कहानी रणविजय सिंह सत्यकेतु दरवाजे पर भीड़ देख समर को विश्वास हो गया कि बाबूजी गए। शायद इसीलिए नीतू ने उसे फोन पर केवल इतना बताया कि तुरंत आ जाएं बिना देरी किए। अभी तो दस दिन पहले गया था नीतू और मि की को गांव छोड़ने के लिए। बीमार-सीमार पड़े होते तो लोग टांग-टूंग कर उसके पास ले आते बाबूजी को इलाज केलिए। लेकिन लगता है उन्होंने इसका मौका ही नहीं दिया। जिंदगी भर कड़क रहे और अपनी अकड़ में ही चले गए। न किसी की सेवा ली और न एहसान। माना कि उससे उनकी नहीं पटती थी, लेकिन थे तो आखिर पिता ही। तो या हुआ अगर वह चाहते थे कि उन जैसे बड़े जोतदार का बेटा किसी कार्यालय में बड़ा बाबू की नौकरी नहीं करे। यह उनका मिजाज था जो न बदल सकता था न बदला। उसने भी तो उनकी एक नहीं मानी। इकलौती औलाद था, दर्जन भर नौकर-चाकर। दो सौ एकड़ उपजाऊ जमीन, दर्जनों माल-मवेशी। ऐश करता। जैसी कि बाबूजी की दिली ख्वाहिश थी कि उनका बेटा मुस्तैदी से उनकी विरासत संभाले जिस पर गोतिया-दियाद की बुरी नजर लगी हुई है। मगर सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो गया। बाबूजी की बरगदी छाया से निकलने की छटपटाहट से ज्यादा उसे उनकी झूठी राजपूती अकड़ से निजात पाने की ज...