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Showing posts from December, 2007

कहानी डर के साये में

कहानी -ओमप्रकाश तिवारी विजय अपनी सीट पर लेटा एक पुस्तक पढ़ने में ध्यानमग्न था। - हिंदू, हिंदी, हिंदुस्तान। वह जोर से चीखा। विजय के हाथ से पुस्तक गिरते-गिरते बची। इधर-उधर देखा तो निगाह बोगी के दरवाजे पर खड़े व्यक्ति पर अटक गई। वहां एक भगवाधारी व्यक्ति हाथ में डंडा लिए और माथे पर श्रीराम नाम लिखी पट्टी बांधे खड़ा था। - सब साले चोर हैं। नाली के कीड़े हैं। पूरे देश को गंदा करके रख दिया है। कहते हुए उसने डंडे से दरवाजे को पीटा तो विजय उठकर बैठ गया। विजय की दिलचस्पी किताब से हटकर उस व्यक्ति में हो गई। - भगवान राम का मंदिर जरूर बनेगा। हिंदू, हिंदी, हिंदुस्तान, जिंदाबाद-जिंदाबाद। वह लगभग चीख रहा था। उसकी इस हरकत से डिब्बे में बैठे लोगों का ध्यान उसकी तरफ चला गया था। लगभग सभी उसी को देख रहे थे। उसकी हरकतों से विजय आशंकित हो गया। विजय की निगाह अपनी किताब पर पड़ी तो वह और डर गया...। किताब उसकी विचारधारा से मेल नहीं खाती थी। विजय ने सोचा यदि इसे पता चल गया तो...। कुछ भी कर सकता है। हाथ में डंडा है...। पता नहीं और भी कुछ लिए हो...। याद आया गुजरात का गोधरा ट्रेन कांड और उसके बाद की स्थितियां...। - स

कहानी - एक लड़की पहेली सी

कहानी - एक लड़की पहेली सी - ओमप्रकाश तिवारी टाइपिंग कोचिंग सेंटर में विजय का पहला दिन था। वह अपनी सीट पर बैठा टाइप सीखने के लिए नियमावली पुस्तिका पढ़ रहा था। तभी उसकी निगाह अपने केबिन के गेट की तरफ गई। गाय की आंख जैसी कजरारे नयनों वाली एक सांवली उसी केबिन में आ रही थी। वह देखता ही रह गया। लड़की उसकी बगल वाली सीट पर आ कर बैठ गई। टाइप राइटर को ठीक किया और टाइप करने में मशगूल हो गई। लेकिन विजय का मन टाइप करने में नहीं लगा। वह किसी भी हालत में लड़की से बातें करना चाह रहा था। वह टाइप राइटर पर कागज लगाकर बैठ गया और लड़की को निहारने लगा। लड़की की अंगुलियां टाइप राइटर के की-बोर्ड पर ऐसे पड़ रही थीं जैसे वह हारमोनियम बजा रही हो। थोड़ी देर बाद लड़की को विजय की इस हरकत का एहसास हुआ तो वह गुस्से में बोली। - क्या देख रहे हो? - आपको टाइप करते हुए देख रहा हूं। - यहां क्या करने आए हो? उसका स्वर तल्ख था। - टाइप सीखने। बिल्कुल सहज जवाब था विजय का। - ऐसे सीखोगे? लड़की के स्वर में तल्खी बरकरार - मेरा आज पहला दिन है न, इसलिए मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा है। आप टाइप कर रहीं थीं तो मैं देखने लगा कि आपकी अंगुलियां क

कहीं कुछ ज्यादा तो नहीं टूट रहा-

कहीं कुछ ज्यादा तो नहीं टूट रहा- -मृत्युंजय कुमार यह इक्कीसवीं सदी हैइसलिए बदल गई हैं परिभाषाएंबदल गए हैं अर्थसत्ता के भीऔर संस्कार के भी।वे मोदी हैं इसलिएहत्या पर गर्व करते हैंजो उन्हें पराजित करना चाहते हैंवे भी कम नहींबार बार कुरेदते हैं उन जख्मों कोजिन्हें भर जाना चाहिए थाकाफी पहले ही।वे आधुनिक हैं क्योंकिशादी से पहले संभोग करते हैंतोड़ते हैं कुछ वर्जनाएंऔर मर्यादा की पतली डोरी भीक्योंकि कुछ तोड़ना ही हैउनकी मार्डनिटी का प्रतीकचाहे टूटती हों उन्हें अब तकछाया देनेवाली पेड़ों कीउम्मीद भरी शाखाएंशायद नहीं समझ पा रहे हैंवर्जना और मर्यादा का फर्क।
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Natak

स्वप्नवृक्ष -ओमप्रकाश तिवारी अंक एक दृश्य एक (मंच पर परदा धीरे-धीरे उठता है। बैकग्राउंड से मद्धिम संगीत सुनाई देता है। मंच के एक कोने में प्रकाश होता है। वहां एक गमला रखा है, जिसमें कोई पौधा नहीं है। इसके बाद प्रकाश का फोकस मंच के दूसरे कोने में होता है। वहां खद्दर का कुरता पायजामा पहने एक तीस वर्षीय युवक खड़ा है। उसके हाथों में एक पौधा है। वह उसी को देख रहा है और उसी से बातें भी कर रहा है। युवक का नाम सुधीर है।) सुधीर : देखो प्यारे तुम मेरा सपना हो। बड़ी आशा है तुमसे। मुझे निराश मत करना। लग जाना। मैं चाहता हूं कि तुम वृक्ष बनो। इस गमले में (गमले की तरफ इशारा करते हुए) तुम्हें कुछ ही साल रहना है। जैसे ही तुम्हारी जड़ें फैलनी शुरु होंगी, तुम्हें गमले से निकाल कर धरती पर लगा दूंगा। इस गमले में थोड़ी मुश्किल जरूर होगी, लेकिन हिम्मत से काम लेना। मुश्किलों का सामना हौसले और आत्मविश्वास से ही किया जा सकता है। लक्ष्य पाने के लिए तमाम मुश्किलों, समस्याओं और विसंगतियों का सामना करना पड़ता है। यदि तुमने ठान लिया कि पेड़ बनना है तो फिर दुनिया की कोई ताकत तुम्हें डिगा नहीं सकती। (नाटक "स