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शख्सियत : शरद जोशी, जिन्हें सुनने के लिए लेना पड़ता था टिकट, जिनके दम पर ...

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परिवर्तन लाजमी है तो डरना क्यों? - ओमप्रकाश तिवारी मानव सभ्यता अंतरविरोधों के परमाणु बम जैसी है। इसके अंतरविरोध परिवर्तनशील बनाकर इसे आगे बढ़ाते हैं तो यही इसका विनाश भी करते हैं। मानव जाति का इतिहास गवाह है कि भूत में कई सभ्यताएं तबाह हो गईं जिनके मलबे से खाद-पानी लेकर नई सभ्यताओं ने जन्म लिया और फली-फूली हैं। यही वजह है कि मानव भविष्य को लेकर हमेशा चिंतित रहता है। उसकी अधिकतर योजनाएं बेहतर भविष्य के लिए होती हैं। लेकिन हर आदमी, हर समाज और हर सभ्यता व संस्कृति हमेशा बेहतर नहीं साबित होती। अक्सर इंसानी अनुमान धरे केधरे रह जाते हैं और भविष्य कुछ का कुछ हो जाता है। वामपंथी चिंतक कार्ल मार्क्स का आकलन था कि पूंजीवादी व्यवस्था अपनी तबाही के लिए खुद ही रास्ते बनाती है। यही वजह है कि एक दिन यह व्यवस्था तबाह हो जाएगी और इसके स्थान पर नई व्यवस्था सामने आएगी। नई व्यवस्था क्या होगी इसकी भी मार्क्स ने कल्पना की और बताया कि वह साम्यवादी व्यवस्था होगी। लेकिन ऐसा हुआ क्या? आज लगभग पूरी दुनिया में पूंजीवादी व्यवस्था है। सोवियत रूस जैसे देशों में साम्यवादी व्यवस्था आई भी तो वह पूंजीवादी व्यवस्था ...

कहानी कोढ़ी का नल

भाग दो --- बहुत पहले यहां जंगल हुआ करता था। जिसमें ढाक के पेड़ बहुतायत में थे। इनके अलावा बबूल और कटाई की झांडियां थीं। जहां इनका वास नहीं था वह जमीन ऊसर थी। उसमें रेह पैदा होती थी। जिसमें घास भी नहीं उगती। इस बौने जंगल में जहां सांप-बिच्छू रहते थे, वहीं जंगली सूअर और गीदड़ जैसे प्राणी भी रहते थे। इन्हीं के बीच दो घर मनुष्यों के थे, जिन्हें दूसरे गांव के लोग वनप्राणी कहते थे। जब जमींदारी का जमाना था तो इनके पूर्वज कहीं से आकर यहां बस गए थे। पहले यह एक ही घर थे, लेकिन खानदान की वृद्धि हुई तो दो हो गए। इन्हें वनप्राणी इसलिए कहा जाता था, योंकि इन्होंने यहां बसने के बाद और किसी इनसान को बसने ही नहीं दिया। जिसने भी कोशिश की उसे मुंह की खानी पड़ी। हालांकि जंगली जानवरों से मुकाबले के लिए इन्हें समाज की जरूरत थी, लेकिन वन संपदा का बंटवारा न हो जाए इसलिए यह लोग इस जगह को आबाद नहीं होने दे रहे थे। समय के साथ यह वनप्राणी भी बदले। इन्हें भी समाज की जरूरत महसूस हुई। इसके बाद इन्होंने यहां पर लोगों को बसने की इजाजत दी। यहां पर बसने वाले दूसरे गांवों के फालतू लोग थे। फालतू इसलिए कि इन्हें अपने गांव...

कहीं कुछ ज्यादा तो नहीं टूट रहा-

कहीं कुछ ज्यादा तो नहीं टूट रहा- -मृत्युंजय कुमार यह इक्कीसवीं सदी हैइसलिए बदल गई हैं परिभाषाएंबदल गए हैं अर्थसत्ता के भीऔर संस्कार के भी।वे मोदी हैं इसलिएहत्या पर गर्व करते हैंजो उन्हें पराजित करना चाहते हैंवे भी कम नहींबार बार कुरेदते हैं उन जख्मों कोजिन्हें भर जाना चाहिए थाकाफी पहले ही।वे आधुनिक हैं क्योंकिशादी से पहले संभोग करते हैंतोड़ते हैं कुछ वर्जनाएंऔर मर्यादा की पतली डोरी भीक्योंकि कुछ तोड़ना ही हैउनकी मार्डनिटी का प्रतीकचाहे टूटती हों उन्हें अब तकछाया देनेवाली पेड़ों कीउम्मीद भरी शाखाएंशायद नहीं समझ पा रहे हैंवर्जना और मर्यादा का फर्क।