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कविता/ समय साक्षी

समय साक्षी
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सूर्यालोकित स्वर्गलोक की
रंगीनियां उसे भी पसंद हैं
लुभाती और ललचाती भी हैं
लेकिन प्रभावित नहीं कर पातीं
चमकती किरणों की
सचाइयों को जनता है वह
कहां से मिलती है
 उनकी आभा को ऑक्सीजन
कभी कभी सोचता है वह
जाहिल ही क्यों नहीं बना रहा
आस्था के समुद्र में डुबकी लगाता
किसी का देवालय बनाने
किसी का पूजाघर तोड़ने की
बहसों और साजिशों में व्यस्त रहता
अपने धर्म के लिए आक्रामक रहता
दूसरे के धर्म के लिए कुतर्क गढ़ता
रीढ़ की हड्डी को लचीला बनाने के लिए
किसी संन्यासी से योग सीखता
फिर केंचुए की तरह रेंगते हुए
चढ़ जाता स्वर्ग की सीढ़ियां
और बन जाता विदूषक
कथित सर्वशक्तिमान
किसी नरपिशाच का
लेकिन नहीं
वह तो लिखना चाहता है
आज के समय की पंचपरमेश्वर
पर लिख नहीं पा रहा
अब और ताकतवर हो गए हैं
तमाम अलगू चौधरी
रेहन पर रखे बैलों का
निचोड़ रहे हैं कतरा कतरा
न एक अलगू चौधरी हैं
न कम है बैलों की संख्या
उसे तलाश है
किसी पंचपरमेश्वर की
जो उसके कथा के
चरित्रों के साथ
कर सके न्याय
वह बार बार सोचता है
कथा सम्राट प्रेमचंद होते तो
कैसी पंचपरमेश्वर लिखते
क्या बांच पाते
अलगू चौधरी का बही खाता
साल दर साल बढ़ता उसका मुनाफा
उस मुनाफे में से अलगा पाते
बैलों के पसीने की कीमत
बता पाते तिमाही लाभांश में
बैलों का है कितना हिस्सा?
वह बन गया है
अपने समय का मूक साक्षी
अनुदार समय में
अनुदार लोगों के बीच
खोज रहा है
समतावती कल्याणकारी राज्य
राज्य जिसकी उत्पत्ति
मनुष्य के कल्याण के लिए
मनुष्यों ने की
जिसे रक्षा करनी थी मानवता की
आज थैलीशाहों की थैली में
खो गया है वह
जनता को गाय बनाकर
कर लिया गया है अपहरण
गाय की पूंछ पकड़ कर ही
पार कर पाएंगे वैतरिणी
गा रहे हैं उनके चारण भाट
कल्पित स्वर्गलोक के लिए
एक दूसरे को मार काट रहे
प्रचारित प्रसारित कर रहे
मनगढ़ंत इतिहास की कहानियां
अपने दिमाग के भूसे को
गोबर में तब्दील कर
फेंक दे रहे यहां-वहां जहां-तहां
और बता रहे हैं गोबरधन
इन्हीं में लिथड़ा वह
खोजता फिर रहा
रीढ़ वाला बिना भूसेवाला इंसान
ताकि बची रहे इंसानियत
इससे पहले कि
कुदरत प्रलय ढाहे
और नष्ट हो जाय
समूचा ब्रम्हांड
कुछ लोग तो बचे रहें
जो कर सकें नव सृजन।
- ओमप्रकाश तिवारी

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