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कुछ कविताएं और रचनाएं

[05/07, 10:23 pm] Usha Tiwari: बेचैनियों के अंधड़ से
बचने के लिए
रात भर ताक पर
बैठी रही नींद
इंतजार करती रही
आंखों के समुन्दर में
उठती लहरों के बीच
कई बार पलकों पर बैठी
कानों के पास आकर बोली
समा जाने दो मुझे
अपनी तप्त आंखों में
शांत कर ले
दिमाग में उठे तूफान को
सुबह होगी
सूर्योदय भी होगा
क्यों परेशान है
एक सूर्यास्त से।
@ओमप्रकाश तिवारी
[07/07, 1:18 pm] Usha Tiwari: नापसंद करने वालों की सूची बनाई
तो दोस्तों की तादाद ही कम हो गई
नफरत करने वालों की सूची बनाई
तो तार तार हो गए गहरे रिश्ते कई
इसे जिन्दादिली कहो या समझदारी
समझौता परस्ती कहो या दुनियादारी
फिर भी मिटती नहीं है हस्ती हमारी
@ ओमप्रकाश तिवारी
[08/07, 3:30 am] Usha Tiwari: मुसाफिर के जाने के बाद
कई लोग सामने आएंगे
अफसाना सुनाने
यकीन मानिए
कलम तोड़ देंगे
उसकी वाहवाही में
खूबियों पर तो
पूरी किताब लिख देंगे
वश यही नहीं बताएंगे
कि गुनहगार वे भी हैं
उसके पैरों में पड़े
छालों के लिए
पथ पर उसके कांटे
उन्होंने भी रखे थे
कहीं पत्थर रखे तो
कहीं गड्ढे खोदे थे
मुस्कुराये थे उसके
हर एक जख्म पर
अब आंसू बहाकर
अपने गुनाह धो रहे
कितने मतलबी हैं
फरेब से ज्यादा फरेबी
जो आज सीधे बन रहे
टेढ़े इतने जैसे जलेबी
@ ओमप्रकाश तिवारी
[22/07, 3:31 am] Usha Tiwari: जब चंद खिड़की पर आया...
............
बालकनी पर आया तो
आसमां में चांद
मुस्कुरा रहा था
चांदनी की आगोश में
शहर कसमसा रहा था
सावन माह में चंद्रमा
अकसर बादलों से
लुकाछिपी खेलते हैं
शुक्लपक्ष की द्वितीया को
चांद का इस तरह
बालकनी पर आना
मनोहर दृश्य लगा
याद आ गए गांव के दिन
गर्मियों की रातों में
चारपाई डालकर दुआरे सोना
घंटों चांद तारों से बातें करना
फिल्म की तरह घूम गया
नयनों के सामने
अजब संयोग है
तब भी  बिजली ना होने के कारण
सोते थे दुआरे
इस समय भी गुल हो गई थी  बिजली
हवा खाने आए थे बालकनी पर
मुस्कुराते हुए हो गई
बचपन के चांदमामा से मुलाकात
शुक्रिया बिजली
बचपन की याद दिलाने के लिए
शहर की व्यस्तता में गुम हो गए
दोस्त से मिलाने के लिए।
@ ओमप्रकाश तिवारी
[26/07, 2:27 am] Usha Tiwari: भूख से तुम नहीं मरे हो बच्चों
मरी हैं हमारी संवेदनाएं
जो भोथरी हो गईं हैं
जो कुंद हो गईं हैं
जिन्होंने धड़कना ही
बंद कर दिया है
मरी है म्हारी सोच
जो गटर जैसी गन्दी हो गयी है
गंगा- यमुना जैसी मैली हो गयी है
मरी है हमारी व्यवस्था
जो कंकाल में बदल गयी है
मरा है हमारा नजरिया
जो सावन के अंधे की तरह हो गया है
जो संकीर्णता से भी परे हो गया है
मरा है हमारा समाज
जो दिग्भर्मित हो गया है
जो मंटो की कहानी खोल दो का
पीड़ित पात्र हो गया है
खिड़की खोलने को कहो तो
नाडा खोल दे रहा है....
@ देश की राजधानी में तीन बच्चों की मौत के बाद मेरा प्रयाश्चित।
@ ओमप्रकाश तिवारी
[26/07, 3:11 am] Usha Tiwari: कल रेलवे स्टेशन
भुट्टा खाने जाऊंगा
तब रेल की पटरियों
को गौर से निहारूँगा
कान करीब ले जाकर
फुसफुसा कर पूछूंगा
जो ट्रेन तुम्हारे ऊपर से
कई कई बार गुजरती है
कितना दर्द दे जाती है
किसी ट्रेन के छूट जाने का
क्या तुम्हें होता है मलाल
किसी दिन जब नहीं आती है
कोई ट्रेन अपने समय से
तुम्हें रहता है उसका इंतजार
कभी उस यात्री से गफ़्तगु की है
जिसकी ट्रेन छूट गयी हो
[26/07, 3:56 am] Usha Tiwari: मां
.....
मां ने आज फोन किया
हेलो बोलीं और रोने लगीं
कुछ देर तक रोती रहीं
मां कभी फोन नहीं करती
मां को फोन मिलना नहीं आता
मां पढ़ी लिखी नहीं हैं
मां को हमी फो करते हैं
अपनी सुविधानुसार
आज माँ ने फोन मिलवाया
मां को पता चला था
मेरी तबियत खराब है
@ ओमप्रकाश तिवारी
[31/07, 4:56 am] Usha Tiwari: सेंसेक्स की चमक में दम तोड़ती जिंदगियां
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यह न्यू इंडिया है। यहां भारत गायब है। यहां सेंसेक्स का उछलना या गिरना बड़ी बात है। भूख, बेरोजगारी या आर्थिक तंगी से मरना कोई बात नहीं है। चौकीदार को भागीदारी पर शर्म की जगह गर्व है। उजली कमीज पर दाग अच्छे लगने लगे हैं। ऐसे चमकीले समय में कुछ गंदिली जिंदगियां दम तोड़ती हैं तो क्या आश्चर्य? इंडिया विश्व की छठी अर्थव्यवस्था है। वह विश्व गुरु बनने वाला है। ऐसे में भारत को कौन पूछे? विकास तो इंडिया में कुलाचे भर रहा है, वह भारत क्यों जाय?
कुछ दिन पहले देश की राजधानी दिल्ली में तीन बच्चों की मौत भूख से हो गयी। इस सच को नकार कर गंगाजल की तरह पी लिया गया। अब प्रतिदिन उछलते सेंसेक्स और तेज आर्थिक विकास के दावों के बीच झारखंड की राजधानी रांची में आर्थिक तंगी की वजह से एक ही परिवार के सात लोगों की आत्महत्या की खबर सामने आई है। डीआईजी एवी होमकर का कहना है कि ऐसा लग रहा है कि पैसों की तंगी के कारण दो भाइयों ने पहले पूरे परिवार को मार डाला और फिर खुद को फांसी लगा ली। मौके से दो सुसाइड नोट मिले हैं, जिनमें से एक पंद्रह पन्ने का और दूसरा दो पन्ने का है। होमकर ने बताया कि सच्चिानंद झा का बड़ा बेटा दीपक झा एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था और परिवार के साथ किराए के घर में रहता था। यह परिवार पिछले कुछ दिनों से आर्थिक तंगी से जूझ रहा था।
सवाल उठता है कि क्या आर्थिक तंगी जानलेवा होनी चाहिए? ऐसे हालात क्यों बनने चाहिए कि किसी परिवार को दादा-दादी-बेटा-बहू-पोता-पोती सहित जान देनी पड़ जाए? ऐसा तभी होता है जब दाग अच्छे लगने लगे। जब देश की अर्थव्यवस्था का लाभ 1 फीसदी लोगों के पास सिमटने लगे और वह न्यू इंडिया बनाने लग जाएं और 99 फीसदी वाले भारत को भूल जाएं।
निजी संपत्तियां जब वटवृक्ष बन जातीं हैं तो उनके नीचे किसी और पौधे का विकास अवरुद्ध हो ही जाता है। जब सत्ता कल्याणकारी योजनाओं को भ्रष्ट बताकर जरूरतमंदों को उसके लाभ से वंचित करने लगे तो देश की अधिकतर जनता का भूख, प्यास, बीमारी, बेरोजगारी और बदहाली से मरना तय हो जाता है।
यकीन मानिए आपकी नीयत चाहे जितनी नेक, अच्छी, सुंदर और सही हो लेकिन जब आप निजी संपत्तियों वाले वटवृक्ष को खाद- पानी देंगे तो सवाल उठेंगे ही। क्योंकि इससे अनगिनत पौधे मुरझाते हैं। बौने हो जाते हैं। क्योंकि उनके हिस्से की धूप को, पानी को, हवा को वटवृक्ष हड़प कर हजम कर जाता है।
@ ओमप्रकाश तिवारी
[03/08, 12:58 am] Usha Tiwari: बेहतर हो बागों में बहार ही कहिये
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इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद
देशसेवा के लिए पत्रकारिता में
राष्ट्रवाद पर शोध ग्रंथ लिखकर
प्रोफेसर बने महोदय ने अपनी
कक्षा में विद्यार्थियों से कहा कि
सरकारी मंशा पर सवाल उठाना
पत्रकार का काम ही नहीं है
यह काम विपक्षी दल करता है
विपक्षी दल की खबर लिखना
पत्रकार का काम ही नहीं है
सेना-जवान का गुणगान करिये
बहुसंख्यक धर्म का बखान करिये
धर्मगुरुओं का यशोगान करिये
तंत्र पर कब्जाधारी कुछ भी करें
तुम तो हमेशा वाह-वाह करिये
किसी की संपत्ति कैसे भी बढ़ी
तुम उत्थान का बखान करिये
मौत का क्या है आ ही जाती है
जज की मौत पर न सवाल करिये
बेसिन से यदि गैस चुरा ले कोई
ऐसी चोरियों पर ध्यान न दीजिए
कमाया है धन देशहित में उसने
उसकी देशभक्ति का मान रखिये
जानवरों में गाय को माता मानिए
इन्हें छू दे कोई तो हाहाकार करिये
इनकी रक्षा में मरने वाले शहीद हैं
इन्हें मारने वाले को शैतान कहिये
गिर जाय गर बनता हुआ पुल कोई
इसे विपक्षी दल की चाल कहिये
बढ़ जाये गर ई-रिक्शे की बिक्री
इसे देश में बढ़ता रोजगार कहिये
पकौड़े तलना भी है कारोबार ही
ऐसो को उद्यमियों में शुमार करिये
बेरोजगारी पर कोई सवाल उठाए
उसको देश का बड़ा गद्दार कहिये
फ़ोटोशाप से कमाल ऐसा करिये
पूर्व पीएम को बड़ा अय्यास कहिये
देश की सभी विसंगतियों के लिए
एक परिवार को जिम्मेदार कहिये
होता है कुछ भी अच्छा देश में यदि
सत्तर सालों में पहली बार कहिये
खराब जो कुछ भी है इस देश में
कुछ नहीं हुआ 70 साल में कहिये
साहब गले पड़ें तो संस्कार कहिये
कोई और करे तो कुसंस्कार कहिये
मुक्त करना उनकी मानसिकता है
इसे कतई भी तानाशाही न कहिये
वैदिक हिंसा हिंसा न भवति कहिये
वाह क्या संस्कृति है ख्याल रखिये
पढ़कर नौकरी ही करनी है तुमको
तो मेरी बातों को गांठ बांध लीजिये
साधन साध्य से बड़ा नहीं होता है
ये ज्ञान की बात भी जान लीजिए
सूखे बाग को सूखा नहीं ही कहिये
बेहतर हो बागों में बहार ही कहिये
@ ओमप्रकाश तिवारी
[07/08, 5:41 am] Usha Tiwari: बरसो मेघ खूब बरसो
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हे मेघ
बरसो खूब बरसो
इतना कि दरिया उफ़न जाय
ताकि साफ हो जाय
उसके तन-मन की गंदगी
तालाबों में भर जाय पानी
ताकि भूमिगत जल का बढ़ जाये स्तर
पक्षियों को मिले पानी
भटकना न पड़े जानवरों को
पानी की तलाश में
किसान की फसलें भी लहलहा उठें
उपवन भी हो जाय हराभरा
मगर यह भी ध्यान रखना
गिर न जाय किसी गरीब का घर
बह न जाय किसी की झोपड़ी
एक गुजारिश यह भी है मेघ
उस जगह थोड़ा ज्यादा बरसना
जहाँ से निकल रही हो गंदगी
झूठ-फरेब-नफरत की सरिता
इनके उद्गम पर ही खूब बरसना
ताकि इन्हें मिले महासागर में जलसमाधि
उस अंहकारी ज्वालामुखी पर
झमाझम बरसना बादल
ताकि वह तर हो जाय
और फिजा में बहें
सीली-सीली हवाएं
उस कारखाने पर भी बरसना
जहाँ बन रहा है तानाशाही बम
उसे तुम ही नष्ट कर सकते हो
एक बार फिर बन जाओ सुनामी
बचा लो धरती को बंजर होने से
हिरोशिमा-नागासाकी होने से
उस गैस भंडार को बहा ले जाओ
जिससे घटित होता है भोपाल कांड
कुदरत को नहीं चाहिये
परमाणु ऊर्जा वाला विकास
कुदरत को चाहिए बादल
जो उसे बना दे मेघालय
उसकी गोद को कर दे हराभरा
नदियों-झरनों से भर दे आँचल
@ ओमप्रकाश तिवारी
[09/08, 12:15 pm] Usha Tiwari: रोहतक में मैं दिल्ली रोड हूं। शहर के बीच से निकली हूं। हर रोज अनगिनत लोगों को उनके गंतव्य तक पहुंचाती हूं। मेरे ऊपर से हजारों वाहन हर रोज गुजर जाते हैं।
[09/08, 5:01 pm] Usha Tiwari: मैं दिल्ली रोड हूं... आज मैं उदास हूं...
..............
रोहतक में मैं दिल्ली रोड हूं। शहर के बीचों बीच से निकली हूं। हर रोज अनगिनत लोगों को उनके गंतव्य तक पहुंचाती हूं। मेरे ऊपर से हजारों वाहन हर रोज गुजर जाते हैं। लेकिन मैं उफ़ तक नहीं करती। मुझे भी कष्ट होता है। दर्द होता है जब मेरे शरीर पर गड्डों रूपी घाव होते हैं। लेकिन मैं सहती हूं। किसी राहगीर को गिराती नहीं। उसकी जान नहीं लेती। जो अपनी जिंदगी खोते हैं अक्सर उनकी या सामने वाले की ही गलती होती है। कभी ट्रैफिक नियमोँ का न मानना तो कभी तेज रफ्तार। मैं हर मौत पर रोती हूं। अफसोस जताती हूं। अगले ही पल लोगों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने में जुट जाती हूं।
आज मैं बहुत उदास हूं। रात भर रोई हूं। मेरे जेहन में कई सवाल हैं जिनका कोई उत्तर नहीं दे रहा है। मैं जानना चाहती हूं कल दोपर मेरे सीने पर चढ़कर जिस लड़की को गोली मार कर हत्या कर दी गयी उसकी गलती क्या थी? यही की उसने किसी से प्यार किया था? एक ऐसे युवक से जो उसकी जाति का नहीं था? जिससे वह प्यार करती थी वह ऐसी जाति से था जिसे यह सभ्य समाज सम्मान नहीं देता? क्यों कोई जाति से छोटा बड़ा  हो जाता है? क्यों रिश्तों से बड़ी जाति हो जाती है? कई बार धर्म भी हो जाता है? क्यों अपने ही बच्चों के दुश्मन हो जाते हैं माता पिता? वे माता पिता जो जन्म देते हैं, पालते हैं पोषते हैं, लिखाते पढ़ाते और बड़ा करते हैं, क्यों किसी से प्यार करने पर उन बच्चों की जान ले लेते हैं? लोग क्यों नहीं मेरी तरह प्यार करते हर किसी से बिना उसका धर्म पूछे? बिना उसकी जाति पूछे? क्यों नहीं उसे पहुंचने देते उसके गंतव्य तक? इंसान जो खुद को विचारवान, तर्कशील और सभ्य कहता है कहां से लाता है इतनी नफरत? इतनी हिंसा?
जहां उस लड़की को गोली मारी गयी वह शहर का दिल है। हमेशा व्यस्त रहता है। वहीं पर लघु सचिवालय है, जिसमे पुलिस के कप्तान का दफ्तर है। जिले के डीसी का ऑफिस है। कोर्ट है। कचहरी है। दो पुलिस थाने हैं। यह सब ऐसे है जिसे इंसानों ने अपनी व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए बनाया है, ताकि वह शांति से रह सके। लेकिन यह सब अक्सर विफल हो जाते हैं। यह सब क्यों अपनी जिम्मेदारी निभाने में फेल हो जाते हैं? लड़की की सुरक्षा में तैनात किया गया सिपाही भी मारा गया। वह न अपनी रक्षा कर पाया न ही लड़की की। यह कैसी बेबसी है? इससे तो यही लगता है कि इंसानों की बनाई व्यवस्था फेल है उसकी हिंसा और नफरत के आगे? मुझे तो लगता है इंसानों को प्यार से, शांति से रहना ही नहीं आता। वह हर पल या तो ढोंग करता है या अभिनय। उसे जिंदगी जीना नहीं आता। उसे अभी सभ्य होना बाकी है। सदी दर सदी हुआ उसका विकास झूठा है। अधूरा है। उसे अभी  संवेदनशील होना है।
इंसानों को मुझसे सीखना चाहिए। हालांकि इंसानों ने ही मुझे बनाया है। लेकिन किसी की मदद करना, प्यार करना, रिश्ते निभाना, संवेदनशील होना उसे मुझसे सीखना चाहिए.... मैं सड़क हूं..मैं दिल्ली रोड हूं। केवल रोहतक ही नहीं हर शहर में हूं... राहगीरों को उनके लक्ष्य तक, गन्तव्य तक पहुंचाती हूं... बिना रुके, बिना थके, बिना उफ़ किये, हर पल,  24 घंटे, सेवा में तत्पर... मैं सड़क हूं लेकिन हर इंसान से प्यार करती हूं... क्या तुम भी ऐसा कर सकते हो? तुम्हीं से पूछ रही हूं लड़की पर गोली चला कर मारने वाले, सिपाही को मारने वाले, बेटी से नफरत करने वाले, बहन की जान लेने वाले, हर किसी से नफरत करने वाले, हर पल हिंसा पर उतारू रहने वाले, जाति और धर्म में बांट कर लोगों की शांति छीनने वाले...क्या तुम्हारे पास मेरे सवालों का जवाब है...? तुम जवाब दे भी नहीं सकते। तुम तो जीवन छीनते हो। कभी किसी को जीवन देकर देखो, जीना आ जाएगा। तुम्हें भी प्यार हो जाएगा। लेकिन तुम यह कर नहीं सकते, क्योंकि तुम कायर हो और डरपोक भी। मेरी एक बात याद रखो, नफरत और हिंसा की जिंदगी लंबी नहीं होती। खुशहाल तो बिल्कुल भी नहीं....।
@ ओमप्रकाश तिवारी
[17/08, 4:06 pm] Usha Tiwari: शह-मात का उत्तसव
------------(कविता)-------

आभासी
उत्सवी माहौल
से निपट कर
मीडिया मेड
धीरोदात्त नायक
पांवों के छाले
सहलाते हुए
खेलेंगे शतरंज
किसी एक के
हाथी, वजीर, घोड़े
पिट जाएंगे
रानी लुट जाएगी
पर मात
नहीं होगी
खेल भी तो
आभासी है
यहां केवल
शह का
अभ्यास है
मात का
उतसव है
शारीरिक
थकान का
वोटों से
गुणा भाग है
बूटों तले
कुचली गईं
गुलाब की
पंखुड़ियों की
कराह से
अनुमान
लगाया जाएगा
गरीब की
आह का
फिर रथ पर
सवार होकर
निकलेगा
जन मसीहा
कुबेरपतियों के
खजाने से जोड़
बैंक खाता
बारिश करेगा
सिक्कों की
जो यकीनन
नीचे नहीं गिरेंगे
लोक लिए जाएंगे
आभासी संसार में
सपने चुराए जाएंगे
पूरा करने की
कहकर
कृतिम बादल
बरसेंगे तो सही
लेकिन उनके यहां
जहां से नायक के
खाते में आ रहा धन
इस तरह फिर
प्रस्तुत किया जाएगा
एक जननायक
@ ओमप्रकाश तिवारी
[21/08, 4:44 pm] Usha Tiwari: विकसित भारत...मजबूत भारत...आत्मनिर्भर भारत...शांत भारत...खुशहाल भारत का निर्माण तभी हो सकता है जब कि समाज में असमानता न हो... गरीबी न हो...बेरोजगारी न हो... यह सब तभी हो सकता है जबकि हमारी सत्ता संवेदनशील हो...सिस्टम को इस तरह से बनाये और उसकी निगरानी करे कि उसका लाभ समाज के अंतिम आदमी तक पहुंचे...विकास यह नहीं कि देश में गिनती के लोग अरबपति हो गए हैं...बैंक से लोन लेकर कुछ लोगों ने आलीशान घर बना लिया है...किश्तों पर महंगी करें खरीद ली हैं...बैंक की किश्तें भर भर कर घर में जरूरी गैर जरूरी वस्तुएं एकत्रित कर ली हैं...इनके बीच देखिये हर शहर के चौक चौराहों पर श्रम बेचने के लिए खड़े हजारों लोगों की भीड़... इनमें से अधिकतर को हर रोज काम नहीं मिलता...शहरों में फैलती मलिन बस्तियां... बिजली और पेयजल के लिए तरसते और प्रदर्शन करते लोग...रेलवे के एक पद के लिए भागते हजारों युवा...सेना में भर्ती होने के लिए अधिकारी का पैर पकड़ कर रोते हजारों युवा...मामूली दिहाड़ी पर पसीना बहाते लाखों लोग...कम वेतन पर 10-12 घंटे काम करते करोड़ों लोग...बिना पेंशन के जीते करोड़ों वरिष्ठ नागरिक... स्कूल न जाकर काम पर जाते करोड़ों मासूम बच्चे...नौकरी जाने के भय में जीते करोड़ों लोग...बिना इलाज हर रोज मरते लाखों लोग...इलाज के लिए सुविधाहीन सरकारी अस्पतालों में हर रोज भटकते करोड़ों लोग...बिना शिक्षक के स्कूल...बिना भवन के स्कूल...बिना डॉक्टर के अस्पताल...बिना दवा के अस्पताल...
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) का कहना है कि 1993 के बाद से भारत की सालाना ग्रोथ 7% रही फिर भी कम वेतन और असमानता की स्थिति बनी हुई है। असमानता स्त्री-पुरुष, नियमित-अनियमित और शहरी-ग्रामीण सभी मामलों में है। 1993-94 में स्त्री-पुरुष के वेतन का अंतर 48% था। यह 2011-12 में घटने के बावजूद 34% था। असंगठित क्षेत्र में औसत दैनिक वेतन संगठित क्षेत्र का 32% है। देश मे न्यूनतम वेतन के 1709 रेट, फिर भी इसका लाभ सिर्फ 66% को मिल रहा है। 2009-10 में 15% नियमित और 41% अनियमित कर्मचारी राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन से कम पैसे पाते थे। अब भी 6.22 करोड़ श्रमिकों को राष्ट्रीय स्तर से कम वेतन मिलता है। 62% वेतनभोगी अनियमित हैं। सिर्फ 18.5% श्रमिक नियमित। 45% श्रमिक कृषि क्षेत्र में है। संगठित क्षेत्र में औसत दैनिक वेतन 513 रुपये है। जोकि असंगठित क्षेत्र में महज 166 रुपये है।
देश मे इतनी बड़ी असमानता और विसंगति लेकिन इस पर कोई बहस नहीं करता। इस मसले को कोई चुनाव में भी नहीं उठता...
@ओमप्रकाश तिवारी
[23/08, 5:05 am] Usha Tiwari: कहानी
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जंगली सूअर और बच्चे
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मई माह में चाची जी के देहांत के बाद गांव गया था। एक दिन सुबह कोई 8 बजे खेतों की ओर से मारो-पकड़ों की चीखती चिल्लाती आवाजें आईं। जिज्ञासा वश में भी आवाजों का अनुमान लगाता खेतों की ओर चला गया। देखा कोई 8-10 लड़के जिनकी उम्र 8-18 साल के बीच है हाथों में लाठी-डंडे लिए दौड़े जा रहे हैं। मैंने जोर की आवाज लगाकर पूछा।
- क्या मामला है? तुम सब किसके पीछे पड़े हो?
- जंगली सूअर है। उसी को खेद रहे हैं। उनमें से एक ने बताया। मैं चुप हो गया। खेत में पिता जी थे उनसे बातें करने लगा। मैंने पिता जी से पूछा।
- आसपास जंगल तो है नहीं, यह जंगली सूअर यहां कहाँ से आ गया?
पिता जी भी हैरान हुए। बोले कि पता नहीं कहां से आ जाते हैं। आलू और गंजी (शकरकंदी) को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं।
- क्या आपने जंगली सुअर देखा है? मैंने पिता जी से जोर देकर पूछा। इस पर वह बोले कि देखा तो नहीं, लेकिन कई लोगों की फसल उजाड़ जाते हैं।
- क्या अपनी आलू को कभी नुकसान पहुंचाया है? मैंने फिर सवाल किया तो उन्होंने कहा कि नहीं। जबकि मेरे खेतों के पास एक छोटा जंगल है। पास से बरसाती नहर निकली है। कुछ दशक पहले तक इस इलाके में जंगली सूअर पाए जाते थे। लेकिन आबादी बढ़ने और ऊसर जमीन के खेतों में बदल जाने के बाद जंगल खत्म और खत्म हो गए जंगली जानवर। हालांकि इधर बरसाती नहर और दो-चार छोटे-छोटे जंगलों की वजह से सियार, भेड़िया और नील गाय हो गए हैं। इनमें अब जंगली सूअर भी जोड़ लिया गया है।
इसी बीच जांगली सूअर का पीछा करने वाले सभी बच्चे वापस आ गए। मैंने उनसे फिर सवाल किया। - मिल गया जंगली सूअर?
- मिल जाता तो मार डालता? उनमें से लगभग सभी ने एक साथ कहा। - लेकिन क्यों मार डालते? मैंने उनसे पूछा।
- हम उसे नहीं मार डालेंगे तो वह हमें मार डालेगा। फिर सभी बच्चों ने एक साथ कहा।
- किसने कहा कि वह तुम्हें मार डालेगा? मैंने फिर सवाल किया।
- सभी कहते हैं? फिर सभी बच्चों ने सामूहिक रूप से कहा।
- सभी मतलब कौन? मैंने फिर सवाल किया।
- सभी। इस बार दो ने ही जवाब दिया...
- क्या तुम लोगों ने जंगली सूअर देखा है? मैंने सवाल किया।
- नहीं। सामूहिक उत्तर मिला। 
- क्या आज देखा?
- नहीं। फिर सामूहिक उत्तर मिला।
- आखिर फिर खेद किसे रहे थे? मैंने सवाल किया तो दो बच्चे बोले।
- सूअर।
- नहीं खरगोश था। मैंने कहा तो उनमें से कई बोले।
-  हो सकता है। 
- इस तरह बिना जाने, बिना देखे किसी को मारने के लिए दौड़ना या मारने की सोचना क्या सही है? मैंने सवाल किया तो तकरीबन सभी ने कहा - नहीं...।
- हां, यही सही है। जब तक किसी चीज को देखो न, जनों न,  समझो न। किसी के कहने या सुनी-सुनाई बातों को न तो मान लेना चाहिये न ही उस पर अमल ही करना चाहिए। समझे।
- हां। दो-चार ने कहा।
- वन्य जीवों को मारना अपराध है। जेल भी जा सकते हो। सजा भी हो सकती। मेरे यह कहने पर सभी बच्चे चौंक गए और एक स्वर में बोले - अच्छा!!!!!
@ ओमप्रकाश तिवारी
[23/08, 9:24 pm] Usha Tiwari: जो हो रहा है
जानबूझ कर
किया जा रहा है
लाभ की इच्छा से
किया जा रहा है निवेश
जहरीले पानी से
सींची जा रही है
वोट की फसल
इस अनाज को खाकर
बढ़ेंगी बीमारियां
फिर इलाज के लिए
नहीं मिलेंगे अस्पताल
मेडिकल बीमा करके
लाभ कमाएंगी निजी कंपनियां
निजी पूंजी को बढ़ाने का
उपक्रम करने वाले
कहलायेंगे जननायक
जिन्होंने जन के लिए
कभी कुछ नहीं किया
फिर भी मनाया जाएगा
उनकी मौत का उत्तसव
@ ओमप्रकाश तिवारी
[26/08, 3:58 am] Usha Tiwari: कविता
.........
भावना
-------
एक नजर देखा
और मुस्करा कर
पलकें झुक लीं
धुंधली न हो जाये
कहीं यह तस्वीर
हर रोज देखता हूं
कई बार आईना
तेरी आँखों में न सही
अपनी आंखों में ही
काजल लगा लेता हूं।
[26/08, 4:07 am] Usha Tiwari: कविता
..........
एहसास
-----------
आंधी रात को
चांद
खिला-खिला सा लगा
एक हूंक सी उठी
और
किसी का
चेहरा
याद आ गया...
[26/08, 4:23 am] Usha Tiwari: कविता
.......
संवेदना
-------
देखो
घिर आईं हैं
काली घटाएं
मनोहारी भी
लग रही हैं
जमकर
बरसेंगी तो
तृप्त हो जाएगी
वसुंधरा
फिर भी
इनमें नहीं है
तुम्हारे जैसा
दमकता चेहरा
जो लबरेज है
तमाम तरह की
भावनाओं से
जिससे
सहा नहीं जाता
किसी तरह का
अन्याय
किसी भी
अतिरेक पर
भर आते हैं
दोनों नैन
तुम्हारी
काली
केश राशि का
क्या मुकाबला करेंगी
ये काली घटाएं।
[27/08, 4:35 am] Usha Tiwari: सब्जी वाले
............
तड़के चार बजे
जब अधिकतर लोग
गहरी नींद में होते हैं
उसी समय सब्जी लेने
मंडी निकल जाते हैं
सब्जी बेचने वाले
उनके ऑटो की आवाज से
मोहल्ले के कुछ लोगों की
नींद भी खराब हो जाती है
जिसकी वे परवाह नहीं करते
करें भी क्यों ?
जब उनकी परवाह
कोई नहीं करता
एक ऑटो में बैठकर
आठ दस लोग
पहुंच जाते हैं
दस किलोमीटर दूर मंडी
घंटों तलाशते हैं
अपने मतलब की सब्जियां
जो शाम तक खराब भी न हो
और आसानी से बिक भी जाए
थोड़ा मुनाफा भी हो जाय
ताकि दाल में लग सके तड़का
सुबह आठ बजे तक
सब्जी लेकर पहुंचते हैं घर
फिर उसे धो धाकर
सजाते हैं रेहड़ी पर
फिर बनाते हैं खाना
गली में लगे नलके से
बाल्टी में पानी लाकर
सूखी ताजी रोटियों को
तरकारी के जूस में डूबोकर
मुंह में डालते हैं कौर
मैले कुचैले कपड़ों को
दुबली पतली शरीर में टांग कर
पैरों में घिसी चप्पल पहनकर
निकल पड़ते हैं रेहड़ी लेकर
सब्जी बेचने
गली गली घूमकर
सब्जी ले लो की
आवाज लगाकर
सुबह से शाम तक
बेचते हैं सब्जियां
तीखी धूप में
तकरीबन हर रोज
सब्जियों की तरह
कुमलाह जाते हैं
उनके सपने भी
किसी टमाटर की तरह
सड़ जाता है उनका प्रेम
विरह वेदना में वह भी
सूख जाता है
किसी मूली की तरह
पेट भारी पड़ता है
हमेशा ही प्यार पर
हरि सब्जी ले लो कि आवाज में
कभी दर्द होता है
तो कभी प्रेम में पगी मिठास
वैसे तो अक्सर होता है
बेबसी का दर्द...
@ ओमप्रकाश तिवारी
[27/08, 5:49 am] Usha Tiwari: घड़ी देखकर
न वक्त गुजरता है
न ही कम होता है
राही का रास्ता
चलते जाइये
बिना घड़ी देखे
बिना जाने पहर
दूरियां सिमट जाएंगी
कम समय में
यकीन मानिए
मंजिल पाकर
हैरान रह जाएंगे
एहसास करेंगे
ठहर गया है वक्त
आपके इंतजार में
@ ओमप्रकाश तिवारी
[29/08, 2:07 pm] Usha Tiwari: कविता
--------
ट्रैक्टर और आटा चक्की वाला
.................
आंख लगी ही थी कि गली से ट्रैक्टर की आवाज कानों में पड़ी
नींद टूट गयी
बहुत तेज गुस्सा आया
तेज कदमों से बालकनी पर आ गया
देखा ट्रैक्टर वाला चक्की में गेहूं पीस रहा है
सिर पर गमछा बंधे मैले कपड़े पहने वह अपने काम मे व्यस्त था
उसके पास केवल एक ग्राहक खड़ा था
मैं चुपचाप अंदर आया और बेड पर लेट गया
कुछ पलों में ट्रैक्टर की आवाज धीमी हो गई
मैं फिर सो गया...
@ ओमप्रकाश तिवारी
[29/08, 5:03 pm] Usha Tiwari: इतना सन्नाटा क्यों
इस सन्नाटे की गूंज को सुनो
मुठ्ठियां भींच लो अपनी
मौन हो करो कदमताल
फिर ऐसी आवाज गूँजे कि
फिजायें गा उठें...
[30/08, 3:27 am] Usha Tiwari: ध्यान से सुनो
सन्नाटे की गूंज
और भींच लो
अपनी मुठ्ठियां
मौन हो ही सही
करो कदमताल
गूंजेगी ऐसी कि
फिजायें गा उठेंगी...
[05/09, 5:55 am] Usha Tiwari: शब्दों से खेलने वाले शब्दों के अर्थ भूल गए हैं/जो करते हैं अर्थ का अनर्थ वे शब्दों से खेल रहे हैं/दलित शब्द प्रतिबंधित कर शहरी नक्सली ले आये हैं/कानून के डंडे से बहुजन के प्रतिरोध को कुचल रहे हैं/एक कानून की आड़ में सवर्ण भी सड़क पर उतर रहे हैं/दिखने में तो सरकार से नाराज पर इस्तेमाल हो रहे हैं/लड़ो-भिड़ो, मारो-काटो हिंसा का करो तांडव अच्छा है/तुम बंटे रहो वे ऐसे ही सत्ता की मलाई चाप रहे हैं.....
[06/09, 6:32 pm] Usha Tiwari: हम आलसी भारतीय
----
अभी अभी एशियाड खत्म हुआ है। भारत 15 गोल्ड सहित कुल 69 मेडल जीत पाया और 8वें नम्बर पर रहा। चीन शीर्ष पर। अंतर इतना कि जितना जमीन आसमान में है। ओलंपिक में तो एकाध ही गोल्ड मेडल जीत पाते हैं। हम खेल में इतने पीछे क्यों हैं? पहला सवाल सिस्टम की खामियों पर उंगली उठाता है। सही भी है। लेकिन इसके पीछे एक बड़ी वजह मैं समाजिक और सांस्कृतिक बुनावट को मानता रहा हूं। मैं दोस्तों के बीच कहता रहा हूं कि हम भारतीय आलसी बहुत हैं। खेल मेहनत मांगता है और हम मेहनत करना नहीं चाहते। हम भारतीय हमेशा जुगाड़ में लगे रहते हैं। हमारा काम जुगाड़ से होता है। नौकरी जुगाड़ से मिलती है। पदोन्नति जुगाड़ से होती है। पुरस्कार जुगाड़ से मिलती है। नेता जुगाड़ से जीतता है। खेल संघ वाले जुगाड़ वाले खिलाड़ियों को प्रतियोगिता में ले जाते हैं। प्रतिष्ठा भी जुगाड़ से मिलती है। सब कुछ जुगाड़ से मिलता है, लेकिन खेल में पदक नहीं। इसलिए पीछे रह जाते है। हमारी संस्कृति जुगाड़ की संस्कृति बनकर रह गयी है। मेहनत वाला गधा कहलाता है और जुगाड़ वाला स्मार्ट...चतुर सुजान... गधा खेल नहीं खेलता और चतुर सुजान शारीरिक खेल खेलता नहीं, मानसिक खेल खेलने से बाज आता नहीं। इसलिए शारीरिक खेल में कोई पदक पाता नहीं।
हम कितने आलसी हैं इसका एक डाटा सामने आया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक ताजा रिपोर्ट आई है। इसके अनुसार देश के 34% लोग शारीरिक रूप से बेहद कम सक्रिय हैं। इससे पहले 2001 में ऐसा शोध किया गया था तब भारत के 32% लोग शारीरिक रूप से कम सक्रिय थे। अब 15 साल डाटा एकत्रित करके 2016 में रिपोर्ट आई तो आलसियों की संख्या दो फीसदी बढ़ गयी। शारीरिक रूप से सक्रियता यानी मेहनत, श्रम करने हम चीन ही नहीं पाकिस्तान और नेपाल से भी पीछे हैं। कुवैत के लोग सबसे आलसी और युगांडा के लोग सबसे एक्टिव हैं। शारीरिक श्रम करने के मामले में 168 देशों में भारत का स्थान 52वां है। संगठन ने चेताया है कि शारीरिक रूप से कम सक्रिय होने की वजह से दुनिया की करीब डेढ़ करोड़ युवा आबादी पर 6 तरह की बीमारियों का खतरा है। यह बीमारियां हैं कार्डियोवस्कुलर, हाइपरटेंशन, टाइप-2 डायबिटीज, ब्रेस्ट और आंत का कैंसर। यह भी गौर करने लायक है कि भारत में पुरुषों की तुलना में महिलाएं कम एक्टिव हैं। 24.7% पुरुष तो 43.3 % महिलाएं कम एक्टिव हैं।
संगठन ने हमारे देश की जातीय संरचना पर ध्यान नहीं दिया। यदि देता तो मुझे पूरा यकीन है कि अलसी लोगों में एक जातीय वर्ग के लोग अधिक मिलते। दरअसल हमारा समाज सैकड़ों वर्षों से जातीय वर्ग में बंटा है। यहां बड़े ही शातिरपने से एक जातीय वर्ग पर श्रम की जिमेदारी थोप दी गयी। एक जातीय वर्ग को ज्ञानी बता कर ज्ञान बांटने की जिम्मेदारी दी दी गयी। एक जातीय वर्ग को वीर बता कर वीरता दिखाने की जिम्मेदारी दी दी गयी। एक जातीय वर्ग को व्यापार करने की जिम्मेदारी दे दी गई। इस तरह समाज का विभाजन कर दिया गया। श्रम करने की जिम्मेदारी जब एक तबके पर डाल दी गयी तो बाकी अपनी अपनी जिम्मेदारी में जुट गए। लेकिन कहते हैं कि वही समाज विकास करता है जो समय के साथ बदलता है। जो नहीं बदलता वह भारत हो जाता है। सदियों गुलामी झेलता है। कोई 70 साल पहले हम आजाद तो हो गए लेकिन समाजिक संरचना नहीं बदल पाए। लिहाजा अभी भी उलझे हुए हैं। देश में लोकतंत्र है लेकिन समाज और व्यवहार में नहीं है। पहले जो जातीय वर्ग श्रम नहीं करता था उसने कालांतर में जुगाड़ की संस्कृति विकसित कर ली। यह बात भी गौर करने वाली है कि ज्ञान बांटने वाले, वीरता दिखाने वाले और व्यापार करने वाले जातीय वर्ग  की महिलाएं तो घर से ही बाहर नहीं निकलती थीं। यह श्रम क्या करेंगी? इस वर्ग की महिलाओं का कमोबेश अब भी यही हाल है। गृहिणी बनकर तमाम तरह की बीमारियों से जूझ रही हैं। फिजिकली अन एक्टिव रहने से जो 6 बीमारियां बताई गईं हैं वह इसी अभिजातीय वर्ग की महिलाओं में अधिक पाई जाती हैं।
इसके अलावा हमारे देश में एक इंडिया है। यह आजादी के बाद बना है। इंडिया के लोग मेहनत नहीं करते। यह भरतीयों की मेहनत की केवल मलाई चापते हैं। तो पहले दक देश बनाइए फिर समरसता और बराबरी वाले समाज का निर्माण करिये फिर मेडल जीतने की बात सोचिए। फिलहाल तो देश शौचालय में अटका है और विकास के चौराहे पर भटक गया है। न रोजगार है न पगार है। महंगाई की मार है। जुगाड़ों की भरमार है।
[06/09, 8:46 pm] Usha Tiwari: SC/ST Act
एक पंडित जी थे। पूरे विघ्नसंतोषी। दूसरे की शांति और संपन्नता से इन्हें सख्त घृणा थी। अपने पड़ोसी से बहुत चिढ़ते थे। हमेशा उसकी जड़ों में मट्ठा डालते रहते थे । पडोसी को परेशान करने के लिए कोई न कोई परपंच रचते रहते। यहां तक कि नीम के पेड़ में जल डालने के साथ ही बेर के पेड़ भी जल डालते और पड़ोसी के विनाश की मन्नत मांगते। इसी भक्ति और श्रद्धा में एक दिन उन्होंने पड़ोसी की जमीन को अपनी कहते हुए बेर और बबूल का पौधा रोप दिया। पड़ोसी ने विरोध किया तो झगड़ा करने लगे। नौबत मारपीट की आ गई। जो पड़ोसी की समझदारी से टल गई। लेकिन पड़ोसी के बेटे ने बेर और बबूल का पौधा उखाड़ कर फेंक दिया। फिर क्या था पंडित जी ने पड़ोसी के बेटे को सबक सिखाने के लिए एक साजिश रची। पड़ोसी के पड़ोस में एक हरिजन परिवार रहता था। इस परिवार को पड़ोसी ने ग्राम सभा की जमीन पर बसने की दया की थी। पंडित जी ने इस हरिजन परिवार को भड़का दिया। उसके घर के नजदीक की जमीन जो पड़ोसी और पंडित जी के पास थी उस पर कब्जा करने को कहा। पंडित जी ने अपने कब्जे वाली जमीन हरिजन परिवार से पैसे लेकर उसे दे दी और पड़ोसी के कब्जे वाली जमीन पर उसे कब्जा करने के लिए उकसाया। यह बात हरिजन परिवार को जंच गई। उन्होंने तुरंत पड़ोसी के कब्जे वाली ग्राम सभा की जमीन पर कब्जा कर लिया। जाहिर है कि पड़ोसी ने विरोध किया। इस पर दोनों में झगड़ा हो गया। इसके बाद पंडित जी हरिजन परिवार के एक सदस्य को अपनी साइकिल पर बैठा कर थेन ले गए और पड़ोसी पर हरिजन उत्पीड़न (sc/st act) का केस दर्ज करा दिया।  उसके बाद पंडित जी हरिजन परिवार के सदस्य को छोड़कर साइकिल पर बैठे और गाना गुनगुनाते हुए घर आ गए। हरिजन परिवार का सदस्य जेठ की भरी दोपहरी में 5 किलोमीटर पैदल चल कर घर आया। शाम को थाने से एक सिपाही इनकी शिकायत की जांच करने आया। खाकी वर्दी देखकर पड़ोसी के घर वाले घबरा गए। उन्होंने सिपाही को गाय का लाल वाला एक गिलास दूध पिलाया और सारी बात विस्तार से बता दी। सिपाही भी पंडित था। उसे माजरा समझते देर न लगी। वह पहले तो पंडित जी के यहां जाकर खूब गालियां बकी। उन्हें थेन चलने का आदेश दिया। डरे पंडित गिड़गिड़ाए तो माफी शुल्क लेकर दया कर दी। हिदायत दी कि ऐसी हरकत आइंदा न करना। फिर सिपाही हरिजन परिवार के पास गया। पूरा पुलिसिया रौब झाड़ा। डरे सहमे हरिजन परिवार ने माफी मांगी और माफी शुल्क भी दिया। एक सादे कागज पर दस्खत भी किया। कल थाने आने का आदेश देकर सिपाही चला गया। अगले दिन पड़ोसी और हरिजन परिवार थाने गए। दरोगा ने सिपाही की रिपोर्ट पर दोनों में सुलह करवा दिया। हिदायत दी कि ऐसी हरकत कभी मत करना। कानून का दरुपयोग भी जुर्म है। इस बार छोड़ दे रहे हैं लेकिन अगली बार नहीं छोड़ेंगे। थाने से निकल कर पड़ोसी और हरिजन परिवार के सदस्य एक साथ पैदल ही आपस में बातचीत करते हुए घर तक आए....
[07/09, 4:05 am] Usha Tiwari: देखो भाई
ज्यादा हुज्जत मति करो
नहीं तो
हम भी अड़ जाएंगे
पिल जाएंगे भाई
तो पिलपिला बना देंगे
जानता हूँ
भूख बड़ी है
जिन्दगी बचाने के लिए
लड़ना पड़ता है
भूख से
लेकिन स्वाभिमान से
बड़ी नहीं है भूख
पूरी जद्दोजहद करेंगे
भूख से मरने से पहले
फिर भी विफल रहे तो
कुछ तूफानी कर जाएंगे
जिम्मेदार को भी
हमसफ़र बनाएंगे
आग के अंगारों पर चलाएंगे
संवेदनाएं यदि
तुम्हारी मर जाएंगी तो
जिन्दा मेरी भी नहीं रहेंगी
इसलिए कहता हूं
हुज्जत मति करो
नहीं तो पिल जाएंगे
यदि पिल गए तो
पिलपिला बना देंगे।
कसम से कह रहा हूँ
भरा पड़ा है बहुत कुछ
धुआं धुआं सा हो रिआ
हवा देने की जरूरत है
आग भड़क जाएगी
तूफानों से घिरा शख्स
कभी भी तूफानी हो सकता है।
[07/09, 4:43 am] Usha Tiwari: कविता
--------
सीमाएं
-------
विदेश जाना
मैं भी चाहता हूं
नौकरी करने
या घूमने नहीं
किसी जलसे में
शामिल होने नहीं
कोई फ्राड करने
छिपाने भी नहीं
वश सीमाओं को
देखना चाहता हूं
जो एक से दूसरे देश को
करती हैं विभाजित
पासपोर्ट है मेरे पास
जब्त नहीं किया है
किसी न्यायालय ने
किसी भी अपराध में
अनन्त की यात्रा का
इंतजार कर रहा हूं
दरअसल मैं पहले
देश में बनी सीमाओं का
दीदार करना चाहता हूं
महसूस करना चाहता हूं
विभजित करने वाली
खुरदुरी रेखाओं को
मुझे यकीन है पूरा
दो देशों की सीमाएं
कुछ इसी तरह होंगी
कुछ सीमाएं मन में हैं
कर रहा हूं कोशिश
इन्हें भी समझने की
मिटाने और हटाने की
@ओमप्रकाश तिवारी
[07/09, 5:03 am] Usha Tiwari: महोदय
आज काम करने का
मूड नहीं है
बच्चे की उंगली पकड़ कर
घूमना चाहता हूं
करना चाहता हूं
पत्नी से गुफ्तगू
माता-पिता से भी
फोन पर ही सही
करना चाहता हूं
लंबी बातचीत
भूल जाना चाहता हूं
खुद को और खुदी को
दफ्तर और काम को
आदमी और समाज को
कोई गीत
कोई कविता
कोई गजल
गुनगुना चाहता हूं
क्या छुट्टी मांगने वाले
किसी आवेदन का
ऐसा मजमून नहीं हो सकता?
@ओमप्रकाश तिवारी
[07/09, 8:33 pm] Usha Tiwari: शब्दों से खेलने वाले
शब्दों के अर्थ भूल गए हैं
जो करते हैं अर्थ का अनर्थ
वे शब्दों से खेल रहे हैं
दलित शब्द प्रतिबंधित कर
शहरी नक्सली ले आये हैं
कानून के डंडे से बहुजन के
प्रतिरोध को कुचल रहे हैं
कानून की आड़ में सवर्ण भी
सड़क पर उतर रहे हैं
दिखने में तो सरकार से नाराज
पर इस्तेमाल हो रहे हैं
लड़ो-भिड़ो, मारो-काटो
हिंसा का करो तांडव अच्छा है
तुम बंटे रहो वे ऐसे ही
सत्ता की मलाई चाप रहे हैं
फीकी मुस्कान के साथ तानाशाही
को अनुशासन बता रहे हैं

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डर ---- तेज बारिश हो रही है दफ्तर से बाहर निकलने पर उसे पता चला घर जाना है बारिश है अंधेरा घना है बाइक है लेकिन हेलमेट नहीं है वह डर गया बिना हेलमेट बाइक चलाना खतरे से खाली नहीं होता दो बार सिर को बचा चुका है हेलमेट शायद इस तरह उसकी जान भी फिर अभी तो बारिश भी हो रही है और रात भी सोचकर उसका डर और बढ़ गया बिल्कुल रात के अंधेरे की तरह उसे याद आया किसी फिल्म का संवाद जो डर गया वह मर गया वाकई डरते ही आदमी सिकुड़ जाता है बिल्कुल केंचुए की तरह जैसे किसी के छूने पर वह हो जाता है इंसान के लिए डर एक अजीब बला है पता नहीं कब किस रूप में डराने आ जाय रात के अंधेरे में तो अपनी छाया ही प्रेत बनकर डरा जाती है मौत एक और डर कितने प्रकार के हैं कभी बीमारी डराती है तो कभी महामारी कभी भूख तो कभी भुखमरी समाज के दबंग तो डराते ही रहते हैं नौकरशाही और सियासत भी डराती है कभी रंग के नाम पर तो कभी कपड़े के नाम पर कभी सीमाओं के तनाव के नाम पर तो कभी देशभक्ति के नाम पर तमाम उम्र इंसान परीक्षा ही देता रहता है डर के विभिन्न रूपों का एक डर से पार पाता है कि दूसरा पीछे पड़ जाता है डर कभी आगे आगे चलता है तो कभी पीछे पीछे कई

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