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मेरी मसूरी यात्रा
इस पार-उस पार और गगन विचरण की फितरत
जिज्ञासु, शंकालु और प्रश्नाकुल बने रहना इंसानी फितरत है। यह हर किसी में कम ज्यादा हो सकती है लेकिन होती हर किसी में है। जिसमें अधिक होती है वह हमेशा समुद्र के उस पार, जमीन के नीचे और गगन विचरण करना चाहता है। आज हम दुनिया को जितना भी जान पाते हैं, हमारे बीच आज जो भी ज्ञान का भंडार है, मानव सभ्यता ने जो विकास किया है, उसमें इंसानी फितरत के इन तीन गुणों-अवगुणों की अहम भूमिका है। अमेरिका और भारत की खोज इसी का परिणाम है। तो पहाड़ोें की रानी के नाम से विख्यात मसूरी भी इसी इंसानी फितरत का नतीजा है।
आज जहां मसूरी बसी है और लाखों सैलानी हर साल प्रकृति के नजारे का लुत्फ उठाने पहुंचते हैं, वहां कभी घना जंगल था। बताते हैं कि सहारनपुर से दूरबीन पर दिखने वाली भद्राज मंदिर की चोटी ने गोरों को यहां आने के लिए प्रेरित किया। वर्ष 1814 में ब्रिटिश सर्वेयर जनरल जॉन एंथनी हॉजसन और उनकी टीम के तीन अन्य सदस्यों ने उस समय के गोरखा शासकों से स्वीकृति लेकर कालसी से होते हुए भद्राज पहुंचे थे। उन्हें यह पहाड़ी इतनी पसंद आई कि उन्होंने इसे हिल क्वीन बना दिया।
वर्ष 1822-23 में ब्रिटिश आर्मी के कैप्टन यंग और देहरादून के तत्कालीन असिस्टेंट मजिस्ट्रेट जेएफ शोर ने गनहिल क्षेत्र में आखेट गृह का निर्माण करवाया। दोनों शिकार खेलने मसूरी आते थे। मसूरी की जलवायु ब्रिटेन से मेल खाती थी। इसलिए कैप्टन यंग के सुझाव पर ब्रिटिश आर्मी ने लालटिब्बा में सैनिक अस्पताल बनवाया। धीरे-धीरे कॉलोनियां बनी और मसूरी गुलजार होने लगी।
मसूरी मूलत: अंग्रेजों, यूरोपियन गोरों के साथ ही हिंदू-मुसलिम मजदूरों और कारीगरों का बसाया शहर है। जिसमें, मैदानी बनियों और सफाई मजदूरों का खास योगदान है। 1820 में टिहरी रियासत से कानूनी पट्टा हासिल करने के बाद अंग्रेजों ने युद्ध स्तर पर मसूरी को बसाने का काम शुरू किया। 19वीं सदी के मध्य तक मसूरी में हिंदुस्तान (पाकिस्तान समेत) के करीब 50 बड़े राजा-रजवाड़े, नवाब, जागीरदार, ताल्लुकेदार साल के आठ महीने रहते थे। यहीं से रियासतों पर शासन करते थे। तब मसूरी देश की विभिन्न रियासतों के कर्मचारियों की रंग-बिरंगी पोशाकों से पटा रहता था। सन् 1840 से 55 के बीच मसूरी में 150 से अधिक यूरोपियन वास्तुकला की बेजोड़ मिसाल कायम करने वाले लकड़ी से बने आलीशान बंगले बन चुके थे।
वर्ष 1865 में राजपुर-मसूरी रेलवे लाइन बिछाने की योजना पर और 1920-21 में इलेक्ट्रिक टॉम-वे का काम शुरू हुआ। मगर झड़ीपानी में रेलवे सुरंग खोदते समय हुई दुर्घटना में कुछ मजदूर दबकर मर गए। जिसके चलते आज तक रेल नहीं पहुंच सकी। सन् 1907 में ग्लोगी में भारत के पहले बिजली घर का निर्माण हुआ। इस बिजली घर से मसूरी समेत समूची दून घाटी जगमगाने लगी।
दो साल बाद मसूरी को बसे दो सौ साल हो जाएंगे। पिछले करीब दो सालों से दून घाटी से जब कभी भी रात में मसूरी की तरफ देखा तो वह सितारों की तरह टिमटिमाती नजर आई। ऐसा लगता किसी का सपना लाखों सितारों में बदलकर खिलखिला रहा है। मानो कह रहा हो कि सपने देखने वालों के सपने इसी तरह से टिमटिमाते और जगमगाते हैं। इंसान जहां होता है, जहां स्थिर होता है उससे पार भी एक जहां होता है। उसे पाने के लिए सपने, सवाल, जिज्ञासा और गतिमान होना पहली प्राथमिकता होती है। सपने को साकार करने की राह में विकराल परिस्थितियां होती हैं। उन्हें पार करने के लिए साहस, जिद-जुनून और धैर्य की जरूरत होती है। कमोबेश सफलता इसी के पार और इसी के बाद मिलती है।
धीमी गति जीवन बचाती है
बस में बैठा बाहर देख रहा था। अचानक सड़क के किनारे लगे बोर्ड पर लिखी इस पंक्ति पर निगाह पड़ी कि धीमी गति जीवन बचाती है। इस पढ़कर दिमाग उलझ गया। वजह, वाक्य इंसानी फितरत के विपरीत लगा। शहरी जीवन में इतनी भागदौड़ मची है कि आदमी को अपना ही होश नहीं रहता है। हर शहरी सफल होना चाहता है। हर किसी का एक शिखर है जिस पर वह किसी भी तरीके से चढ़ जाना चाहता है। हासिल कर लेना चाहता है। बिल्कुल वैसे ही जैसे सघन ट्रैफिक के बीच से कोई बाइक या कार सवार सर्पीले अकार में तेज गति से चलकर सबसे आगे हो जाना चाहता है। वह जानता है कि ऐसा करने में खतरा है, जान का जोखिम भी है लेकिन उसका फलसफा उसे ऐसा करने के लिए प्रेरित करता है। वह तो खतरे के उस पार लहलहा रहे जीवन को प्राप्त करना चहता है। ऐसे में वह क्यों डरे? किसी उत्पाद के उस विज्ञापन को शायद इंसान की इसी फितरत को समझते हुए बनाया गया है कि डर के बाद जीत है। आदमी डरता है लेकिन वह जानता है कि जीत तो डर के पार है। गब्बर सिंह ने कहा था कि जो डर गया वो मर गया। हर पल डरना और हर पल मरना, यह जीना भी कोई जीना है।
लेकिन इसी फलसफे के इतर यह बात ज्यादा अहमियत रखती है कि धीमी गति जीवन बचाती है। जिंदगी बची रहेगी तो सपने साकार हो जाएंगे। यही न थोड़ा समय लग जाएगा। लेकिन यदि जीवन ही न रहा तो सपना किसी गहरी खाई में दम तोड़ देगा। मानव जीवन अनमोल है। एक जीवन में कई जिंदगी जी जा सकती है लेकिन यदि जीवन ही न रहा तो कैसी जिंदगी और कैसे सपने?
दुर्घटना से देर भली
विचारों के जंगल से बाहर निकला तो सामने फिर यह पंक्ति दिख गई कि दुर्घटना से देर भली। मेरे दिमाग में इस पर कोई विचार कौंधता उससे पहले ही बस चालक ने तीखे मोड़ पर बस इतनी तेजी से मोड़ी कि मैं सीट से गिरते-गिरते बचा। यह भी इंसानी फितरत का एक नमूना है। कई बार वह चीजों को देखकर भी नहीं देखता। किसी बात को जानकर भी नहीं जानना चाहता। मैं कुछ आगे सोच पाता कि गाड़ी धीमे चलाएं आगे तेज मोड़ है पंक्ति पर फिर नजर चली गई। इस बार मुस्करा दिया। मुझे यह पंक्ति कुछ उसी तरह लगी जैसे किसी शहर में प्रवेश करने से पहले बड़ी होर्डिंग्स में लिखा रहता है कि मुस्कुराइये कि आप फलां शहर में हैं। शहर में प्रवेश करते ही आदमी मुस्कराना तो दूर, चल भी नहीं पाता। सड़कों में इतने गड्ढ़े मिलते हैं कि वह उसमें सड़क ही नहीं खोज पाता। यदि ऐसा नहीं हुआ तो सड़क पर ट्रैफिक इस तरह मिल जाएगा कि चलना मुश्किल हो जाएगा। इसके अलावा भी बहुत सारी मुसीबतें और दिक्कतें ही मिलती हैं। ऐसे में आदमी कैसे मुस्कुरा सकता है। मुस्कुराने का बोर्ड यदि रस्मी है तो बस चालक के लिए ही नहीं इस मार्ग पर चलने वाले वाहनों के चालकों के लिए भी सावधान करने वाले बोर्ड भी रस्मी ही हैं, क्योंकि न तो वह इसे देखता है और न ही अमल करता है। बस में बैठी सवारियां जरूर देखती और पढ़ती हैं लेकिन अमल में लाना उनके बूते में नहीं होता। वह तो कभी गहरी खाई को देखती है और कभी ऊंचे पहाड़ को। वाहन पहाड़ से टकराकर दुर्घटनाग्रस्त हो सकता है और खाई में गिरकर भी।
बचपन से लेकर अब तक एक कहावत जब तब जेहन में आ जाती है कि एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खाई। आज पहली बार शिद्दत से अहसास हुआ कि यह कहावत गलत है। या मैंने ही इसे गलत याद कर रखा है। दरअसल यह कहावत तो ऐसी है या होनी चाहिए कि इधर खाईं उधर पहाड़। दिमाग में कई ऐसे हादसे कौंध गए जो गहरी खाईं में वाहनों के गिरने से हुए थे। सावधानी का सबक यदि वाहन चालक के जेहन में मौजूद रहे तो शायद कई जिंदगियों को गहरी खाईं में समाने से बचाया जा सकता है।
कगार के सहारे यात्रा
टेड़े-मेड़े, तीखे मोड़ वाले सर्पीले रास्तों पर बस चली जा रही थी। मैं खिड़की से बाहर देख रहा था। दूर तक फैले जंगल मनोहारी लग रहे थे। मन में यह सवाल भी उठ रहा था कि इन जंगलों के बीच आदमी क्यों घुस आया? क्या जरूरत थी? मानव जीवन के लिए जरूरी इन जंगलों में प्रवेश करके इनसान ने क्या कुदरत के करिश्मे को बदलने का प्रयास नहीं किया है? इनसानों की इस कारस्तानी से क्या मानव सभ्यता खतरे में नहीं पड़ गई है? ग्लोबल वार्मिंग, ग्लेशियरों का पिघलना, मौसम में परिवर्तन, अधिक ठंड, अधिक गर्मी, कम ठंड और कम गर्मी यह सब क्या हो रहा है? और कौन है इसके लिए जिम्मेदार? पूरी दुनिया को यह सवाल मथ रहा है और समझौता किया जा रहा है कि ग्रीन गैसों का उत्सर्जन कम किया जाए? लेकिन जवाबेदही से वही भाग रहे हैं जो इसके लिए जिम्मेदार हैं। वह तो चाहते हैं कि उनकी मनमानी चलती रही और जो इन सब के लिए जिम्मेदार नहीं हैं वह गैसों का उत्सर्जन कम करें। बंद करें। ताकि इस दुनिया को बचाया जा सके। अरे भाई हमें इतना बेवकूफ क्यों समझ लिया है? आपकी दुनिया को बचाने के लिए हम क्यों बाध्य हों? अपने किए कि सजा तो अपको भुगतनी ही पड़ेगी। हम भी जो कर रहे हैं उसकी सजा भुगतेंगे ही, यह तो तय है।
थोड़ा बहक गया। जंगल के बहाने पर्यावरण में घुस गया। वैसे ही जैसे इनसान अपनी जिज्ञासा की शांति के लिए जंगल में घुस गया। इसी बीच बस की गति आगे ट्रैफिक अधिक हो जाने के कारण थोड़ी धीमी हुई थी। सामने एक शिला पर बैठे बंदर पर निगाह पड़ गई। महोदय बस की तरफ ध्यान से लेकिन उदास होकर देख रहे थे। मेरी निगाह उनकी निगाह से मिली तो मुझे लगा कि वह पूछ रहे हैं कि क्यों जनाब आज तुम भी घुस आए मेरी दुनिया में? अपनी रेलमपेल को मेरे संसार में घुसेड़कर मेरा जीना क्यों हराम कर दिया है तुम इनसानों ने? यकीन मानिए उस उदास बंदर की आंखों में यही सवाल था। आप इसे मेरा वहम भी कह सकते हैं लेकिन सच तो सच ही होता है। उससे नहीं भाग सकते और वह है कि हमारे पीछे पड़ा है। वह बंदर की, गुलदार की, भालू की और हर उस जंगली जानवर की आंखों में दिखता है जो जंगलों में बढ़ते मानव हस्तक्षेप से त्रस्त हैं और जिनका जीवन मानव की रफ्तार ने, उसकी जिज्ञासा ने, उसके साहस ने, उसके सपनों ने रौंद दिया है।
बात फिर मुख्य बिंदु से इतर हो गई लेकिन शायद बहुत जरूरी थी। दरसअल, मैं देख रहा था कि बस पहाड़ और खाई के कगार पर चल रही थी। कितनी खतरनाक है यह यात्रा यह सोचकर ही मैं सिहर गया। कांप गया। बदन में कंपकंपी छूट गई। यदि मैं अकेला होता और अपने साधन से होता तो वापस चला आता लेकिन जिस हालत में था उसमें यात्रा जारी रखना ही मेरी नियति थी। दोस्तो एक हकीकत यह है कि कगार की यात्रा बहुत खतरनाक होती है और दूसरा सच यह है कि पहाड़ पर हजारों लोग प्रतिदिन कगार की यात्रा कर रहे हैं। इनमें से हर किसी को तो विवश या मजबूर नहीं कहा जा सकता लेकिन कइयों के सामने तो विवशता ही है। शायद यही कारण है कि लोग पहाड़ से पलायन कर रहे हैं। ऐसी खबरें पढ़ने को मिल रही हैं कि पहाड़ों से मानव का तेजी से पलायन हो रहा है। हो सकता है कि इससे जंगली जीव खुश हों और राहत की सांस ले रहे हों लेकिन मानव के लिए यह भी एक पीड़ा है। शिखर से फर्श पर आने का दर्द।
शिखर का रोमांच
शिखर पर पहुंचने का अपना ही रोमांच होता है। हर इनसान का अपना-अपना शिखर होता है। हर कोई उस पर पहुंचना ही चाहता है। कई अपने शिखर को प्राप्त कर लेते हैं और कुछ नहीं हासिल कर पाते। कई बार शिखर पर पहुंचना आसान हो जाता है लेकिन वहां पर टिके रहना काफी मुश्किल होता है। शिखर की चढ़ाई जितनी कठिन है वहां पर उससे अधिक फिसलन है। इसपर अधिक दिनों तक टिके रहना अपने आप में एक चुनौती होती है। लेकिन हर चुनौती के पार एक सफलता भी होती है। जिसने पार पा लिया वह शिखर पर टिक गया, नहीं तो पलायन या स्खलन तो निश्चित ही है।
बहरहाल, बस मसूरी पहुंच गई। गांधी चौक पर बने रेलिंग से मैंने नीचे देखा तो मेरे अंदर भी एक रोमांच भर गया...। साथ ही एक डर भी और मैं रेलिंग से दो कदम पीछे खिसक गया...। गुनगुनी धूप अच्छी थी लेकिन हवा तीखी थी और वातावरण में गलन ही गलन थी...।
खमोश पेड़ कुछ कहते हैं
मसूरी पहली बार आया था तो फोन करके दोस्त से पूछा कि यार यहां देखने लायक जगह क्या है? उसने बताया कि पहले कंपनी गार्डन घूम लो उसके बाद माल रोड। लाल टिब्बा और कैंपटी फाल भी ही लेकिन इसके लिए एक दिन की यात्रा पर्याप्त नहीं होगी।
मैंने तय किया कि पहले कंपनी गार्डन चलते हैं। दोस्त ने बताया था कि रिक्शा कर लेना। लेकिन मुझे रिक्शे वाले दिखे ही नहीं। फिर सोचा पहाड़ पर रिक्शा चलेगा कैसे? यह जानकर आश्चर्य भी हुआ कि दून में रिक्शा नहीं चलता लेकिन मसूरी में चलता है। रिक्शा से निसंदेह मुझे सुविधा होती लेकिन मैंने तय किया कि आदमी को आदमी खींचे यह कैसा काम? यदि हम यहंा रोमांच के लिए आए हैं तो पैदल ही चलना चाहिए। इसके लिए किसी तीसरे को क्यों परेशान किया जाए?
पैदल चलने से थकान जरूर लगी लेकिन प्रकृति जिसे देखने मैं आया था उसे करीब से देख सका इसलिए मन में बहुत सुकून था। कंपनी गार्डन के गेट पर पहुंच कर पता चला कि उसमें प्रवेश करने के लिए टिकट लेना पड़ेगा। इतनी दूर आया था तो टिकट तो लेना ही था। मन में जिज्ञासा थी या मित्र के कथन से कल्पना बन गई थी कि यह जगह बहुत खूबसूरत होगी। लेकिन यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि वह जगह मेरी कल्पना पर खरी नहीं उतरी। उससे कहीं अधिक बेहतर मेरे गांव का बगीचा है, जहां कोई टिकट नहीं लगता और जहां पेड़ गुनगुनाते हैं तो चिड़िया चहचहाती हैं। गार्डन की एक दुकान पर चाय नाश्ता करते हुए मेरी निगाह वहां के पेड़ों पर गई। वह खामोश थे। उदास थे। मेरी समझ में नहीं आया कि वह ऐसा क्यों थे? लेकिन थे तो वजह तो होगी ही? हवा कहीं नहीं थी लेकिन ठंड शरीर में शूल की तरह चुभ रही थी। दुकानदार इस ठंड से बचने के लिए अलाव का सहारा ले रहे थे। लेकिन पेड़ क्या करें? यहां कोई चिड़िया क्यों नहीं है? मुझे कोई जवाब नहीं मिला। वहां अधिक पर्यटक भी नहीं थे। मैंने सोचा कि दुकानदारों की कमाई कैसे होती होगी? लेकिन होती ही होगी तभी तो वह अपने शिखर पर टिके हुए हैं। मैं निराश होकर वहां से लौट आया। मेरे अंदर एक उदासी तारी हो गई थी जो शायद पहाड़ के पेड़ों से मेरे भीतर समा गई थी...।
समय कम था तो इस वापसी में मैंने टैक्सी ली। करीब दो-ढाई किमी के लिए उसने दो सौ रुपये लिए। पत्नी की नाराजगी के बावजूद मैंने दिया क्योंकि मैं पेड़ों की उदासी को अब अधिक नहीं देख पा रहा था। उनकी उदासी से मेरे अंदर एक धुआं सा भरता और फैलता जा रहा था...।
घाटी के आसमान में चिड़ियों का परवाज भरना
माल रोड पर पहुंचा तो शाम ढल रही थी। सूरज अस्ताचल था। पैदल चलने लगा। शरीर में थकान तो मन में उदासी तारी थी। पहाड़ों की रानी कही जाने वाली मसूरी में की वादियों में अपनी इस हालत को मैं समझ नहीं पा रहा था। कई रेलिंगों पर खड़ा होकर नीचे घाटी को देखा वहां धुंध और धुआं सा ही दिख रहा था। उसके पास दिखते थे तो कुछ मकान। जिसमें हलचल नहीं दिखती थी। ऊपर देखने पर भी मकान दिखते थे। वे आकर्षक रंग में थे। पहाड़ की चोटी पर बसे इन मकानों को देखकर आश्चर्य भी होता और उनके यहां होने के औचित्य पर सवाल भी उभरता? इस शिखर पर रहते हुए क्या मिल जाता है? इस सवाल का जवाब एक दिन के चंद घंटों में नहीं मिल सकता और न ही समझा जा सकता है? मैं फिर घाटी की तरफ देखने लगा। सूरज का दायित्व बदल गया था। अब वह दूसरी दिशा में जा रहे थे। इधर से उन्होंने विदा ले ली थी रात भर के लिए । उनकी विदाई में यह आशा साफ दिख रही थी। अपने पीछे सूर्य जो सुनहरी किरणें बिखेर रहे थे उससे यही एहसास हो रहा था। अच्छा लगा। शरीर में सिहरन सी उठी और मेरे चेहरे पर मुस्कान बिखर गई। तभी कहीं से कुछ चिड़ियां आईं। घाटी में उड़ान भरने लगीं। आकार में छोटी थी तो उनका फुदकना बहुत प्यारा लगा। लगा जैसे वह मेरे आने से खुश हैं और नाच रही हैं। कुछ दूर जाने के बाद उन चिड़ियों का झुंड फिर आया और बिल्कुल पास आकर कुछ पल रुक कर आगे चला गया। इस बार एहसास हुआ कि उन्होंने कहा कि क्यों आए हो मेरी दुनिया में? जाते क्यों नहीं? क्यों चले आते हो? कदम खुदबखुद बस अड्डे की तरफ चलने लगे। बस स्टैंड पर बस तीन और टैक्सियां सैकड़ों? देखकर आश्चर्य हुआ। सवाल भी उठा क्यों? पहाड़ पर मानव की रेलमपेल क्यों? सुरम्य पहाड़ पर कैसी मानव सभ्यता की संरचना कर डाली इनसान ने?
सितारों की तरह टिमटिमाटी मसूरी
बस चली तो अंधेरा होने लगा था। कुछ दूर जाने के बाद बस में से देखा पहाड़ों की रानी सितारों की तरह टिमटिमा रही है। पत्नी को भी दिखाया। पहाड़ पर बसे घर, होटल और दफ्तर बिजली की रोशनी में जगमगा रहे थे। आपका पुन: आगमन प्रार्थनीय है। मेरे दिमाग में अकस्मात ही मसूरी बस अड्डे पर एक बोर्ड में लिखी यह पंक्ति कौंध गई। मैं एक बार फिर मुस्करा पड़ा...।
- ओमप्रकाश तिवारी

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