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Showing posts from February, 2008

फैसला

कहानी रणविजय सिंह सत्यकेतु दरवाजे पर भीड़ देख समर को विश्वास हो गया कि बाबूजी गए। शायद इसीलिए नीतू ने उसे फोन पर केवल इतना बताया कि तुरंत आ जाएं बिना देरी किए। अभी तो दस दिन पहले गया था नीतू और मि की को गांव छोड़ने के लिए। बीमार-सीमार पड़े होते तो लोग टांग-टूंग कर उसके पास ले आते बाबूजी को इलाज केलिए। लेकिन लगता है उन्होंने इसका मौका ही नहीं दिया। जिंदगी भर कड़क रहे और अपनी अकड़ में ही चले गए। न किसी की सेवा ली और न एहसान। माना कि उससे उनकी नहीं पटती थी, लेकिन थे तो आखिर पिता ही। तो या हुआ अगर वह चाहते थे कि उन जैसे बड़े जोतदार का बेटा किसी कार्यालय में बड़ा बाबू की नौकरी नहीं करे। यह उनका मिजाज था जो न बदल सकता था न बदला। उसने भी तो उनकी एक नहीं मानी। इकलौती औलाद था, दर्जन भर नौकर-चाकर। दो सौ एकड़ उपजाऊ जमीन, दर्जनों माल-मवेशी। ऐश करता। जैसी कि बाबूजी की दिली ख्वाहिश थी कि उनका बेटा मुस्तैदी से उनकी विरासत संभाले जिस पर गोतिया-दियाद की बुरी नजर लगी हुई है। मगर सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो गया। बाबूजी की बरगदी छाया से निकलने की छटपटाहट से ज्यादा उसे उनकी झूठी राजपूती अकड़ से निजात पाने की ज

अलाप उर्फ दर्द-ए-धुआं

कहानी कारखाने के मजदूरों को जैसे ही पता चला कि आज उन्हें वेतन नहीं मिलेगा, उनकी आंखों के आगे अंधेरा छा गया। कइयों के जेहन में यह सवाल एक साथ गंूजा कि आज रोटी नहीं मिलेगी? कइयों के आंखों के आगे भूख से विलखते अपने बच्चों की तस्वीर घूम गई। यह बरदाश्त की सीमा से बाहर था। कारखाने में पिछले चार महीने से काम नहीं है, लेकिन इसमें इनका या दोष? माह की आज पंद्रह तारीख है और वेतन का कोई अता-पता नहीं है। मजदूरों को यह कंपनी इतना वेतन भी नहीं देती कि यदि एक माह वेतन न मिले तो उनका दैनिक काम चल जाए। लिहाजा हर श्रमिक के सामने जिंदगी-मौत का सवाल उठ खड़ा हो गया। कंपनी के इस रवैये से कई श्रमिक काम छाे़ड कर जा चुके हैं। कंपनी भी यही चाहती है। ताकि वह इस कारखाने को आराम से बंद कर सके। श्रमिकों के रहते उसे इसे बंद करने में परेशानी हो रही है। मजदूर अपना हक मांगने लगते हैं। इसकी काट के लिए कंपनी ने यह तरीका खोजा है। उसने इस कारखाने का काम ही बंद कर दिया। लिहाजा मजदूर बेकार हो गए। फिर समय से वेतन देना बंद कर दिया, ताकि पेरशान होर श्रमिक खुद ही कंपनी छाे़डकर चले जाएं...। जब से उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण

डूबते सूरज की ओर

कहानी सियाराम ने साइकिल पर बैठकर जैसे ही पैंडल पर जोर लगाया खटाक की आवाज के साथ चेन उतर गई। गुस्से में सियाराम ने मां-बहन की गाली दी। फिर साइकिल से उतर कर चेन ठीक करने लगे। चेन चढ़ा ही रहे थे कि किसी ने पूछा। - साइकिल खराब हो गई? सियाराम ने चेन छाे़डकर आवाज की तरफ देखा और मुस्करा कर बोले -हां भाई। - किसी कबाड़ी को बेच दो। अब यह चलने लायक नहीं है। - पुरानी होने पर कोई घरवाली को बदल देता है या? सियाराम ने चुहल की। - अरे भाई, दुनिया मोटरसाइकिल और कार से चलने लगी है, आप कम से कम नई साइकिल तो ले लो। - दुनिया और मेरी तुलना नहीं हो सकती न। सियाराम ने लंबी सांस ली और चेन ठीक करके साइकिल पर बैठ गए। - लगता है कचहरी (अदालत) से आ रहे हो? - हां भाई। - या हुआ? - होना या है। फिर तारीख मिल गई है। - कब तक मिलती रहेगी तारीख? - अब या बताएं। अपने वश में तो कुछ है नहीं। १८ साल हो गए। अभी तक बहस तक नहीं हुई है। - मेरी मानो तो समझौता कर लो। - किससे? - जिससे मुकदमा लड़ रहे हो। - एक हाथ से ताली बजती है या? - अरे यार प्रयास करके तो देखो। कहते हुए वह सड़क से अपने घर की तरफ मु़ड गया। वह सियाराम का शुभचिंतक

पीएम हाउस में मोर नाचा

सुबह नींद मोबाइल की धुन बजने से खुली। आंख मिचमिचाते हुए मोबाइल के मुंह को खोला तो उधर से एक मित्र की आवाज आई। - या कर रहे हो? - या करें? - आज का अखबार देखा? - नहीं, या हो गया? अमेरिका पर आतंकवादी हमला हुआ है या? - अरे नहीं यार। - फिर या देश से गरीबी मिट गई? - सुबह-सुबह या बकवास कर रहा है? - बकवास मैं कर रहा हूं कि तू। कितनी बढ़िया नींद आ रही थी। जगा दिया। - अरे जागो प्यारे मोहन, यह जागने का व त है। - यों? या देश से बेरोजगारी खत्म हो गई? - अरे, नहीं यार। - फिर या अमेरिका ने किसी देश पर हमला किया है? - ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है। - तो फिर या हुआ है? - पीएम हाउस में मोर नाचा है प्यारे मोहन। - तू पागल हो गया है या? मोर जंगल में नाचता है बच्चे। - इसीलिए तो कह रहा हूं प्यारे मोहन, जागो, उठो और अखबार पढ़ो। दोस्त ने फोन काट दिया। मेरी भी नींद भाग गई। साले मोर को या हो गया? जंगल छाे़डकर पीएम हाउस में आ गया। सोचते हुए चारपाई से उठा। दरवाजे पर गया और अखबार उठा लाया। पहले पन्ने पर ही पीएम हाउस में नाचते हुए मोर की तस्वीर छपी थी। -अरे वाह! यह तो कमाल हो गया। पूरा का पूरा सिद्धांत और दर्शन ही बदल गया। म

उधार की जिंदगी

कहानी ओमप्रकाश तिवारी वह फोन पर पिता जी से बातें कर रहा था। हाल-चाल पूछने के बाद जैसे ही उसके पिता ने कहा कि हो सके तो कुछ पैसे...। आगे का शब्द पिता जी बोल भी न पाए कि वह फट पड़ा -पैसा-पैसा-पैसा, आप या समझते हैं? मेरे पास पैसों का पे़ड लगा है? या मैंने छापाखाना लगा रखा है? उधर से डरी सहमी आवाज आई -तुम्हारी मां बीमार...। वा य फिर अधूरा छाे़ड दिया गया, योंकि बोलने वाला जानता था कि आगे के शब्द सुने ही नहीं जाएंगे। हुआ भी यही। वह फिर चिल्ला पड़ा -तो मैैं या करूं? जान दे दूं? आप मेरी मजबूरी को यों नहीं समझते? उधर से हताश-निराश पिता जी की आवाज आई -तो फोन रखता...। पिता जी का वा य पूरा होने से पहले ही उसने फोन रख दिया...। पैसा देकर वह पीसीओ से बाहर आ गया। उसे बेहद गुस्सा आ रहा था, लेकिन उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह गुस्सा किस पर है। पिता जी पर? अपने आप पर? हालात पर? वह जानता है कि घर पर पैसे की जरूरत है, हमेशा रहती है और यह स्वाभाविक भी है, योंकि मां बीमार रहती है। भतीजे-भतीजियां पढ़ रहे हैं। पिता जी की भी तबियत ठीक नहीं रहती है। बड़े भाई बेरोजगार हैं। खेती है, जो खाने भर का ही आनाज प

खुशी बाजार में नहीं मिलती

कहानी ओमप्रकाश तिवारी पत्र में लिखे हर शब्द किसी गोले की तरह उसके मन-मष्तिस्क में पर प्रहार कर रहे थे। हर वा य के साथ शरीर का र त-संचार बढ़ता ही जा रहा था। ठंड का मौसम था, लेकिन उसके माथे पर पसीने की बंदूें साफ-साफ देखी जा सकती थीं। पत्र पढ़ने के बाद उसने उसे माे़डकर जेब के हवाले कर दिया और बेचैनी में कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। इधर-उधर देखा सभी साथी या तो अपने काम में तल्लीनता से लगे थे या फिर किसी साथी से बातचीत में। एक पल को उसे लगा कि दुनयिा में सभी खुश हैं, सिवा उसके। वह माथे पर हाथ फेरता हुआ आफिस से बाहर निकल आया और कैंटीन पर आकर खड़ा हो गया। चाय का आर्डर देने के बाद वह वहीं चहल-कदमी करने लगा। अमूमन इस समय कैंटनी पर कोई न कोई साथी मिल जाता था, लेकिन आज कोई नहीं मिला। वह टहलते हुए ही सोचने लगा। मां की तबीयत खराब है। शरीर में खून की कमी है। ताकत का इंजेक्षन लगता है तो ठीक रहती हैं। अभी तीन माह पहले घर गया था तो मां का इलाज करवाया था, लेकिन इलाज पूरा नहीं हो पाया था। तीन-चार हजार रुपये खर्च करने के बाद पैसे की कमी इलाज में आड़े आ गई। मां भी चलने-फिरने लगी तो अभाव ने लापरवाही का रूप ले लि

अपनी अपनी श्रद्धा

रिपोर्ताज - ओम प्रकाश तिवारी हम एक किलोमीटर की भी चढ़ाई नहीं चढ़े होंगे कि सुस्ताने के लिए स्थान तलाशने लगे। यही नहीं हमारी टोली के लगभग सभी सदस्य आगे-पीछे हो गए थे। हां, बच्चों की बात अलहदा थी। वह पूरे उत्साह के साथ आगे बढ़ते जा रहे थे। उनके उत्साह में मुझे आस्था-श्रद्धा का भाव रंच मात्र भी नहीं नजर आ रहा था। शायद वह परिवर्तन से उत्साहित थे। जिज्ञासा के कारण रोमांचित थे। उनके सामने एक नई दुनिया थी, जिसकी विसंगतियों से वह अनजान थे। उनकी कोशिश यही थी कि इस यात्रा के हर पल को आंखों में समेट लिया जाए। बच्चे यह जानते थे कि वह माता वैष्णो देवी के दर्शन के लिए जा रहे हैं। जिनका मंदिर पहाड़ की ऊंचाई पर है। लेकिन वह माता का दर्शन क्यों करना चाहते हैं, यह शायद नहीं जानते थे। मेरा बड़ा बेटा छठी कक्षा में पढ़ता है। जब उसकी पाँचवी कक्षा की परीक्षा आरंभ हुई थी तो पहले दिन वह स्नान करने के बाद अगरबत्ती जलाकर पूजा करने लगा। उसे ऐसा करते देख मुझे आश्चर्य हुआ। मैं कभी घर में क्या मंदिर जाकर पूजा-पाठ नहीं करता। उसकी मम्मी जरूर धार्मिक हैं, लेकिन मेरी उदासीनता धीरे-धीरे उन पर भी प्रभावी हो गई है। गहरी आस