होगा?
- आप तो ऐसे डिफाइंड कर रहे हैं जैसे खुद भी ऐसे लोगों में शामिल हों।
- आप व्यक्तिगत प्रहार कर रही हैं। मैं एक कॉमन बात कर रहा हूं। हो सकता है कि मैं भी ऐसा ही होउं। लेकिन आप जितनी तल्ख हैं उससे क्या अनुमान लगाया जाए?
बात करते-करते उनका पिज्जा खत्म हो गया था। उन्होंने अब कोल्ड ड्रिंक्स मंगा ली थी। दोनों में से किसी की भी इच्छा वहां से निकलने की नहीं थी। लेकिन वहां तभी तक बैठे रह सकते थे जब तक कि वह कुछ खाते-पीते रहते। इस बात को अनु अच्छी तरह से जानती थी। इसलिए उसने वहां पर लंबे समय तक बैठने के लिए प्लान कर लिया था कि कैसे क्या करना है। एक आइटम के खत्म होते ही दूसरी चीज का आर्डर दे देना था।
- ओमप्रकाश तिवारी

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कविता ...... सन्तान मोह और मानव सभ्यता ....... क्या दो जून की रोटी के लिए जिंदगी पर जिल्लतें झेलता है इंसान? पेट की रोटी एक वजह हो सकती है यकीनन पूरी वजह नहीं हो सकती दरअसल, इंसान के तमाम सपनों में सबसे बड़ा ख्वाब होता है परिवार जिसमें माता-पिता नहीं होते शामिल केवल और केवल बच्चे होते हैं शामिल इस तरह हर युवा संतान की परिधि से बाहर हो जाते हैं माता-पिता जरूरी हो जाते हैं अपने बच्चे जब उनके बच्चों के होते हैं बच्चे तब वह भी चुपके से कर दिए जाते हैं खारिज फिर उन्हें भान होता है अपनी निरर्थकता का लेकिन तब तक हो गई होती है देरी मानव सभ्यता के विकास की कहानी संतान मोह की कारूण कथा है जहां हाशिये पर रहना माता-पिता की नियति है संतान मोह से जिस दिन उबर जाएगा इंसान उसी दिन रुक जाएगी मानव सभ्यता की गति फिर न परिवार होगा न ही घर न समाज होगा न कोई देश छल-प्रपंच ईर्षा-द्वेष भी खत्म बाजार और सरकार भी खत्म जिंदगी की तमाम जिल्लतों से निजात पा जाएगा इंसान फिर शायद न लिखी जाए कविता शायद खुशी के गीत लिखे जाएं... #omprakashtiwari

कविता : आईना तुम आईना नहीं रहे...

आईना अब तुम आईना नहीं रहे तुम्हारी फितरत ही बदल गयी है डर गए हो या हो गए हो स्वार्थी गायब हो गई है तुम्हारी संवेदनशीलता बहुत सफाई से बोलने और दिखाने लगे हो झूठ जो चेहरा जैसा है उसे वैसा बिल्कुल भी नहीं दिखाते बल्कि वह जैसा देखना चाहता है वैसा दिखाते हो हकीकत को छिपाते हो बदसूरत को हसीन दिखाने का ज़मीर कहां से लाते हो? क्या मर गयी है तुम्हारी अन्तर्रात्मा?  किसी असुंदर को जब बताते हो सुंदर तब बिल्कुल भी नहीं धिक्कारता तुम्हारा जमीर?  आखिर क्या-क्या करते होगे किसी कुरूप को सुंदर दिखाने के लिए क्यों करते हो ऐसी व्यर्थ की कवायद?  क्या हासिल कर लेते हो?  कुछ भौतिक सुविधाएं?  लेकिन उनका क्या जो तुम पर करते हैं विश्वास और बार बार देखना चाहते हैं अपना असली चेहरा जैसा है वैसा चेहरा दाग और घाव वाला चेहरा काला और चेचक के दाग वाला चेहरा गोरा और कोमल त्वचा वाला चेहरा स्किन कहने से क्या चमड़ी बदल जाएगी?  काली से गोरी और गोरी से काली खुरदुरी से चिकनी और चिकनी से  खुरदुरी हो जाएगी?  नहीं ना जानते तो तुम भी हो मेरे दोस्त फिर इतने बदले बदले से क्यों हो?  क्यों नहीं जो जैसा है उसे वैसा ही दिखाते और बताते ह