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अंधेरे कोने : देश विच कंट्री


उसके कहने पर अमर को आश्चर्य नहीं हुआ। वह मानसिक रूप से इस तरह के हालात के लिए तैयार था। वह जानता था कि यहां पर उसकी दाल गलने वाली नहीं है।


अंधेरे कोने  (उपन्यास )

भाग एक
देश विच कंट्री

- सॉरी, यू आर नॉट सूटेबल फॉर माई टीम। 

उसके कहने पर अमर को आश्चर्य नहीं हुआ। वह मानसिक रूप से इस तरह के हालात के लिए तैयार था। वह जानता था कि यहां पर उसकी दाल गलने वाली नहीं है। कुछ देर चुप रहने के बाद अमर ने पूछा कि क्या मेरी कहानी अच्छी नहीं है?
- अच्छी है लेकिन
- लेकिन  
- इफ यू डोंट माइंड मिस्टर अमर तो एक बात कहूं?
अमर कुछ बोला नहीं। वह सामने वाले को केवल देखता रहा। सामने वाले ने कहना जारी रखा। 
- सॉरी फ्रेंड, कहना तो नहीं चाहिए लेकिन साफ कहना बेहतर रहता है। यह बात मैं किंहीं और शब्दों में किसी और तरह से भी कह सकता था। लेकिन मैं चाहता हूं कि आप हकीकत को समझें और अपने आपको सुधारें। आप में टैलेंट है लेकिन इंडिया में उसका उपयोग नहीं हो पाएगा। आप भारत के लिए उपयुक्त आदमी हैं।
- मैं समझा नहीं। अमर ने चौंकते हुए कहा।
- आप तो जानते ही होंगे कि इस कंट्री में दो कंट्री बन गई है। एक में इंडियन रहते हैं तो दूसरे में भारतीय। हालत यह है कि एक देश से दूसरे देश में जाने के लिए वीजा और पासपोर्ट चाहिए।
- इंडिया और भारत की बात कर रहे हैं आप लेकिन वीजा वाली बात समझ में नहीं आई। अमर ने कहा। 
- यू आर भारतीय हैं। आई एम इंडियन। आपका भारत अलग है माई इंडिया अलग। आपके भारत में आने-रहने के लिए मुझे हिंदी का वीजा और पासपोर्ट चाहिए। आपको मेरे इंडिया में आने और रहने के लिए अंग्रेजी का वीजा-पासपोर्ट चाहिए।
- अच्छा। अब समझा। मुझे अंग्रेजी नहीं आती इसलिए आप मुझे अपनी टीम से नहीं जोड़ सकते। इसे आप सीधे-सीधे भी कह सकते थे। इतनी बड़ी भूमिका बांधने की क्या जरूरत थी? हमारे बुजुर्गों ने कहा है कि बांधे बनिया बाजार नहीं लगती। एक और कहावत कही है कि घी दिए बाभन नरियाई। 
सही है कि मुझे अंग्रेजी नहीं आती। लेकिन इसका मुझे कोई अफसोस नहीं है। मेरा भारत मुझे अच्छा लगता है। मुझे भारतीय होने पर गर्व है। 
अमर ने कुर्सी से खड़ा होते हुए कहा।
- मैं जानता हूं इसीलिए कह रहा हूं कि आप हमारी टीम के सदस्य नहीं हो सकते हैं।
- आश्चर्य है जनाब। आप कमाते भारत में हैं और रहते इंडिया में हैं। इंडियन होने का यदि आपको गर्व है तो भारत में क्यों आते हैं? भारत किसी इंडिया का उपनिवेश नहीं है। अमर ने सामने वाले की आंखों में आंखें डाल कर कहा। 
- आपकी बात सही है लेकिन यह ग्लोबलाइजेशन का जमाना है। आल वर्ल्ड कर्न्वेटेड ए विलेज। जिसके पास दिमाग है वह कहीं भी जा सकता है। रह सकता है। कमा सकता है। व्यवसाय कर सकता है। 
उसने गर्व और आत्मविश्वास से अमर से कहा।
- आप कहना चाहते हैं कि हमारे पास दिमाग नहीं है? अमर ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा। 
- नहीं, मैं कहना चाहता हूं कि आप उसका उपयोग नहीं करना चाहते। उसका जवाब था। 
- मुझे दासता से नफरत है। मैं किसी भाषा का गुलाम नहीं होना चाहता। अमर ने अभिमान से कहा।
- तो आप पिछड़ जाएंगे। शायद हाशिए पर भी जगह न मिले। उसने लगभग चेतावनी वाले लहजे में कहा।
- अपने ही देश में बेगाने। अपने ही देश में हाशिए पर। अपने ही देश मेें शोषण। अपने ही देश में हंसी के पात्र बन गए हैं हम भारतीय। हम भारतीय जिनकी तादाद ज्यादा है उनका शोषण मुठ्ठी भर अंग्रेजी के विदूषक कर रहे हैं। सोच कर खुद पर शर्म आती है। हम भारतीय इतने नपंुसक कैसे हो गये? 
- ब्रदर इतना मान लीजिए कि आपको यदि सफल होना है, तरक्की करनी है तो अंग्रेजी भाषा से आप भाग नहीं सकते। यह बात यदि आप पहले समझ लिए होते तो आज आप मेरी टीम के सदस्य होते और लाखों रुपये महिना कमाते। आपकी पूरी लाइफ स्टाइल बदल जाती। मैं तो कहता हूं कि आपको अपनी टिपिकल सोच से बाहर आना चाहिए। 
- आप फिल्में, सीरियल और विज्ञापन बनाते तो हिंदी में हैं? 
- लेकिन हमारे कलाकार भारतीय नहीं इंडियन होते हैं! उन्हें किसी भारतीय के साथ काम करने में दिक्कत होती है। 
- यह भी खूब रही। खाते हिंदी की हैं और हगते अंग्रेजी हैं। 
- क्या कहा?
- कुछ नहीं! अब मैं चलता हूं। यहां रुकना खतरे से खाली नहीं है। बिना वीजा और पासपोर्ट के एक भारतीय इंडिया में गिरफ्तार हो सकता है। आपने मुझसे बात की। समझाया। ज्ञान दिया। इसके लिए धन्यवाद। 
यह कह कर अमर उकसे केबिन से बाहर आ गया। 
- साला मैं तो अब भी भारत में नहीं हूं। 
अमर ने फ्लाईओवर पर खड़े होकर अंधेरे को चीरती सड़क की लाइटों को देखते हुए सोचा। उसकी निगाह जहां तक गई पूरी सड़क पीली रोशनी में जगमगाती नजर आई। 
यह पुल बनने के बाद अमर इस पर पहली बार आया है। उसकी निगाह सड़क पर गई। सैकड़ों वाहन भागे जा रहे हैं। बरसाती नदी की तरह दौड़ते वाहनों को देखकर अमर ने सोचा कि ये भारतीय भागे जा रहे हैं या इंडियन? क्या सभी इंडियन हैं? फिर भारतीय इस देश में कहां रहते हैं?
अमर की निगाह अपने सामने की होर्डिंग पर गई। बिजली की दूधिया रोशनी में नहाया बोर्ड भव्यता के साथ खड़ा एक उत्पाद का गुण प्रदर्शित कर रहा था। बोर्ड पर लिखी इबारत अंग्रेजी में थी। तस्वीर में हिंदी फिल्म का एक अभिनेता, जिसका पिता भी अभिनेता है और दादा हिंदी का प्रसिद्ध कवि था, संबंधित उत्पाद पर मुग्ध और आत्मसंतुष्टि के भाव से मुस्करा रहा है। अमर के मुंह से अनायास ही निकल गया - एक भारतीय का पोता इंडियन बन गया...। लेकिन यह बेवकूफ किसे बना रहा है? जिस उत्पाद का प्रचार कर रहा है, उसका उपभोक्ता कौन है? भारतीय या इंडियन? शायद दोनों लेकिन कंपनी इसके बहाने भारतीयों को ही निशाना बना रही है।
अमर की निगाह एक और होर्डिंग पर गई। उस पर एक अस्सी वर्षीय नेता की तस्वीर चमक रही है। बोर्ड पर लिखी इबारत अंग्रेजी में है। यह एक चुनावी होर्डिंग है। जिस पर एक पार्टी के भाविष्य के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नेता जनता से कुछ कहते प्रतीत हो रहे हैं। अमर ने सोचा कि यह नेता किससे वोट मांग रहा है? इसकी सरकार बनी तो यह भारत का प्रधानमंत्री होगा या इंडिया का पीएम? बेचारा यह भी नहीं जानता कि पीएम बनने के लिए वोट भारतीयों से उनकी भाषा मंे मांगना पड़ता है। 
प्रधानमंत्री तो भारतीय ही बनाते हैं। बेशक पद मिलने के बाद वह मिस्टर पीएम बन जाता है और और कार्य इंडियनों के लिए करता है। यहीं मात खा गए पीएम इन वेटिंग...। अमर यह सोचकर मुस्कुराया।  
- माननीय, तुम्हारी हार तो तय है। वह चहलकदमी करते हुए थोड़ा आगे बढ़ गया। यहां उसकी निगाह फिर एक होर्डिंग पर पड़ गई। इसमें एक युवा नेता अपनी मां की तस्वीर के साथ गंभीर मुद्रा में है। इनकी तस्वीर के साथ वर्तमान प्रधानमंत्री की भी तस्वीर है। पीएम की तस्वीर भी गंभीर मुद्रा में है। मानो यह नेता लोगों से कह रहे हों कि हमें गंभीरता से लेना। हम हैं तो आप हैं। हम नहीं होंगे तो आपका क्या होगा? इसकी भी इबारत अंग्रेजी में है। 
अमर ने सोचा सत्तापक्ष की होर्डिंग मंे तीन तस्वीर, एक महिला, एक युवा और एक बुजुर्ग। जबकि विपक्षी दल के होर्डिंग में एक तस्वीर, वह भी एक बुजुर्ग की। कहते हैं कि यह देश जवानों का है लेकिन उसका नेतृत्व बूढ़े हाथों में है या तो जाने वाला है। ऐसे में तो सत्ता पक्ष चालाक निकला। एक बुजुर्ग के मुकाबले तीन को खड़ा कर दिया। एक युवा और एक महिला। अमर को कहावत याद आई कि अकेला चना भाड़ नहीं भोड़ता। अकेला बुजुर्ग क्या करेगा? युवा जोश महिला की सूझबूझ और बुजुर्ग का नेतृत्व मिलकर भारी पड़ेगा। लेकिन यह लोग भी जिससे वोट मांग रहे हैं, वह तो मतदान केंन्द्र तक जाता ही नहीं फिर उसकी भाषा का इस्तेमाल क्यों? इनकी सफलता भी भारतीयों के हाथों में है। लेकिन ये उनसे संवाद नहीं करना चाहते। आजाद देश की गुलाम मानसिकता...।
अमर आगे बढ़ा तो इन्हीं दलों और नेताओं के हिंदी में लिखे होर्डिंग मिले। इनके अलावा कई और होर्डिंग मिले। जिसमें विभिन्न कंपनियां अपने उत्पादों को प्रदर्शित कर रखी हैं। किसी की भाषा अंग्रेजी है तो किसी की हिंदी। 
इस फ्लाईओवर के किनारे इतने होर्डिंग देखकर अमर हैरान रह गया। उसे लगा जैसे वह होर्डिंग के जंगल में भटक  गया है। जिसके बीच से वाहनों को पानी की तरह बहाती बरसाती नदी रूपी सड़क है...।
आज जहां यह फ्लाईओवर और सड़क है कभी यहां यमुना पुश्ता हुआ करता था। जहां पर भारत का एक भाग बसता था...। लक्ष्मी नगर चुंगी से शकरपुर के स्कूल ब्लाक से होते हुए पांडव नगर रेलवे लाइन तक पुश्ते पर स्लम बस्ती थी। 
आज अमर बेहतर नौकरी की तलाश में फिर से दिल्ली और इस इलाके में आया है तो उस समय वह एक अदद नौकरी की तलाश में आया था। 
एक गरीब किसान का बेटा दिल्ली जैसे महानगर में पहुंचते ही भौचक्का रह गया था। सड़कों पर दौड़ते वाहन उसे अचंभित कर रहे थे। स्कूल के दिनों में टैªफिक नियमों के बारे में पढ़े पाठ और उसके चित्र उसे याद आ रहे थे। उसे पहली बार एहसास हुआ कि पढ़ाई का क्या महत्व है। दिल्ली आने पर उसे उस ट्रैफिक वाले पाठ से काफी मदद मिली। सड़क पर दौड़ते वाहनों के  बीच से उसे रास्ता बनाने में इस पाठ ने काफी सहायता की।
अमर यहां अपने बड़े भाई समर के पास आया था। घर के आर्थिक हालात ठीक नहीं थे। वह बारहवीं पास करने के बाद नौकरी की तलाश में दिल्ली आ गया था। समर यहां पर नौकरी करता था। लेकिन कैसी नौकरी करता है यह अमर को मालूम नहीं था। जब वह समर के दिये पते पर पहुंचा तो वह एक फैक्ट्री का निकला था। 
समर को यहां पर मजदूरी करते देख अमर को गहरा धक्का लगा। वह यह तो जानता था कि समर किसी फैक्ट्री में काम करता है लेकिन मजदूरी करता है इसकी जानकारी नहीं थी। स्नातक पास युवक दिल्ली जैसे शहर में आकर किसी कारखाने में मजदूरी करे इसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। हकीकत का सामना होते ही उसके भी सपने भरभरा का बिखर गए...। 
समर बीए पास है फिर उसे नौकरी क्यों नहीं मिली? वह जो काम कर रहा है उसे तो अपनढ़ भी कर सकते हैं? फिर पढ़े-लिखे होने का क्या मतलब? अमर के दिमाग में यह सवाल उठे थे। मेरा क्या होगा? यह सवाल उसके दिमाग में किसी तूफान की तरह आया था। मुझे भी मजदूरी करनी पड़ेगी? यह काम मुझसे नहीं हो पाएगा। फिर क्या करेगा? यही तो नहीं मालूम था अमर को। उसे अपने एक रिश्तेदार की बातें याद आईं। 
- आगे चलकर क्या करना है अमर? रिश्तेदार ने पूछा था।
- कुछ भी। अमर का जवाब था। 
दरअसल, उसे पता नहीं था कि आगे चलकर क्या करना है। वह तो सोचता था कि गांव में पढ़ाई करनी है फिर किसी शहर जाकर कोई काम कर लेना है। एक सम्मान जनक नौकरी उसका सपना थी। लेकिन कैसी नौकरी, कैसा काम, इसके बारे मंे उसने कभी सोचा नहीं था। 
अक्सर संतान के सपने उसके मां-बाप के सपनों से जुड़े होते हैं। अमर के मां-बाप का सपना अपने बेटों के लिए एक नौकरी से अधिक नहीं था। यही कारण था कि अमर भी अपने सपने को आगे नहीं बढ़ा पाया। उसके सपनों में कभी इंजीनियर या डॉक्टर बनने की बात आई ही नहीं। इसका एक कारण उसकी आर्थिक स्थिति भी थी। वह जानता था कि इंजीनियर, डॉक्टर या आईएएस-आईपीएस बनने के लिए जो पढ़ाई और उसके लिए जो खर्च आता है वह उसके पिता के वश की बात नहीं है। इसलिए उसने अपने सपने को अपनी हकीकत के धरातल पर ही खड़ा किया था। 
यह भी सच था कि उसने मजदूरी करने का सपना कभी नहीं देखा था। भाई को देखकर जो हकीकत सामने आई उससे वह चकरा गया।
- कुछ करने के लिए एक लक्ष्य होना चाहिए। एक सपना होना चाहिए और उसे पाने का जोश व जुनून होना चाहिए। अमर के रिश्तेदार ने आगे कहा था। अपने इस रिश्तेदार को अमर कोई जवाब नहीं दे पाया। बदले में रिश्तेदार ने ही कहा था। 
- सेना में भर्ती होना है या पुलिस में? आईएएस बनना है या पीसीएस। वकील बनना है या डॉक्टर। इंजीनियर बनना है या एकउंटंेट?
इनमें से कई शब्द ऐसे थे जिन्हें अमर ने पहली बार सुना था। वह तो इतना जानता था कि पढ़ाई-लिखाई करने के बाद नौकरी मिल जाती है। वही वह कर रहा था लेकिन उसे नहीं पता था कि क्या पढ़ाई करने पर कौन सी नौकरी मिलती है। हां, इतना जरूर जानता था कि सेना और पुलिस में भर्ती होने के लिए जुगाड़ और रिश्वत देने की जरूरत होती है। यह भी जानता था कि उसके पास कोई सिफारिश नहीं है। न ही रिश्वत देने के लिए पैसे। आईएएस-आईपीएस के बारे में उसे जानकारी जरूर थी। वह जानता था कि इसे पढ़ाई में बहुत तेज रहने वाले युवक ही हासिल कर पाते हैं। इसके लिए भी शहर यानी इलाहाबाद और दिल्ली आदि जाकर पढ़ाई करनी पड़ती है। 
पढ़ाई में वह औसत था और आर्थिक स्थिति औसत से भी ज्यादा खराब। इसलिए इनके बारे में उसने सोचा ही नहीं। डॉक्टर और इंजीनियर कैसे बनते हैं, उसे मालूम ही नहीं था। 
उसका सपना था कि पढ़-लिखकर कमाने लगे, जिससे उसके घर के आर्थिक हालात ठीक हो जाएं। गिरवी रखे खेत छुड़वा ले और मां-बाप फटे-पुराने कपड़े पहनने को मजबूर न हों। पिता को उधार मांग कर किसी के सामने शर्मिंदगी न उठानी पड़े। 
अमर भाई के कमरे पर गया तो उसे फिर एक आघात लगा। छोटा सा कमरा था। जिसमें से अजीब सी बदबू आ रही थी। ऐसी बदबू से उसका सामना पहली बार हुआ था। इस कमरे में अपने तीन साथियों के साथ समर रहता था। अब चौथा अमर आ गया था। चार लोग इसमें कैसे रह लेंगे? अमर ने खुद से पूछा था।
कमरा ऐसे मकान में था जो दोमंजिला था। इसमें ऐसे ही कई कमरे थे और सभी में किरायेदार रहते थे। कुछ परिवार के साथ तो कुछ अकेले तो कुछ तीन-चार के साथ। कम से कम बीस कमरों वाले इस मकान में लैट्रिन-बाथरूम एक ही था। वह भी इतना गंदा कि उसमें जाने की अमर की इच्छा ही नहीं हुई। 
इस इलाके के अधिकतर मकानों का ऐसा ही हाल था। यहां रहने वाले लोग सुबह-शाम बोतल में पानी लेकर दिशा-मैदान के लिए यमुना के किनारे स्थित खेतों में जाते थे। खेत बहुत कम खाली रहते। लोग किसी तरह जगह तलाशते और टट्टी के ऊपर टट्टी करते। अमर को बड़ी घिन आती। टट्टी के मारे पैर रखने की भी जगह न मिलती। ऐसा शौच करना उसके लिए काफी पीड़ादायक था। वह जगह की तलाश में दूर तक चला जाता लेकिन ऐसी जगह उसे न मिलती जहां वह बिना घिन के शौच कर सके। जब कभी खेत खाली होते तो सुविधा हो जाती लेकिन खेतों में फसल होती या जुताई-बुवाई  चल रही होती तो काफी दिक्कत होती। 
अमर तो पुरुष था बिना आड़ के चार लोगों के सामने भी बैठकर शौच कर लेता लेकिन औरतों का हाल बुरा था। कई बार औरतें शौच के लिए बैठी होतीं और उनके सामने ही कोई पुरुष भी शौच कर रहा होता...।
एक दिन वह एक खेत में शौच कर रहा था कि खेत का मालिक आ गया। वह अमर को गालियां देने लगा। अमर उठ कर भागने को हुआ लेकिन पेट साफ नहीं हुआ था सो वह भाग नहीं पाया। गुस्से से लाठी पटकते हुए खेत मालिक उसके पास आ गया।
- क्यों रे बहन... चो.... तेरे बाप का खेत है? हग तो ऐसे रहा है जैसे लिखा लिया हो। मादर चो... भागता भी नहीं है। साला कुत्ता। खेत मालिक को जितनी गालियां आतीं थीं दिए जा रहा था। तब तक शौच करके अमर भी उठ गया। उससे बोलते नहीं बन रहा था। गालियों की बरसात में भीगता चुपचाप खड़ा रहा ...।
- भागता क्यों नहीं रे बहन चो....खेत मालिक बोला और लठ्ठ से मारने को हुआ तो अमर को भी गुस्सा आ गया। पानी की बोतल तोड़कर खेत मालिक के सामने खड़ा हो गया। वह गुस्से में कांप रहा था।
- साले अब एक भी गाली दी तो पूरी बोतल पेट में घुसेड़ दूंगा। अमर का यह रूप देखकर खेत मालिक भौचक्का रह गया। 
- चोरी और सीना जोरी। खेत मालिक ने कहा। प्रत्युत्तर में अमर बोला कि बहनों चो... यह मेरी मजबूरी है, चोरी नहीं। सीना जोरी के लिए तू मजबूर कर रहा है। गलती हो गई खेत में बैठ गया लेकिन इसके लिए इतनी गाली क्यों दे रहा है? कहते हुए अमर चला आया। उस दिन के बाद से वह रेलवे लाइन के किनारे जाने लगा। रेलवे लाइन के किनारे जंगलों के बीच में किसी खेत मालिक का भय नहीं था। दूसरे इतनी दूर तक जल्दी कोई आता भी नहीं था। 
यह जगह भी अधिक दिन तक सुरक्षित नहीं रही। हुआ यह कि पुश्ते पर लोग झुग्गी बनाकर रहने लगे। दो महीने में ही झुग्गियां रेलवे लाइन तक बन गईं। पहले लोग इसी पुश्ते पर ही दिशा-मैदान कर लेते थे। झुग्गियां बनने से यह सुविधा चली गई। मजबूरी में लोग रेलवे लाइन के किनारे आने लगे। 
कई बार तो स्थिति हास्यास्पद हो जाती। एक लाइन से कई औरतें शौच के लिए बैठी होतीं। उनके पास से ही हाथों में बोतल और मुंह में बीड़ी लिए लोग चले जा रहे होते। ऐसे मौकों पर लोगों की तीव्र उत्कंठा औरतों के जननांग देखने की होती। लेकिन उनकी यह हसरत पूरी न हो पाती। ऐसे हालात में शुरू-शुरू मंे अमर हिचका लेकिन धीरे-धीरे वह भी अभ्यस्त हो गया। औरतें साड़ी को नीचे तक रखती थीं। हां, कभी-कभी औरतों का पिछवाड़ा जरूर दिख जाता, जिसे कोई सुबह-सुबह देखना नहीं चाहता था। फिर भी पुरुष की कमीनगी थी कि कम नहीं होती थी। कई तो औरतों को इस हालात में देखने के लिए ही बीडी पीते चले आते। झुग्गियों में रहने वाली ये औरतें खुलेआम शौच के लिए विवश थीं क्योंकि उनके पास शौचालय की कोई सुविधा नहीं थी। अपने पतियों के साथ देश के दूर-दराज से आई ये महिलाएं यदि शर्म करती तो शौच न कर पातीं। 
अमर टहलते-टहलते अक्षरधाम मंदिर के पास आ गया। उसे थकान का एहसास हुआ। सोचा अब वापस चलना चाहिए। सड़क पर अब भी वाहन भागे जा रहे थे। फ्लाईओवर पर चढ़ते और उतरते वाहन उसे अच्छे लगे। उसे यह सब एक एक खेल सा लगा। 
अमर ने अक्षरधाम मंदिर की तरफ देखा। उसे याद आया कि यहां कभी खेत हुआ करते थे। जिसमें धान-गेहूं के अलावा किसान फूलों की खेती करते थे। कई बार यमुना नदी बरसात में यहां तक बहती थी। मंदिर बनने के बाद क्या यमुना का पानी बारिश में यहां तक नहीं आएगा? 
मंदिर से थोड़ा और आगे यमुना नदी के किनारे खेल गांव बनाया जा रहा है। जहां 2010 में कामन वेल्थ गेम होगा। इसके लिए कुछ फ्रलैट्स भी बनाए गए हैं। इन फ्लैटों की कीमत करोड़ों रुपये में है। 
खेल गांव जहां बन रहा है, वहां कभी सफेदे के पेड़ों का जंगल हुआ करता था। जिसे साफ कर दिया गया है...। 
सड़क के पास से मेट्रो रेलवे लाइन जा रही है। अक्षरधाम मंदिर के पास रेलवे लाइन सड़क को क्रास करके मयूर विहार की तरफ निकल गई है। दिल्ली वासियों को इस मेट्रो पर बहुत गर्व है। हो भी क्यों न इस नई व्यवस्था ने दिल्लीवासियों की जिंदगी को आसान बना दिया है। इस  आधुनिक सुविधा ने बहुत सारे दिल्लीवासियों को कार से चलना बंद करा दिया है। इससे शहर में प्रदूषण कम हुआ है। लेकिन इसकी अपनी दिक्कतें भी हैं। यह आए दिन इससे यात्रा करने वाले ही जानते हैं। बीच रास्ते में टेªन का रूक जाना। घंटों किसी सुरंग में फंसने का दर्द वही जानता है जो इसमें फंसता है। 
इसके बावजूद दिल्लीवासियों में इस सुविधा के लिए दिवानगी कम नहीं है। युवा वर्ग इस सुविधा को बहुत पसंद करता है। उसकी एक वजह यह भी है कि इस वर्ग ने इसे अपने रोमांस का एक जरिया बना लिया है। स्टेशनों की सीढ़ियों और चलती टेªनों में युवाओं का प्रेमालाप बिना किसी बाधा के जारी रहता है। कई प्रेमी जोड़े इस पर केवल प्रेमालाप के लिए ही यात्रा करते हैं। 
अमर वापस स्कूल ब्लाक की तरफ आने लगा। एक बार फिर उसकी निगाहें उन्हीं होर्डिंग्स पर पड़ीं। लेकिन वह इनमें न उलझकर अतीत में खो गया। 
तीन महीने बेरोजगार रहने के बाद अमर को समर की फैक्ट्री में हेल्पर का काम मिल गया। वेतन निर्धारित हुआ 750 रुपये प्रतिमाह। खाली बैठे रहने से कुछ करना बेहतर है, यह सोचकर अमर ने यह नौकरी कर ली लेकिन उसकी इसमें कोई रुचि नहीं थी। उसका मन बार-बार कहता कि मैं इस काम के लिए नहीं बना हूं। इससे कुछ बेहतर होना चाहिए। इसी बेचैनी में एक दिन उसे आशा की किरण दिखी। 
चाय की दुकान पर अखबार पढ़ते हुए उसे एक विज्ञापन दिखा। किसी फैक्ट्री में मैनेजर की जरूरत थी। 
अमर ने बिना देरी किये अप्लाई कर दिया। फैक्ट्री में अब तक के काम से वह इतना तो समझ ही गया था कि मैनेजर क्या करता है। उसे विश्वास था कि वह यह काम बखूबी कर सकता है। यह विश्वास इसलिए भी आया था क्योंकि अमर की फैक्ट्री का मैनेजर छठवीं पास था। अंग्रेजी उसे भी नहीं आती थी। अंग्रेजी का काम कई बार दूसरों से करवाता था। काम के कुछ फारमेट थे जिसे उसने रट लिया था। उसी से उसका काम चला रहा था। 
एक दिन अमर ने उसकी योग्यता पर किसी फैक्ट्री कर्मी से चर्चा की तो उसने बताया कि यह मालिक के यहां बचपन से ही नौकर है। पहले यह खाना-वाना बनाता था। कपड़ा आदि धोता था। लेकिन दिमाग का तेज था तो मालिक ने इसे यह जिम्मेदारी सौंप दी। उसके काम को देखते हुए अमर को यह विश्वास हो गया था कि किसी फैक्ट्री मंे मैनेजरी न सही सुपरवाइजरी तो कर ही सकता है। यही कारण था कि वह इसके लिए प्रयास करने लगा था। इस काम के लिए उसने अंग्रेजी अखबार का सहारा लिया। उसमें रिक्तियां पढ़ता और फिर आवेदन करता। कई बार तो सीधे इंटरव्यू के लिए भी गया।
एक दिन उसे एक जगह से इंटरव्यू के लिए बुलावा आया। धकड़ते दिल से वह उल्लेखित पते पर पहुंचा। वहां जाकर उसे पसीना आ गया। गला सूख गया। एक पद के लिए कम से कम बीस लोग इंटरव्यू देने आये थे। सभी अमर से बीस थे। पैंट-शर्ट और टाई पहने लोगों के हाथों में चमचमाती फाइल थी। सभी युवक आत्मविश्वास से लवरेज थे। अमर नर्वस था। उसके कपड़े-साफ सुथरे थे लेकिन घिसे-पिटे और बदरंग थे। टाई तो उसने आज तक नहीं पहनी थी। 
सभी कार्यालय के बाहर स्वागत कक्ष में बैठे थे। अपना बायोडाटा जमा करके अमर भी वहीं बैठ गया। एक-एक करके युवकों को अंदर बुलाया जाता। लड़के अंदर जाते और दस-15 मिनट बाद बाहर निकलते और तेजी से बाहर चले जाते। करीब एक घंटे बाद अमर का नंबर आया। 
एक केबिन में शूट-बूट पहने दो आदमी लग्जरी कुर्सी पर बैठे थे। अमर के प्रवेश करते ही उन्होंने उसे बैठने का इशारा किया। वह कुर्सी पर बैठा ही था कि एक ने अंग्रेजी में पूछा। - अपका नाम क्या है?
- जी अमर। अमर ने हिंदी में जवाब दिया। तब तक दूसरे ने कहा। 
- तुम्हें अंग्रेजी नहीं आती?
- कम आती है सर।
- कम से मतलब?
- अंग्रेजी में बातचीत नहीं कर सकता लेकिन समझ लेता हूं।
- आपका बायोडाटा भी हिंदी में है?
- मिस्टर अमर हमारे यहां हिंदी में काम नहीं होता। 
- यहां सब अंग्रेजी में लिखा-पढ़ा जाता है।
- जी मैं कोशिश करूंगा...।
- क्या कोशिश करेंगे? एक ने कड़क आवाज में कहा।
- ऐसा करो आप दूसरी जगह जाकर कोशिश करो। हमारे यहां आपके लायक जगह नहीं है। दूसरे ने साफ इनकार कर दिया। उसके चेहरे पर अमर के प्रति घृणा के भाव साफ पढ़े जा सकते थे। अमर ने सोचा यह मुझसे नफरत कर रहा है कि मेरी भाषा से!
अमर उठकर जाने लगा तो उनमेें से एक ने कहा।
- मिस्टर अमर आइंदा इसका ख्याल रखना कि आप जिस काम के योग्य हैं उसके लिए ही अप्लाई करें। ऐसे किसी का वक्त बर्बाद न करें। 
- जी याद रखूंगा। कहता हुआ अमर बाहर आ गया। 
बाहर आकर उसे लगा जैसे वह निर्वस्त्र हो गया है। उसे देखकर लोग ठहाके लगा रहे हैं। उसे पागल-पागल कह कर संबोधित कर रहे हैं। वह सड़क पर आया। वहां पानी बेचने वाले से एक गिलास पानी लेकर पिया तब जाकर थोड़ा रिलेक्स हो पाया। हालांकि सहजता काफी देर बाद ही उसे आ पाई। चलने से पहले उसने इलाके के भवनों को देखा। बहुमंजिली इमारत काले शीशे के आफिसों से अटी पड़ीं थीं। अमर ने लंबी सांस लेते हुए सोचा कि यह किसका देश है? मैं कहां हूं? ये दफ्तर किसका है? किसके लिए काम करते हैं? ये कौन लोग हैं? कहां से आए हैं? वह सड़क पर आ गया। लोग एक दूसरे को धक्का देते आगे बढे़ जा रहे थे। रुकावट बनने वाले को भद्दी गाली भी देते। नौकरी के क्षेत्र में अंग्रेजी की अज्ञानता के कारण यह अमर की पहली शिकस्त थी। वह यह तो जानता था कि अंग्रेजी के बिना अच्छी नौकरी नहीं मिल सकती लेकिन नौकरी मिलेगी नहीं इसका एहसास उसे पहली बार बड़ी शिद्दत से महसूस हुआ। 
मोबाइल फोन की रिंगटोन ने अमर को वर्तमान में लाकर पटक दिया। 
- कहां हो यार? यह अमर का मित्र अनिल था।
- ऐसे ही टहलने आ गया था। अमर ने जवाब दिया। उसकी अवाज में अभी भी नमी थी।
- क्या हुआ? तुम्हारी आवाज कैसी हो गई है?
- कुछ नहीं। बस ऐसे ही। अमर को लगा कि वह ज्यादा बोलेगा तो रो देगा।
- आ जाओ यार। अभी खाना भी नहीं खाया है। 
- बस पहुंचने ही वाला हूं।
- जल्दी आओ। सागर भी आ गया है।
- हां, आ रहा हूं। कहते हुए अमर ने फोन काट दिया।
उसके कदम तेजी से अपने दोस्त अनिल के कमरे की तरफ बढ़ने लगे। वह सोच रहा था कि मेरी वजह से अनिल भी परेशान हो रहा है।
- आओ यार। दिन भर घूमते रहे और शाम को भी निकल गए तो अब आ रहे हो। तुम्हारे काम का क्या हुआ? अमर के कमरे पर पहुंचते ही अनिल ने सवालों की बौछार कर दी। 
अनिल अमर का पुराना मित्र है। संघर्ष के दिनों का साथी। दोनों ने साथ ही पत्रकारिता की शुरूआत की थी। अभी वह अनिल के यहां रुका है। उसके यहां इन दोनों का एक और मित्र सागर भी आया हुआ है। अमर जहां एक फिल्म-टीवी सीरियल प्रोडक्शन कंपनी के लिए पटकथा लेखक के लिए इंटरव्यू देने आया है। वहीं सागर का अपने संस्थान से ट्रांसफर हो गया है। वह इस महानगर में अपनी जड़ें जमाने की कोशिश में है। 
जड़ों से उखड़े लोग। अमर को अपनी एक कविता की लाइन याद आ गई। उसके सामने तूफान में जड़ सहित उखड़े पेड़ की आकृति भी उभर गई...।
- काम नहीं बना यार। फर्श पर बिछे बिस्तर पर बैठते हुए अमर ने कहा। 
- कहानी पसंद नहीं आई?
- कहानी की तो उसने तारीफ की।
- फिर पटकथा-संवाद अच्छे नहीं लगे?
- इसकी भी तारीफ की।
- फिर क्या हुआ?
- बोला तुम भारतीय हो और मैं इंडियन। तुम्हारे पास हमारे देश में काम करने के लिए वीजा नहीं है। तुम बिना पासपोर्ट के ही हमारे देश में आ गए हो। 
- क्या मतलब?
- अरे वही अंग्रेजी का मामला यार। साला बोला तुम्हें हमारे देश में प्रवेश और काम करने के लिए अंग्रेजी का वीजा और पासपोर्ट चाहिए।
- ऐसा बोला। मारा नहीं साले की चूतड़ पर चार लात? बहन चो... हिंदुस्तान में इंडिया की बात करता है। खाता साला हिंदी की है और हगता अंग्रेजी है। दोगला साला। मैं तो कहता हूं ऐसे दोगलों को लाइन में खड़ा करके गोली मार देनी चाहिए। बहन चो... ने देश का बेड़ा गर्क कर रखा है। 
अनिल एक सांस में जो मुंह में आया बोल गया। उसके हाव-भाव से लग रहा था कि यदि इस समय वह आदमी उसके सामने होता तो यह सचमुच में उसे पीट देता। 
- हर जगह ऐसा ही हाल है। गहरी सांस लेते हुए सागर बोला।
- इस साले की गांड़ पर लात लगने वाली है। ये भी साला वहां संपादक का पप्पू बना हुआ था। साले ने खूब मौज की। कइयों का काम लगया। अब इसकी बारी है। यहां आते ही फटने लगी है। कहता है कि यहां अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद करना पड़ रहा है। 
- तो क्या हुआ? इसे तो अंग्रेजी आती है।
- अंग्रेजी नहीं बाबा जी का घंटा आता है।
- क्या बात कर रहा है?
- सही कह रहा हूं। इसके डेस्क प्रभारी ने इससे साफ-साफ कह दिया कि तुम्हें न तो हिंदी आती है न ही अंग्रेजी।
अमर को याद आया। वह एक अखबार में नौकरी मांगने गया था। उसका टेस्ट लेने के बाद संपादक ने कहा था कि तुम्हें तो न ही हिंदी आती है न ही अंग्रेजी। अभी बहुत मेहनत करने की जरूरत है। इस पर अमर ने प्रतिवाद किया था। 
- सर यह तो ठीक है कि अंग्रेजी नहीं आती लेकिन हिंदी तो ठीक है। 
- केवल हिंदी से काम नहीं चलता। संपादक ने तपाक से कहा था। हमारे यहां ऐसे लोग काम करते हैं जिन्हें अंग्रेजी और हिंदी दोनों आती है। 
- हिंदी के अखबार में अंग्रेजी की क्या जरूरत? 
अमर ने सवाल किया था। 
- कैसी मूर्खों वाली बात कर रहे हो। अखबार हिंदी में छपता है लेकिन एजेंसी की खबरों और आर्टिकल्स का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद करना पड़ता है। कहीं रिर्पोटिंग करने जाओगे तो वह अंग्रेजी में बोलेगा तो कैसे समझोगे? संपादक ने सवाल किया था। अमर कुछ बोल नहीं पाया। वह उठकर केबिन से बाहर आ गया। उसके पीछे संपादक ने कहा था हिंदी पत्रकारिता में अंग्रेजी के बिना काम नहीं चलता। यदि किसी का चल भी गया तो वह आगे नहीं बढ़ पता। इसलिए अपनी अंग्रेजी सुधारो। अमर के कानों के पास काफी देर तक संपादक के अंतिम वाक्य के एक-एक शब्द गूंजते रहे। ये शब्द आज भी उसके कानों के आसपास ही विचरते रहते हैं...।
- हां भाई। अनिल ने सागर से पूछा।
- हां यार। बहन चो.... बहुत हरामी है। संपादक को भी मेल कर दिया है। मेरी तो नौकरी गई।
- तो क्या सचमुच तुम अनुवाद नहीं कर पाते?
- पिछले कई सालों से किया नहीं। अब पै्रक्टिस नहीं है तो कुछ समय बाद ही धाराप्रवाह अनुवाद कर सकंूगा। 
सागर ने बड़े हीनताबोध से कहा।
- सो तो है यार। अमर ने उसका समर्थन किया।
- तो क्या अनुवाद करना जरूरी है? ऐसी किसी डेस्क पर ड्यूटी लगवा लो जहां अनुवाद की जरूरत न पडे़े। लोकल डेस्क पर कौन सी अंग्रेजी की जरूरत पड़ती है? अनिल ने सागर को सलाह दी। 
- यह इतना आसान है क्या? हकीकत तो यह है कि मंदी के दौर में अखबार कास्ट कटिंग के नाम पर कर्मचारियों की छंटनी कर रहे हैं। इसके लिए सभी बहाना खोज रहे हैं। इसके मामले में उन्हें कारण मिल गया है। ये तो बकरा बना। किसी भी दिन हलाल हो जाएगा। अब इसे कोई नहीं बचा सकता। अमर ने कहा। 
- यार ये तो ज्यादती है। एक आदमी ने इस संस्थान की 15 साल सेवा की है। उसे इस तरह एक झटके से निकाल दिया जाएगा? अनिल ने कहा। 
- तब दोनों को एक दूसरे की जरूरत थी। आज कंपनी को इसकी जरूरत नहीं है। मेरे भाई एक हाथ से ताली नहीं बजती। अमर ने कहा। 
- मंदी के नाम पर कर्मचारियों की नौकरी लेना न्याय संगत नहीं है। अनिल ने कहा। 
- छोटे कर्मचारियों को निकाल दे रहे हैं। बड़े अब भी जमे हुए हैं। बड़े चार भी निकाल दें तो 20 छोटे कर्मचारी बच सकते हैं। सागर ने कहा। 
- कंपनी को ऐसा ही करना चाहिए। अनिल ने कहा। 
- ऐसा कौन करता है? हर जगह छोटे कर्मचारी ही मारे जा रहे हैं। मंदी के नाम पर सभी कंपनियां छोटे कर्मचारियों को सड़क पर फंेक दे रही हैं। अमर ने थोड़ा गुस्से में अपनी बात रखी। 
- इस तरह तो बेचारे बर्बाद हो जाएंगे। सरकार को कुछ करना चाहिए। अनिल ने अफसोस जताने के अंदाज में कहा। 
- सरकार कर रही है ना। श्रम मंत्री कहता है कि कंपनियां छंटनी करें तो छह माह का वेतन दें। वित्तमंत्री कहता है कि कंपनियां छंटनी न करें, वेतन में कटौती कर दें। अमर ने कहा। 
- सरकार भी साली नपुसंकों की फौज है। अनिल ने गुस्से में कहा। 
- आखिर सरकार किसकी है? कर्मचारी तो मतदाता है। मतदाता की कौन सुनता है? सरकार तो धनदाता का ही ख्याल करती है। भले ही हम कहें कि यह लोकतंत्र है लेकिन असलियत में तो यह नोट तंत्र है। जिसका ‘चंदा’ उसकी जय हो। अमर ने कहा। 
- यार मेरी समझ में नहीं आता कि अभी एक माह पहले तक अर्थव्यवस्था कुलाचे भर रही थी। कहा जा रहा था कि हम 2020 में विश्व में एक महाशक्ति होंगेे और अब यह मंदी। यह माजरा कुछ समझ में नहीं आया। सागर ने अपनी जिज्ञासा और आशंका व्यक्त की। 
- मित्र हम उदारीकरण और वैश्विकरण के दौर में जी रहे हैं। आज यदि अमेरिका को बुखार होता है तो पूरी दुनिया खांसने लगती है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था मंदी की शिकार हुई और पूरी दुनिया का शेयर बाजार धड़ाम हो गया। अमर ने समझाने की कोशिश की। 
- बताते हैं कि 1926 के बाद अमेरिका में ऐसी मंदी आई है। वहां कंपनियां धड़ाधड़ दिवालियां हो रही हैं। अबतक करीब तीस अमेरिकी बैंक डूब चुके हैं और पांच छह लाख लोगों की नौकरी जा चुकी है। दुनिया का सबसे बड़ा दानदाता कंगाल होने की राह पर है। सागर ने कहा। 
- इस संकट के लिए जिम्मेदार कौन है? अनिल ने ऐसे कहा लगा खुद से ही पूछ रहा है। 
- अमेरिकी नीतियां। दरअसल, यह मंदी पूंजीवादी व्यवस्था की देन है। यह व्यवस्था अपनी मौत का मार्ग खुद बनाती है। अभी यह संकट में है लेकिन जल्द ही यह डूब जाएगी और करोड़ों लोगों को बर्बाद कर जाएगी। अमर ने अनिल के सवाल को परिभाषित करने की कोशिश की। 
- तो क्या पूंजीवादी व्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी? इस पर सागर ने अपने जिज्ञासा की गठरी खोल दी। 
- अभी ऐसा कहना जल्दबाजी होगी। इसके रहनुमा इसे बचाने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं। उम्मीद है कि बच जाएगी लेकिन इस आशंका को खारिज भी नहीं किया जा सकता कि यह धड़ाम हो जाए। अखिरकार इसकी अंतिम परिणति तो यही है। हो सकता है कि यह इस मंदी से उबर जाए लेकिन यह फिर संकट में नहीं फंसेगी इसकी कोई गांरटी नहीं है। यह अपने विकास के साथ ही अपना विनाश भी लेकर चलती है। इसके रहनुमा इसे बार-बार खपच्ची लगाकर खड़ी कर देते हैं। यह काम वह इतनी कलात्मकता से करते हैं कि लगता है कि इससे बेहतर कुछ नहीं है लेकिन एक चक्र पूरा होते ही यह फिर संकट में फंस जाती है और फिर वही कवायद आरंभ हो जाती है। इस तरह से इसे अधिक दिन तक तो नहीं बचाया जा सकता। आखिरकार इसका अंत तो तय है लेकिन कब यह समय ही बताएगा। अमर ने अपने ज्ञान को उड़ेलने का प्रयास किया। 
- फिर इस दुनिया क्या होगा? सागर ने फिर सवाल किया। 
- कुछ नहीं। एक व्यवस्था मरती है तो दूसरी जन्म लेती है। पूंजीवाद जाएगा तो कोई और व्यवस्था आएगी। अमर ने सागर को आश्वासन सा दिया। 
- हां, हो सकता है कि आने वाली व्यवस्था इससे बेहतर हो। अनिल ने अपनी राय जताई। 
- इसमें कोई शक नहीं कि इनसान को पूंजीवादी व्यवस्था से बेहतर व्यवस्था का निर्माण करना होगा। तभी इस धरती पर उसका अस्तित्व बच पाएगा। मानवता बच पाएगी। वर्ना यह तो तय है कि पंूजीवाद इनसान को खत्म कर देगा। इंसानियत और मानवता को तो इसने खत्म ही कर दिया है। मानव सभ्यता को भी चट कर जाएगी। इस व्यवस्था का मुख्य मकसद केवल धनपशु पैदा करना है। एक तरफ धनपतियों की संख्या में उनके धन में इजाफा हो रहा है तो दूसरी ओर गरीबों की संख्या बेतहाशा बढ़ती जा रही है। यह असमनता कहां जाकर रूकेगी कहा नहीं जा सकता। हालत यह है कि कुछ लोगों की विलाशिता और अधिकतर लोगों की विपन्नता देखकर मानवता कराह उठती है। ऐसा हर दिन, हर पल हो रहा है। आखिर मानवता कब तक सिसकती रहेगी! कुछ लोगों के सुख के लिए अधिकतर लोगों पर अत्याचार क्यों! शोषण क्यों! कल्याण के नाम पर केवल दया वह भी दिखावे की। यह सब कब तक चलेगा! ऐसी क्रूर व्यवस्था को तो एक न एक दिन जाना ही है। 
अमर जो वाक्य आंरभ करते समय बैठा था धीरे-धीरे उठा और कमरे में चहल कदमी करते हुए अपनी बात को खत्म किया। बात खत्म करने के बाद भी वह काफी उत्तेजित लग रहा था। 
- क्या बहस करने लगे यार तुम सब? यहां मेरी नौकरी जाने वाली है अैर तुम सब पूंजीवाद को रो रहे हो। बड़ी देर से चुप रहा सागर फट पड़ा।
- बच्चे यह तुम्हारी नौकरी से जुड़ा मामला है। आज तुम प्रभावित हो तो क्यों? इसका कारण तो जानना ही पड़ेगा ना। अमर ने कहा।
- कारण जानने से हमारी नौकरी बच जाएगी?
- बच भी सकती है और नहीं भी।
- यार मैं सड़क पर आ गया तो मेरे बच्चों का क्या होगा? उनकी पढ़ाई कैसे चलेगी? सागर बेचैन होकर कमरे में टहलने लगा। उसे दिन में ही तारे नजर आने लगे थे। 
- इतने सालों से कमा रहा है कुछ पैसा तो बचाया होगा? अनिल ने सवाल किया। 
- एक लाख रुपये किसी तरह जोड़े थे। शेयर मार्केट में लगा दिया। सागर ने कुछ ऐसे कहा जैसे उसकी कोई अनैतिक बात सार्वजनिक हो गई हो। 
- शेयर मार्केट में सब डूब गये? अमर ने सागर के वाक्य को पूरा किया।
- आज की तारीख में उन शेयरों को बेचूं तो मुश्किल से 40 हजार मिलेंगे। सागर ने उदास नजरों से अपनी व्यथा को वक्त किया। 
- यानी साठ हजार की चपत! अनिल ने चौंकते हुए कहा। 
- ये जुआ खेलने की सलाह किसने दे दी थी? अमर ने सवाल किया।
- बहुत से लोग निवेश कर रहे थे मैंने भी कर दिया। सागर ने कहा। उसकी आवाज से ऐसे लगा जैसे किसी कुएं में से बोल रहा हो। 
- सोचा होगा एक माह में दोगुना हो जाएगा। अमर ने कहा।
- बहुत सारे लोगों ने खूब पैसा कमाया। सागर ने अपने फैसले को सही ठहराने की गरज से कहा।  
- बहुत सारे नहीं, कुछ लोग। शेयर बाजार ऐसी ही ठगी करता है। कुछ कमाते हैं और बहुत सारे लोग गंवाते हैं। लोग भाग्य अजमाते हैं जबकि इसमें शातिर दिमाग काम कर रहे होते हैं। संयोग से यदि किसी को लाभ हो जाए तो उसे भाग्य का नाम देकर यह हर किसी को अपना भाग्य आजमाने के लिए उकसाता है। लोग झांसे में आते हैं और बहुत कुछ गंवाते हैं। जैसे ठगी वाले बाबा अपने चेलों के माधयम से पहले अपनी महिमा का प्रचार करते हैं फिर आम आदमी को ठगते हैं। वैसे ही यह शेयर बाजार है।
हमारा मध्यम वर्ग बड़ी कुत्ती चीज है। गरीब जब लॉटरी खेलते हैं तो यह वर्ग उन्हें ज्ञान देता है कि यह जुआ है। इससे आदमी बरबाद हो जाता है लेकिन खुद वही जुआ शेयर बाजार में जाकर खेलता है। यहां उसकी अक्ल घास चरने चली जाती है। 
- सही कह रहे हो। कुछ लोग मुनाफा कमाते हैं तो कइयों को इसमें झोंक देते हैं। मुनाफा कमाने वाले का तो कुछ नहीं बिगड़ता लेकिन नया-नया तैराक डूब जाता है। सागर ने कुछ इस अंदाज में कहा जैसे अमर की बात उसे समझ में आ गई हो। वैसे अमर ने जो बात उसे इस समय कही वही वह इससे पहले कहता तो उसकी प्रतिक्रिया तब कुछ और होती। वह अमर को बेवकूफ समझता लेकिन अभी उसे अमर की बातों में दम नजर आ रहा था। 
- जैसे अपने सागर भाई। अनिल ने कहा।
- आप लोगों को तो मजाक सूझ रहा है।
- मजाक नहीं सूझ रहा है। जो तलवार तुम्हारे ऊपर लटक रही है वही हमारे ऊपर भी। इस कथित आर्थिक मंदी में कोई भी प्राइवेट नौकरी करने वाला सुरक्षित नहीं है। लेकिन मातम मनाने का भी क्या फायदा? चलो भोजन करते हैं। आज सोेते हैं कल जो होगा देखा जाएगा। अनिल ने बात को खत्म करने की गरज से कहा। वह चाहता था कि सभी खाना खाकर सो जाएं ताकि उसे भी आराम मिले। दिन भर की भाग दौड़ के बाद अब वह आराम करना चाहता था। 
तीनों दोस्त खाना खा रहे होते हैं कि अमर का मोबाइल बज उठता है। अमर मोबाइल उठाता है तो सागर और अनिल उसे ही देखते हैं। अमर मोबाइल ऑन करके कान से लगाता है और खाना छोड़कर बॉलकनी मंे आ जाता है। उसके ऐसा करने पर अनिल मजाक करता है।
- किसी गर्लफ्रैंड का है क्या?
- इतनी रात को और किसका हो सकता है। सागर ने टिप्पणी की।
- साला तीन बच्चों का बाप है लेकिन इश्क लड़ाने से बाज नहीं आता। अनिल ने टिप्पणी की। 
- तुझे क्यों जलन हो रही है? तू भी तो लड़कियों पर डोरे डालता रहता है।
- कहां यार। इस मामले में अपनी जिंदगी रेगिस्तान है।
- तू जिन चिड़ियों को चारा डालता है वह अपना काम निकालने के बाद फुर्र हो जाती हैं।
- यार अपन तो समाजसेवी हैं। मदद करना अपना पफर्ज समझते हैं। अनिल ने शेखी मारी।
- हां, मन को तसल्ली देने के लिए यह फिलासफी अच्छी है। नहीं तो तू भी जानता है कि मदद क्यों करता है।
- तू कौन सा दूध का धुला है। अनिल ने सागर पर पलटवार किया।
- इसमें धुला होने की क्या बात है? कौन पुरुष ऐसा है जो महिलाओं को देखकर कुत्ते की तरह दुम नहीं हिलाने लगता? यह और बात है कि कोई तिरछी नजर से देखता है तो कोई सीधे। यही नहीं पुरुष जैसे-जैसे उम्रदराज होता जाता है उसका लड़कियों के प्रति आकर्षण बढ़ता जाता है।
अनिल को एक पुरानी घटना याद आयी। कॉलेज की आठ दस लड़कियां बस से सफर कर रही थीं। वह आपस में बातें करते हुए चिड़ियों की तरह चहक रही थीं। उनकी अधिकतर बातें अंग्रेजी में हो रही थी। लेकिन सभी अपने-अपने व्वायफ्रैंड को लेकर ही बातें कर रही थीं।
लड़कियों की आगे वाली सीट पर एक 65 साल के सज्जन बैठे थे। कायदे से उन्हंे आगे की तरफ देखना चाहिए था लेकिन जब लड़कियां बस में चढ़ीं  और उनके पीछे वाली सीटों पर बैठकर चहचहाने लगीं तो उनसे रहा नहीं गया। वह पलट कर पीछे की तरफ देखने लगे। कुछ देर तक तो लड़कियों ने उन पर गौर नहीं किया लेकिन आठ-दस मिनट बाद किसी लड़की की निगाह दादामुनि पर पड़ गई। फिर क्या था लड़कियां दादाजी से मजा लेने लगीं।
- कैसा फील कर रहें अंकल। एक ने चुहल की।
- फील गुड अंकल? दूसरी ने कहा।
- नो अंकल, ब्रदर बोलो फ्रेंड।
- नो-नो ब्रदर नहीं, फ्रेंड बोलो फ्रेंड।
- हमारे में से कौन अधिक सुंदर है फ्रेंड? एक ने दादामुनि से सवाल किया।
- तुम सभी सुंदर हो। कोई किसी से कम नहीं है। दादा ने कहा। 
- हाय! अंकल। नो नो फ्रेंड, आपको एक साथ सभी पसंद आ गईं। बड़े शरारती हैं आप?
- इसमंे शरारत की क्या बात है? तुम सब की उम्र है उड़ रही हो। मेरी उम्र हो गई है। मैं देख रहा हूं।
- अरे नहीं फ्रेंड उड़ तो आप भी सकते हैं।
- एक जमाना था कि हम भी उड़ा करते थे।
- हाय फ्रेंड क्या बात कही आपने। उड़कर कहां जाते थे?
- दूर गगन में।
- धरती पर जगह नहीं मिलती थी क्या?
- धरती वाले बर्दाश्त नहीं कर पाते थे।
- कितनी चिड़ियों के साथ आपने गगन विहार किया है?
- केवल एक के साथ।
- हाय ! यह क्या किया आपने फ्रेंड?
- जिसे चाहा उसके साथ पूरी जिंदगी निर्वाह किया।
- अब क्या कर रहे हैं?
- तुम्ही सब में उसकी तलाश कर रहा हूं?
- खंडहर देखकर ही इमारत का पता चल जाता है।
- किसी पार्क में चलें?
- पार्क में ही जा रहा हूं।
- अच्छा, तो आप पहले से ही तैयार हैं?
- तैयार क्या होना, रोज ही जाता हूं।
- अच्छा, क्या करते हैं वहां?
- बस तुम जैसी चिड़ियों को उड़ते देखता हूं।
- हाय, फ्रेंड आप तो बड़े ‘वो’ निकले।
- ‘वो’ क्या छुपेरुस्तम निकले।
- चार दिन की जिंदगी है। दुनिया से चले जाना है। तुम जैसी युवातियों को देखकर हम भी अपने बीते दिनों को याद कर लेते हैं। समय बीत जाता है। नहीं तो हमें कौन पूछने वाला है। घर के एक कोने में पड़े रहते हैं। जब तक ताकत थी। हम भी उड़े। अब लोगों को उड़ते देखना ही नियति बन गई है। दादाजी रो पड़े। यह देखकर लडकियां गंभीर हों गईं।
- अरे-अरे फ्रेंड, आप तो यूं ही सीरियस हो गए। आप तो बड़े अच्छे हैं। लाइफ को इंज्वाय करें।
- देखो आपसे बातें करते-करते रास्ता कट गया। हम लोग चलते हैं। अपना ख्याल रखना। कल फिर मिलेंगे। सभी लड़कियां बस से उतर गईं। दादा जी उन्हें जाते देखते रहे।
- कहां खो गया यार? सागर ने अनिल से पूछा
- कहीं नहीं यार।
- किसी की याद आ गई थी क्या?
- किसी की नहीं कई की। साले तुझे हमेशा एक ही बात क्यों सूझती है?
- किसी से मेरा मतलब भाभी जी से था।
- मेरी छोड़। अमर को देख कब से फोन पर लगा है। दोनों अमर की बातचीत सुनने लगते हैं। उधर अमर इससे अनजान बातें किये जा रहा था।
- मैंने आपको डिस्टर्ब तो नहीं किया। फोन उठाते ही अमर से अनु ने कहा।
- अरे नहीं। कैसी बात कर रही हैं आप। अमर ने मुस्कुराते हुए कहा। अनु की आवाज सुनते ही अमर के मन मंदिर में एक विशेष प्रकार के संगीत का संचार होने लगा था। उसे लग रहा था कि वह जमीन और आसमान के बीच में तैयार रहा है। गगन कुसुम को प्राप्त करने की लालसा से उसका मन अह्लादित था। वह उस मां की तरह खुश था जिसका बच्चा पहली बार उसे मां कहकर बुलाया हो। 
- क्या कर रहे थे?
- खाना खा रहा था।
- खा लिया?
- आधा।
- सॉरी? आप खाना खाओ। बाद में बातें करते हैं।
- कोई बात नहीं। बात करने के बाद खाना खा लंूगा।  आप बताइये कैसे याद किया? 
- आपसे बहुत सारी बातें करनी हैं। कल कहीं मिल सकते हैं?
- क्यों नहीं। बताइये कहां?
- जहां आप कहें।
- अरे भई आप जहां आदेश करें बंदा हाजिर हो जाएगा।
- मेरे घर आ जाइये।
- घर! अमर को अचानक करंट सा लगा। उसके दिमाग में यह सवाल उठा कि घर बुलाने का क्या मतलब हो सकता है?
- क्यों। कोई दिक्कत होगी? अमर के असमंजस को देखते हुए अनु ने सवाल किया। 
- नहीं। मुझे क्या दिक्कत होगी?
- तो ठीक है कल मिलते हैं।
- हां, ठीक है।
लेकिन दोनों में से किसी ने फोन डिस्कनेक्ट नहीं किया। दरअसल, दोनों ही चाह रहे थे कि उनके बीच बातें होती रहें। वार्तालाप लंबा चले। 
फोन पर बात करते जो आलम अमर का था वैसी ही अनुभूति से अनु भी गुजर रही थी। बल्कि वह तो गगन कुसुम को उड़कर तोड़ लेना चाहती थी। वह चाहती थी कि यह कुसुम जितनी जल्दी हो सके उसकी गोंद में हो। वह उसकी खुशबू से अपने आंचल को भर को लेना चाहती थी। 
- हां, मैं तो पूछना ही भूल गई। आप इतना लेट खाना क्यों खा रहे हैं? जब किसी ने फोन नहीं काटा तो संवाद को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी अनु ने निभाई। 
- शाम को घूमने निकल गया था। वहां से आया तो दोस्तों से गप करने लगा। समय का पता ही नहीं चला। 
- दोस्त क्या करते हैं?
- पत्रकार हैं।
- परिवार के साथ रहते हैं?
- नहीं। इस समय परिवार गांव गया हुआ है।
- दोस्तों के साथ बीते दिनों को याद कर रहे होंगे?
- जाहिर है कई वर्षों बाद मिले हैं तो कहने-सुनने के लिए तमाम तरह की बातें हैं। 
- अमर खाना ठंडा हो गया। अनिल ने आवाज लगाई। उसकी आवाज को अनु ने भी सुना लिया।
- ठीक है, आप खाना खा लें। कल मिलते हैं, बॉय। टेक केयर। इस बार भी बड़ी देर तक दोनों तरफ से फोन डिस्कनेक्ट नहीं हुआ। लेकिन इस बार किसी ने संवाद को आगे नहीं बढ़ाया। हालांकि अनु उम्मीद कर रही थी कि इस बार अमर पहल करे लेकिन अमर चाहते हुए भी अपने संकोच के दायरे से बाहर नहीं निकल पाया। लिहाजा सबसे पहले फोन अनु ने काटा। 
फोन कटने के बाद अमर थोड़ी देर तक मोबाइल स्क्रीन को देखता रहा। 
- क्या यार? ऐसी क्या बातें कर रहा था कि भोजन करना ही भूल गया।
- ऐसे ही।
- कौन थी?
- दोस्त थी। 
- हमसे कभी जिक्र नहीं किया?
- कल ही तो मुलाकात हुई है।
- एक दिन की मुलाकात में इतनी अच्छी दोस्ती? बात कुछ हजम नहीं हुई। अनिल ने शरारती अंदाज में कहा।  
- बइदबे मोहतरमा से मिले कहां? सागर ने पूछा।
- फिल्म प्रोडक्शन आफिस में काम करती है। 
- कमाल है, एक दिन की मुलाकात में ऐसी गहरी मित्रता हो गई कि जनाब बात करने के आगे भोजन करना ही भूल गए। इस बार सागर ने छेड़ा। 
- कोई-कोई चेहरा और कोई-कोई व्यक्तित्व ऐसा होता है कि हम उसे चाह कर भी इगनोर नहीं कर सकते। उसके आकर्षण की जादुई शक्ति सामने वाले के पूरे अस्तित्व को झंकृत कर देती है। ऐसा लगता है जैसे किसी ने शांत जलराशि में पत्थर फेंक दिया है। दिल-दिमाग कुछ इस तरह से तरंगित हो जाता है कि आदमी चाह कर भी शांत नहीं रह पाता। उसकी बेचैनी बढ़ती है और वह उसी तरफ खिंचा चला जाता है, जैसे जलरशि में बीच से उठी तरंगें किनारे जाकर ही शांत होती हैं। 
अमर ने यह बात जितनी अपने दोस्तों को समझाने के लिए कही उतनी ही खुद को भी समझाने के लिए कही। अनु के प्रति अपने आकर्षण को वह भी नहीं समझ पा रहा था। 
- यार यह तो फिलासफर हो गया। अनिल ने कहा। 
- ये तो गया। इसकी तो लग गई। सागर ने कहा। 
- लॉटरी?
- नहीं बाट। 
- ये समझा किसे रहा है?
- खुद को और किसे? बेचारा नहीं जानता कि इसके शब्दों से इसकी हालत ही बयां हो रही है। सागर ने कहा। 
अनु को पहली बार देखते ही अमर के दिल की धड़कनें बढ़ गईं थीं। न चाहते हुए भी वह अनु को देखता रह गया था। कुछ ऐसा ही हाल अनु का भी था। उसने भी अमर को देखा तो देखती ही रह गई। उसे लगा था कि अब तक वह जिसे खोज रही थी। सपनों में अक्सर जो तस्वीर उसके दिलो-दिमाग पर छा जाती है वह यही है। वह अमर को देखकर न केवल मुस्कुराई थी बल्कि उससे बात करने के बहाने भी खोजने लगी थी। 
उस दिन प्रोडक्शन कंपनी के आफिस में पहंुचने के बाद अमर कंपनी के सीईओ के केबिन के बारे में पूछने के लिए अनु के ही पास चला गया था। अनु उस समय कोई कहानी पढ़ रही थी। उसे सामने देखकर वह थोड़ा असहज हुई थी। आंखों से आंखें मिलीं तो दिल धक् करके तेजी से धड़कने लगा था। चेहरे पर न चाहते हुए मुस्कान खिल गई थी। फिर खुद को संभाला और अमर को सीईओ के केबिन के बारे में बताया। यह भी बताया था कि सीईओ अभी मीटिंग में हैं। उनसे मिलने के लिए उसे थोड़ा इंतजार करना पड़ेगा।
उसकी इस जानकारी से अमर परेशान होने के बजाए खुश हुआ था। सोचा था कि इंतजार के बहाने वह कुछ पल इन मोहतरमा के साथ बिता सकता है। इस तरह एक पंथ दो काज हो जाएगा। 
उसने जानबूझ कर इधर-उधर देखा। इस बीच वह अुन से संवाद करने के लिए बहाने खोजने लगा था। वैसे तो स्वागत कक्ष में बैठने की व्यवस्था थी लेकिन वह वहां जाना नहीं चाहता था। वह खड़ा ही रहा है तो अनु ने उससे यहां आने और सीईओ से मिलने का मकसद पूछा। अमर को मौका मिला तो अनु के सामने वाली कुर्सी पर बिना कहे ही बैठ गया। फिर बताया कि वह कहानी और संवाद लेखक के तौर पर इस कंपनी से जुड़ना चाहता है। इसी संदर्भ में सीईओ से आज फाइनल बात होनी है। इस पर अनु ने उसका नाम पूछा। अमर के बताने पर वह चौंक गई। अनु जो कहानी पढ़ रही थी वह अमर की ही थी। सीईओ ने इस कहानी पर उससे राय मांगी थी। वह इस कहानी को पहले भी पढ़ चुकी थी। अपनी राय से वह सीईओ को अवगत भी करा चुकी थी लेकिन कहानी ने उसे इतना प्रभावित किया था कि वह उसे दोबारा पढ़ रही थी। कहानी लेखक को अपने सामने पा कर उसकी खुशी का कोई पारावर न रहा। 
एक बार को तो उसकी इच्छा हुई कि वह कुर्सी से उठकर नाच उठे। लेकिन वह बैठी रही और अमर की कहानी की तारीफ की। उसने यह आशा भी जताई कि उसका चयन हो जाएगा। यह भी कहा कि यदि ऐसा होता है तो मुझे व्यक्तिगत तौर पर काफी खुशी होगी। इस तरह दोनों करीब एक घंटे तक बातें करते रहे। इस बीच वह इतने खुल गए कि लगा ही नहीं कि वह पहली बार मिले हैं। यह भी कि किसी आफिस में बैठे हैं। अनु भी अपना सारा काम भूल कर उससे बातें करती रही। 
अमर सीईओ से मिला और उसकी बात नहीं बनी। जब वह सीईओ के केबिन से निकला तो अनु अपनी सीट पर नहीं थी। अमर उसके केबिन के पास आकर थोड़ी देर रुका फिर निकलने लगा। तभी अनु आ गई। 
- क्या हुआ? उसने आते ही अमर से सवाल किया। 
- बात नहीं बनी। 
- क्यों?
- पता नहीं। 
- कुछ तो बताया होगा?
सीईओ ने जो कहा था अमर उसे अनु से बताना नहीं चाहता था इसलिए चुप रहा। 
- चलता हंू। आपसे मिलकर अच्छा लगा। अमर ने अनु से कहा और आफिस से बाहर निकलने लगा। 
- किधर जाएंगे? अनु से उससे पूछा। 
- यमुनापार। 
- मुझे भी उधर ही जाना है। यदि आप चाहें तो हम साथ चल सकते हैं। 
अनु के प्रस्ताव को अमर ने सहज ही स्वीकार कर लिया। उसे लगा कि उसकी मांगी मुराद पूरी हो गई। कभी-कभी इंसान जैसी घटनाएं चाहता है वह खुद-ब-खुद घट जाती हैं। 
आफिस से निकल कर दोनों सड़क पर आ गए। बात करते-करते दोनों अनु की कार के पास आ गए। कार देखकर अमर के होश उड़ गए। उसने मन ही मन कहा कि इतनी महंगी कार। लेकिन उसके मंुह से बोल नहीं फूटे। थोड़ी देर पहले तक अनु को लेकर अमर जितना सहज था अब उतना ही सावधान हो गया।   
अनु चालक की सीट बैठी और अमर उसकी बगल की सीट पर आगे बैठ गया। अनु ने सीट बेल्ट बांधा और अमर को भी बांधने के लिए कहा। अमर सीट बेल्ट लगाने लगा तो बांध नहीं पाया। वह कभी इतनी महंगी कार में बैठा नहीं था इसलिए घबरा गया था। जब वह सीट बेल्ट नहीं बांध पाया तो अनु ने उसकी मदद की। इसके बाद अमर को लगा कि उसने बेकार ही अनु के साथ आने के लिए हां कर दी। हां करते समय अमर ने सोचा था कि अनु बस या आटो से चलेगी। अनु की अपनी कार होगी वह भी इतनी महंगी इसकी तो उसने कल्पना ही नहीं की थी। 
कार यमुनापार के एक शानदार मॉल के सामने रुकी। दोनों एक विदेशी कंपनी के रेस्टोरेंट में चले गए। अमर के लिए यह भी नया अनुभव था। ऐसे रेस्टोरेंट में वह पहली बार आया था। इसलिए असहज था लेकिन उसकी असहजता अनु न जाए इसलिए खुद को संयमित किए हुए था। उसे लग रहा था कि उसने बेवजह का पंगा ले लिया है। लेकिन जब दोनों दो घंटे तक बैठकर बातें किए तो अमर की सारी ग्लानि दूर हो गई। उसे लगा कि आज यदि वह यहां नहीं आता तो एक रोमांचक अनुभव से वंचित रह जाता। दो घंटे में दोनों ने एक दूसरे के विषय से लेकर देश-दुनिया तक के मुद्दों पर खूब बातें की। इस बीच बातों ही बातों में अनु ने कई बार अमर के हाथों को अपने हाथों में ले लिया। अनु ने जब-जब ऐसा किया अमर का पूरा शरीर झन्ना गया। 
- कहां खो गए श्रीमान? अमर को खोया देख अनिल ने टोका। 
- कहीं नहीं। 
- कहीं तो चले गए थे जनाब। लक्षण ठीक नहीं दिख रहे हैं। पहली ही मुलाकात में यह हाल है तो आगे क्या होगा मेरे भाई? सागर ने चुटकी ली। 
- मिलने के लिए बुलाया होगा?
- हां। 
- कंुआरी है कि शादीशुदा?
- पता नहीं।
- संभल कर जाना मेरे यार।
- कैसी बातें कर रहे हो यार तुम सब। बकवास बंद करके चलो चुपचाप सो जाओ। अमर ने कहा। 
- हां भाई, इसे सुबह जल्दी उठना होगा। आखिर जाना जो है। ‘उनसे’ मिलने के लिए। अनिल ने तंज किया। 
एक-एक करके अनिल और सागर सो गए लेकिन अमर को नींद नहीं आ रही थी। वह सोच रहा था कि आखिर क्या बात करना चाहती है अनु? घर क्यों बुलाया है? उसका इरादा क्या है? कहीं उसे मुझसे प्यार तो नहीं हो गया? घर बुलाकर कहीं मुझे फंसाना तो नहीं चाहती? पहली मुलाकात के बाद ही घर बुलाने का क्या मतलब हो सकता है? 
अमर इसी द्वंद्व में उलझा ही था कि उसके मोबाइल पर एक एसएमएस अया। उसने उसे देखा तो लिखा था।
- आई मिस यू। एसएमएस पढ़ने के बाद अमर ने सोचा कि किसका मैसेज हो सकता है? नेहा ने कभी ऐसा मैसेज भेजा नहीं है। वह तो पढ़ी भी नहीं है। फिर कौन हो सकता है? कहीं अनु तो नहीं दूसरे फोन से मैसेज भेज रही है? जिस नंबर से मैसेज आया था अमर ने उसे डायल किया। एक रिंग गई और फोन काट दिया गया। कौन हो सकता है? कोई भी हो यदि वह हमें मिस कर रहा है तो हम भी भेज देते हैं। 
- रात, तन्हाई और जुदाई, न करो ऐसी बेवफाई....। गुडनाइट।
- ओमप्रकाश तिवारी 

उपन्यास : अंधेरे कोने

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