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मगही दिवस के रूप मे मनेगी योगेश की जयंती

बाढ़ । मगही कवि स्व. योगेश्वर सिंह योगेश की पुण्यतिथि समारोह के मौके पर बीती रात नीरपुर गांव मे अखिल भारतीय मगही-कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। सम्मेलन की अध्यक्षता साहित्यकार (magahi akadami ke adhyaksh) उदय शंकर ने की जबकि संचालन मगही के चर्चित कवि रामाश्रय झा ने किया। सम्मेलन मे बिहार व यूपी की विभिन्न जगहो से आये साहित्य- काव्य के कई दिग्गज पुरोधा शामिल हुए। कवियो की व्यंगात्मक व समाजिक कुरितियो पर प्रहार करती काव्य रस की सुर सरिता मे श्रोतागण देर रात तक झूमते रहे। हिसुआ से आये चर्चित कवि दीनबंधु, कवि कारू गोप, जयराम जी, व गोपालगंज के पंकज जी समेत अन्य साहित्यकारो ने सामाजिक अव्यवस्था पर चोट करती कविता पाठकर लोगो को मंत्र मुग्ध कर दिया। इस मौके पर कवि योगेश फाउंडेशन के द्वारा मगही मंडल के अध्यक्ष व वरिष्ठ साहित्यकार डा. रामनंदन जी को 2010 का योगेश शिखर सम्मान प्रदान किया गया। एक साथ जुटे मगही साहित्य के दिग्गजो ने इस मौके पर घोषणा किया कि कवि स्व. योगेश की जयंती 23 अक्टूबर को मगही दिवस के रूप मे मनाया जायेगा। समापन समारोह को संबोधित करते हुए मृत्युंजय कुमार ने कहा कि कवि योगेश जी की 1950 के दशक की दुर्लभ पांडुलिपियां मगही मंडल व बिहार सरकार को de देंगे ताकि मगही साहित्य का प्रचार प्रसार व्यापक रूप से हो सके।

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डर ---- तेज बारिश हो रही है दफ्तर से बाहर निकलने पर उसे पता चला घर जाना है बारिश है अंधेरा घना है बाइक है लेकिन हेलमेट नहीं है वह डर गया बिना हेलमेट बाइक चलाना खतरे से खाली नहीं होता दो बार सिर को बचा चुका है हेलमेट शायद इस तरह उसकी जान भी फिर अभी तो बारिश भी हो रही है और रात भी सोचकर उसका डर और बढ़ गया बिल्कुल रात के अंधेरे की तरह उसे याद आया किसी फिल्म का संवाद जो डर गया वह मर गया वाकई डरते ही आदमी सिकुड़ जाता है बिल्कुल केंचुए की तरह जैसे किसी के छूने पर वह हो जाता है इंसान के लिए डर एक अजीब बला है पता नहीं कब किस रूप में डराने आ जाय रात के अंधेरे में तो अपनी छाया ही प्रेत बनकर डरा जाती है मौत एक और डर कितने प्रकार के हैं कभी बीमारी डराती है तो कभी महामारी कभी भूख तो कभी भुखमरी समाज के दबंग तो डराते ही रहते हैं नौकरशाही और सियासत भी डराती है कभी रंग के नाम पर तो कभी कपड़े के नाम पर कभी सीमाओं के तनाव के नाम पर तो कभी देशभक्ति के नाम पर तमाम उम्र इंसान परीक्षा ही देता रहता है डर के विभिन्न रूपों का एक डर से पार पाता है कि दूसरा पीछे पड़ जाता है डर कभी आगे आगे चलता है तो कभी पीछे पीछे कई

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कविता ...... सन्तान मोह और मानव सभ्यता ....... क्या दो जून की रोटी के लिए जिंदगी पर जिल्लतें झेलता है इंसान? पेट की रोटी एक वजह हो सकती है यकीनन पूरी वजह नहीं हो सकती दरअसल, इंसान के तमाम सपनों में सबसे बड़ा ख्वाब होता है परिवार जिसमें माता-पिता नहीं होते शामिल केवल और केवल बच्चे होते हैं शामिल इस तरह हर युवा संतान की परिधि से बाहर हो जाते हैं माता-पिता जरूरी हो जाते हैं अपने बच्चे जब उनके बच्चों के होते हैं बच्चे तब वह भी चुपके से कर दिए जाते हैं खारिज फिर उन्हें भान होता है अपनी निरर्थकता का लेकिन तब तक हो गई होती है देरी मानव सभ्यता के विकास की कहानी संतान मोह की कारूण कथा है जहां हाशिये पर रहना माता-पिता की नियति है संतान मोह से जिस दिन उबर जाएगा इंसान उसी दिन रुक जाएगी मानव सभ्यता की गति फिर न परिवार होगा न ही घर न समाज होगा न कोई देश छल-प्रपंच ईर्षा-द्वेष भी खत्म बाजार और सरकार भी खत्म जिंदगी की तमाम जिल्लतों से निजात पा जाएगा इंसान फिर शायद न लिखी जाए कविता शायद खुशी के गीत लिखे जाएं... #omprakashtiwari

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