Skip to main content

कविता/ समय साक्षी

समय साक्षी
----------
सूर्यालोकित स्वर्गलोक की
रंगीनियां उसे भी पसंद हैं
लुभाती और ललचाती भी हैं
लेकिन प्रभावित नहीं कर पातीं
चमकती किरणों की
सचाइयों को जनता है वह
कहां से मिलती है
 उनकी आभा को ऑक्सीजन
कभी कभी सोचता है वह
जाहिल ही क्यों नहीं बना रहा
आस्था के समुद्र में डुबकी लगाता
किसी का देवालय बनाने
किसी का पूजाघर तोड़ने की
बहसों और साजिशों में व्यस्त रहता
अपने धर्म के लिए आक्रामक रहता
दूसरे के धर्म के लिए कुतर्क गढ़ता
रीढ़ की हड्डी को लचीला बनाने के लिए
किसी संन्यासी से योग सीखता
फिर केंचुए की तरह रेंगते हुए
चढ़ जाता स्वर्ग की सीढ़ियां
और बन जाता विदूषक
कथित सर्वशक्तिमान
किसी नरपिशाच का
लेकिन नहीं
वह तो लिखना चाहता है
आज के समय की पंचपरमेश्वर
पर लिख नहीं पा रहा
अब और ताकतवर हो गए हैं
तमाम अलगू चौधरी
रेहन पर रखे बैलों का
निचोड़ रहे हैं कतरा कतरा
न एक अलगू चौधरी हैं
न कम है बैलों की संख्या
उसे तलाश है
किसी पंचपरमेश्वर की
जो उसके कथा के
चरित्रों के साथ
कर सके न्याय
वह बार बार सोचता है
कथा सम्राट प्रेमचंद होते तो
कैसी पंचपरमेश्वर लिखते
क्या बांच पाते
अलगू चौधरी का बही खाता
साल दर साल बढ़ता उसका मुनाफा
उस मुनाफे में से अलगा पाते
बैलों के पसीने की कीमत
बता पाते तिमाही लाभांश में
बैलों का है कितना हिस्सा?
वह बन गया है
अपने समय का मूक साक्षी
अनुदार समय में
अनुदार लोगों के बीच
खोज रहा है
समतावती कल्याणकारी राज्य
राज्य जिसकी उत्पत्ति
मनुष्य के कल्याण के लिए
मनुष्यों ने की
जिसे रक्षा करनी थी मानवता की
आज थैलीशाहों की थैली में
खो गया है वह
जनता को गाय बनाकर
कर लिया गया है अपहरण
गाय की पूंछ पकड़ कर ही
पार कर पाएंगे वैतरिणी
गा रहे हैं उनके चारण भाट
कल्पित स्वर्गलोक के लिए
एक दूसरे को मार काट रहे
प्रचारित प्रसारित कर रहे
मनगढ़ंत इतिहास की कहानियां
अपने दिमाग के भूसे को
गोबर में तब्दील कर
फेंक दे रहे यहां-वहां जहां-तहां
और बता रहे हैं गोबरधन
इन्हीं में लिथड़ा वह
खोजता फिर रहा
रीढ़ वाला बिना भूसेवाला इंसान
ताकि बची रहे इंसानियत
इससे पहले कि
कुदरत प्रलय ढाहे
और नष्ट हो जाय
समूचा ब्रम्हांड
कुछ लोग तो बचे रहें
जो कर सकें नव सृजन।
- ओमप्रकाश तिवारी

Comments

Popular posts from this blog

परिवर्तन लाजमी है तो डरना क्यों? - ओमप्रकाश तिवारी मानव सभ्यता अंतरविरोधों के परमाणु बम जैसी है। इसके अंतरविरोध परिवर्तनशील बनाकर इसे आगे बढ़ाते हैं तो यही इसका विनाश भी करते हैं। मानव जाति का इतिहास गवाह है कि भूत में कई सभ्यताएं तबाह हो गईं जिनके मलबे से खाद-पानी लेकर नई सभ्यताओं ने जन्म लिया और फली-फूली हैं। यही वजह है कि मानव भविष्य को लेकर हमेशा चिंतित रहता है। उसकी अधिकतर योजनाएं बेहतर भविष्य के लिए होती हैं। लेकिन हर आदमी, हर समाज और हर सभ्यता व संस्कृति हमेशा बेहतर नहीं साबित होती। अक्सर इंसानी अनुमान धरे केधरे रह जाते हैं और भविष्य कुछ का कुछ हो जाता है। वामपंथी चिंतक कार्ल मार्क्स का आकलन था कि पूंजीवादी व्यवस्था अपनी तबाही के लिए खुद ही रास्ते बनाती है। यही वजह है कि एक दिन यह व्यवस्था तबाह हो जाएगी और इसके स्थान पर नई व्यवस्था सामने आएगी। नई व्यवस्था क्या होगी इसकी भी मार्क्स ने कल्पना की और बताया कि वह साम्यवादी व्यवस्था होगी। लेकिन ऐसा हुआ क्या? आज लगभग पूरी दुनिया में पूंजीवादी व्यवस्था है। सोवियत रूस जैसे देशों में साम्यवादी व्यवस्था आई भी तो वह पूंजीवादी व्यवस्था ...

कहीं कुछ ज्यादा तो नहीं टूट रहा-

कहीं कुछ ज्यादा तो नहीं टूट रहा- -मृत्युंजय कुमार यह इक्कीसवीं सदी हैइसलिए बदल गई हैं परिभाषाएंबदल गए हैं अर्थसत्ता के भीऔर संस्कार के भी।वे मोदी हैं इसलिएहत्या पर गर्व करते हैंजो उन्हें पराजित करना चाहते हैंवे भी कम नहींबार बार कुरेदते हैं उन जख्मों कोजिन्हें भर जाना चाहिए थाकाफी पहले ही।वे आधुनिक हैं क्योंकिशादी से पहले संभोग करते हैंतोड़ते हैं कुछ वर्जनाएंऔर मर्यादा की पतली डोरी भीक्योंकि कुछ तोड़ना ही हैउनकी मार्डनिटी का प्रतीकचाहे टूटती हों उन्हें अब तकछाया देनेवाली पेड़ों कीउम्मीद भरी शाखाएंशायद नहीं समझ पा रहे हैंवर्जना और मर्यादा का फर्क।
मेरी मसूरी यात्रा इस पार-उस पार और गगन विचरण की फितरत जिज्ञासु, शंकालु और प्रश्नाकुल बने रहना इंसानी फितरत है। यह हर किसी में कम ज्यादा हो सकती है लेकिन होती हर किसी में है। जिसमें अधिक होती है वह हमेशा समुद्र के उस पार, जमीन के नीचे और गगन विचरण करना चाहता है। आज हम दुनिया को जितना भी जान पाते हैं, हमारे बीच आज जो भी ज्ञान का भंडार है, मानव सभ्यता ने जो विकास किया है, उसमें इंसानी फितरत के इन तीन गुणों-अवगुणों की अहम भूमिका है। अमेरिका और भारत की खोज इसी का परिणाम है। तो पहाड़ोें की रानी के नाम से विख्यात मसूरी भी इसी इंसानी फितरत का नतीजा है। आज जहां मसूरी बसी है और लाखों सैलानी हर साल प्रकृति के नजारे का लुत्फ उठाने पहुंचते हैं, वहां कभी घना जंगल था। बताते हैं कि सहारनपुर से दूरबीन पर दिखने वाली भद्राज मंदिर की चोटी ने गोरों को यहां आने के लिए प्रेरित किया। वर्ष 1814 में ब्रिटिश सर्वेयर जनरल जॉन एंथनी हॉजसन और उनकी टीम के तीन अन्य सदस्यों ने उस समय के गोरखा शासकों से स्वीकृति लेकर कालसी से होते हुए भद्राज पहुंचे थे। उन्हें यह पहाड़ी इतनी पसंद आई कि उन्होंने इसे ...