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कविता : आईना तुम आईना नहीं रहे...


आईना अब तुम आईना नहीं रहे
तुम्हारी फितरत ही बदल गयी है
डर गए हो या हो गए हो स्वार्थी
गायब हो गई है तुम्हारी संवेदनशीलता
बहुत सफाई से बोलने और दिखाने लगे हो झूठ
जो चेहरा जैसा है
उसे वैसा बिल्कुल भी नहीं दिखाते
बल्कि वह जैसा देखना चाहता है
वैसा दिखाते हो
हकीकत को छिपाते हो
बदसूरत को हसीन दिखाने का ज़मीर कहां से लाते हो?
क्या मर गयी है तुम्हारी अन्तर्रात्मा? 
किसी असुंदर को जब बताते हो सुंदर
तब बिल्कुल भी नहीं धिक्कारता तुम्हारा जमीर? 
आखिर क्या-क्या करते होगे किसी कुरूप को सुंदर दिखाने के लिए
क्यों करते हो ऐसी व्यर्थ की कवायद? 
क्या हासिल कर लेते हो? 
कुछ भौतिक सुविधाएं? 
लेकिन उनका क्या जो तुम पर करते हैं विश्वास
और बार बार देखना चाहते हैं अपना असली चेहरा
जैसा है वैसा चेहरा
दाग और घाव वाला चेहरा
काला और चेचक के दाग वाला चेहरा
गोरा और कोमल त्वचा वाला चेहरा
स्किन कहने से क्या चमड़ी बदल जाएगी? 
काली से गोरी और गोरी से काली
खुरदुरी से चिकनी और चिकनी से  खुरदुरी हो जाएगी? 
नहीं ना
जानते तो तुम भी हो मेरे दोस्त
फिर इतने बदले बदले से क्यों हो? 
क्यों नहीं जो जैसा है उसे वैसा ही दिखाते और बताते हो? 
क्यों हकीकत को छिपाते हो? 
आईना तुम्हारी ऐसी फितरत तो नहीं थी
क्यों कर रहे हो ऐसी हरकत? 
इस मिथ्या जगत में तुम एक पदार्थ ही हो
विखंडित होना नियति है
उसे टाल नहीं सकते
इससे पहले कि कोई पत्थर मार कर तुम्हें खंडित करे
जो हो जैसा हो वैसा ही हो जाओ
अपने नियम के खिलाफ जाने वाले को प्रकृति भी माफ नहीं करती
जिस शिखर पर काबिज होना चाहते हो
एक दिन वहीं से धक्का दे देगी
सोचिए फिर क्या बचेगा? 
क्या हासिल होगा
असंख्य खंडित टुकड़ा बिखरा पड़ा होगा
हर टुकड़े की अलग-अलग कहानियां होंगी
उनमें न तुम होंगे न तुम्हारी हकीकत
#ओमप्रकाश तिवारी

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